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पाठ २६ : जीवण-ववहारो
पाठ-परिचय :
प्राकृत का प्राचीन साहित्य अर्धमागधी प्राकृत एवं शौरसेनी प्राकृत में भी उपलब्ध है। इन दोनों का संकलन-ग्रन्थ एक तो 'समणसुत्तं' है, जिसमें से कुछ गाथाएँ 'सिक्खानीई' नामक पाठ में पहले प्रस्तुत की गयो हैं। दूसरा संकलन-ग्रन्थ अर्हत्प्रवचन है, जिसका चयन दर्शन और आगम ग्रन्थों के प्रसिद्ध विद्वान स्व० ५० चैनसुखदास न्यायतीर्थ ने किया था। इस ग्रन्थ में कुल १६ पाठ हैं, जिनमें जीवन को उन्नत करने वाली प्राकृत गाथाओं का संकलन है। उसी में से प्रस्तुत पाठ की गाथाएँ ली गयी हैं।
ज्ञान का प्रकाश सर्वव्यापी है। विनय का फल सबका कल्याण है। हित कारी और संयत वचन मनुष्य को सुखी करते हैं। सज्जन व्यक्ति की संगति प्रतिष्ठा देती है और दुर्जन की संगति मूल स्वभाव को बदल देती है । गुण कहने से नहीं, अपने आप प्रगट होते हैं और आचरण से ही उनका विकास होता है। क्रोध और मान को त्यागने से जीवन को सार्थक किया जा सकता है, आदि जीवन-व्यवहारों का निर्देश प्रस्तुत पाठ में है।
णाणुज्जोवो जोवो रणाणुज्जोवस्स पत्थि पडिघादो। दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो गाणं जगमसेसं ॥१॥
थेवं थेवं पेच्छह
धम्मं करेह जइ ता महानईग्रो बिन्दूहि
बहुं न सक्केह । समुद्दभूयारो ॥२॥
विणएण विप्पहूस्स हवदि सिक्खा रिणरत्थिया सव्वा । विणो सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ॥३॥
जल-चंदण-ससि-मुत्ता-चंदमणी तह णरस्स रिणव्वाणं । ण करंति कुणइ जह अत्थज्जुयं हिय-मधुर-मिद-वयणं ॥४॥
प्राकृत काव्य-मंजरी
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