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पाठ १८ : समुह-गमणं पाठ-परिचय :
लगभग चौदहवीं शताब्दी की लिखी हुई एक हस्तलिखित पुस्तक प्राप्त हुई है। इसका नाम पाइप्रकहासंगहो है। इस प्राकृत कथा-संग्रह में १२ कथाएँ हैं, जो पद्मचन्द्रसूरि के किसी शिष्य द्वारा लिखित विक्रमसेनचरित नामक प्राकृत ग्रन्थ से संग्रहीत की गयी हैं । इस ग्रन्थ में दान, शील, तप, भावना आदि से सम्बन्धित कथाएं हैं । उन्हीं कथाओं में समुद्रदत्त की कथा है । समुद्रदत्त पुरुषार्थों युवक है । उसके समुद्रगमन का वर्णन इस पाठ में है।
चितइ य निसासेसे समुद्ददत्तो अहन्नसमयंमि । जो जणयज्जियलच्छि उवभुजइ अहमचरिओ सो ॥१॥ किं पढिएणं, बुद्धीए कि, व कि तस्स गुणसमूहेण । जो पियरविढत्तधणं भुजइ अज्जणसमुत्थो वि ॥२॥
जणरिण-जणयाणचलणे नमिउं विनवइ जोडियकरो सो। जलमग्गेणं अज्जिय बहुदव्वं प्रागमिस्सामि ।।३।।
ताई वि भणंति पत्तय! लच्छी विउला वि अत्थि अम्ह गिहे । एयं चिय वच्छ! तुमं भुजसु निच्चं स-इच्छाए ॥४॥
प्रोवाइय-सय-लद्धो एगो चिय अम्ह पुत्तो सि । तुम्हारिसारण सुहय-लालियाण दुग्गो जलहिमग्गो ।।५।। उच्छाहुल्हसि-तणू समुदत्तो पयंपए तत्तो ।। सुगमं व दुग्गमं वा कुरणेइ किं धीरपुरिसारण ॥६॥
पुव्वपुरिसज्जियाई धणाई विद्दवइ को न इच्छाए। जे समज्जिय भुजन्ति हुन्ति ते उत्तमा के वि ॥७॥
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प्राकृत काव्य-मंजरी
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