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________________ १०, ऐसा सोचकर (वह) अपनी हथेली में चिन्तामणि रत्न को लेकर आँख से बार बार रत्न और चन्द्रमा का निरीक्षण करता है । ११. और उसके दुर्भाग्य से इस प्रकार देखते हुए हथेली-प्रदेश से अत्यन्त छोटा और चमकदार वह रत्न समुद्र में गिर गया। १२. उस (व्यापारी) के द्वारा बार-बार खोजे जाने पर भी समुद्र के बीच में गिरा हुआ समस्त रत्नों का शिरोमणि (वह) चिन्तामरिण क्या किसी प्रकार प्राप्त हो सकता है ? (नहीं)। १३ उसी प्रकार बहुत प्रकार के सैकड़ों जन्मों में भ्रमण के द्वारा किसी-किसी प्रकार से प्राप्त मनुष्य-जन्म को जीव असावधानी (प्रमाद) से परवश होकर क्षणमात्र में खो देता है। 000 पाठ १६ : मनुष्य की कृतघ्नता १. एक आदमी था। (एक बार) वह लकड़ी के लिए जंगल को गया और उसके द्वारा (वहाँ) सिंह देखा गया । उस (शेर) के भय से (वह आदमी) वृक्ष पर चढ़ गया। २-३. उस ऊँचे वृक्ष पर (पहले से) चढी हुई एक बन्दरिया को देखकर भय को प्राप्त शरीर वाला वह (आदमी) सोचता है- दोनों के बीच में (मैं) घिर गया (हूँ) । 'यह एक तरफ व्याघ्र एवं दूसरी तरफ भरी हुई नदी' नामक विकट न्याय हो गया है ।' तभी बन्दरिया के द्वारा वह कहा गया- 'हे पुत्र! डरो मत और काँपो मत ।' ४. (इससे) वह आश्वस्त हो गया । वृक्ष के नीचे (वह) सिंह ठहर जाता है। रात्रि हुई । तब (वह) आदमी और (वह) बन्दरिया नींद लेने लगते हैं । प्राकृत काव्य-मंजरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003806
Book TitlePrakrit Kavya Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages204
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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