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पाठ दिये गये हैं। महाराष्ट्र प्रान्त की जन-बोली से विकसित होने के कारण इस प्राकृत को महाराष्ट्री प्राकृत कहा जाता है। मराठी भाषा से इसका सम्बन्ध है।
अपभ्रंश युग:
साहित्य के लिए एक महाराष्ट्री प्राकृत भाषा तय हो जाने से प्राकृत भाषा में स्थिरता तो आयी, किन्तु उसका जन-जीवन से सम्बन्ध दिनों दिन घटता चला गया । वह साहित्य की भाषा बनकर रह गयी । अतः जन-बोली का स्वरूप इस प्राकृत से कुछ भिन्नता लिए हुए प्रचलित होने लगा, जिसे विद्वानों ने अपभ्रश भाषा नाम दिया है। यह प्रवृत्ति लगभग ६-७ वीं शताब्दी में गतिशील हुई। यहाँ से प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था प्रारम्भ हुई । उसे अपभ्रंश युग कहा गया है । अपभ्रंश भाषा प्राकृत
और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। वह आधुनिक आर्य भाषाओं (राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि) की पूर्ववर्ती अवस्था है। अपभ्रंश भाषा का महत्त्व प्राकृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को जानने के लिए आवश्यक है।
प्राधुनिक भाषाएँ:
भारतीय आधुनिक भाषाओं का जन्म उन विभिन्न लोक भाषाओं से हुआ है, जो प्राकृत व अपभ्रश से प्रभावित थीं। इन भाषाओं की व्याकरणात्मक संरचना और काव्यात्मक विधाओं का अधिकांश भाग प्राकृत की प्रवृत्तियों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त शब्द-समूह की समानता भी ध्यान देने योग्य है। जन-भाषा हिन्दी भी प्राचीन जन-प्राकृत से कई अर्थों में सम्बन्ध रखती है। शब्द एवं क्रियारूपों की दोनों में समानता के साथ-२ सहजता और मधुरता के गुण भी देखने को मिलते हैं । यथा -
प्राकृत काव्य-मंजरी
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