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पाठ-परिचय :
पाठ २६ : जीवण-मुल्लं
प्राकृत मुक्तक साहित्य में 'वज्जालग्गं' ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस ग्रन्थ की गाथाएँ व्यक्तिगत रसास्वादन के साथ-साथ लोक-मंगल की भावना से भरी हुई हैं । पुरुषार्थ, ज्ञान, चरित्र, गुण- गरिमा, संगति, मित्रता, स्नेह आदि अनेक जीवन-मूल्यों का उद्घाटन इस ग्रन्थ की गाथाओं से होता है ।
वज्जालग्गं के इसी महत्त्व को देखते हुए दर्शन के प्रोफेसर एवं प्राकृत के अध्येता डॉ० कमलचन्द सोगारगी ने 'वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य भाग १' नामक पुस्तक में इस ग्रन्थ की सौ गाथाओं का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। उसी से इस पाठ की गाथाएँ चयनित की गयी हैं। इन गाथाओं में कहा गया है कि धैर्यशाली पुरुष अपने कार्य को कभी अधूरा नहीं छोड़ते । ज्ञान से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है । चरित्र की महिमा सबसे बढ़कर है । गुणी व्यक्ति- हर प्रकार से आदर योग्य है, इत्यादि ।
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तं मित्तं कायव्वं जं किर वसरणम्मि देसकालम्मि | आलिहिय-भित्ति- बाउल्लयं व न परंमुहं ठाइ ॥१॥
कीरइ समुद्दतरणं पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए । प्रायामिज्जइ मरणं नत्थि दुलंघं सिणेहस्स ||२||
एक्काई नवरि नेहो पयासि तिहुयगम्मि जोन्हाए । जा भिज्जइ झीणे ससहरम्मि वड्ढेइ वड्ढते ॥३॥
मे कह विकस्स वि केण विदिट्ठण होइ परिप्रोसो । कमलायराण रइणा किं कज्जं जेरण विसन्ति ||४||
सीलं वरं कुलाओ दालिद्दं भव्वयं च रोगाओ । विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं सुट्ठ वि तवा ||५||
सीलं वरं कुलाो कुलेण किं होइ विगयसीले । कमलाइ कद्दमे संभवन्ति न हु हुन्ति मलिणाई || ६ ||
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प्राकृत काव्य - मंजरी
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