Book Title: Jain Achar
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला जैन आ चार मोहनलाल मेहता एम. ए. (दर्शन व मनोविज्ञान), पी-एच. डी., शास्त्राचार्य अध्यक्ष, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-५ IFEndos - - -- वाराणसी-५:. सच्चं लोगम्मि सारभूयं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान जै ना श्रम हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी-५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সাক पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान जैनाश्रम हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणमी-५ मद्रक बाबूलाल जैन फागुल्ल महावोर प्रेस भेलूपुर, वाराणसी-१ प्रकाशन-वर्ष: सन् १९६६ मूल्य , पांच रुपये Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स म प ण । पार्श्वनाथ विद्याश्रम के पारण लाला हरजसराय जैन को सादर-सस्नेह Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन सन्मति ज्ञानपीठ, यागरा ने सन् १९५६ में लेखक का 'जैन दर्शन' प्रकाशित किया । इस ग्रन्थ का हिन्दी जगत् में उल्लेखनीय स्वागत हुआ । राजस्थान सरकार ने एक महस्र रुपये तथा स्वर्णपदक एव उत्तर- प्रदेश सरकार ने पाँच सौ रुपये प्रदान कर लेवक को पुरस्कृत व सम्मानित किया । जैन दर्शनशास्त्र पर प्रकाशित उपर्युक्त कृति के समान ही प्रस्तुत ग्रन्थ जैन आचारशास्त्र पर अपने ढंग की एक विशिष्ट कृति है । इसका निर्माण इस ढंग से किया गया है कि भारतीय धर्म व दर्शन का सामान्य परिचय रखनेवाला जिज्ञासु इमे सरलता से समझ सकेगा । विद्यालयो, महाविद्यालयो व विश्वविद्यालयो के विद्याथियों के लिए भी यह उपयोगी सिद्ध होगा । जैन आचार कर्मवाद पर प्रतिष्ठित है । कर्मवाद का आधार आत्मवाद है | आत्मवाद का पोपण करनेवाले तत्त्व है अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्तदृष्टि | जैन आचारशास्त्र में चारित्र - विकास अर्थात् आत्मिक विकास की विभिन्न अवम्याएँ स्वीकार की गई है। आत्मिक गुणो के विकास की इन अवस्थाओ को गुणस्थान कहा गया है। गुणस्थानो का निरूपण मोहशक्ति की प्रबलता - दुर्बलता के आधार पर किया गया है । जैन आचार दो रूपों में उपलब्ध होता है : श्रावकाचार और श्रमणाचार । वर्णाश्रम जैसी कोई व्यवस्था जैन आचारशास्त्र में मान्य नही है | किसी भी वर्ण का एवं किसी भी आश्रम में स्थित व्यक्ति श्रावक के अथवा श्रमण के व्रत ग्रहण कर सकता है | श्रावक देशविरति अर्थात् माशिक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य के कारण अणुव्रतो अर्थात् छोटे व्रतो का पालन करता है। श्रमण सर्वविरति अर्थात् सम्पूर्ण वैराग्य के कारण महावतो अर्थात् बडे व्रतो का पालन करता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आचारागादि जैन आगमो के आधार पर श्रावकाचार एवं श्रमणाचार का सुव्यवस्थित प्रतिपादन किया गया है । अन्तिम प्रकरण में श्रमण-सघ का सक्षिप्त परिचय दिया गया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोष संस्थान से हो रहा है, यह विशेष हर्ष की बात है। भविष्य में संस्थान जैनविद्या से सम्बन्धित अन्य अनेक उपयोगी ग्रन्थो का प्रकाशन करने के लिए कृतसंकल्प है। ग्रन्थ को सक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना के लिए मैं डा० देवराज, अध्यक्ष, भारतीय दर्शन व धर्म विभाग, काशी विश्वविद्यालय का अत्यन्त अनुगृहीत हूँ । सुन्दर मुद्रण के लिए महावीर प्रेस के सुयोग्य सचालक श्री बाबूलाल जैन फागुल्ल का तथा प्रूफ-सशोधन आदि के लिए सस्थान के शोध-सहायक पं० कपिलदेव गिरि का हृदय से आभार मानता हूँ। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान मोहनलाल मेहता वाराणसी-५ अध्यक्ष २-८-१९६६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भारतीय संस्कृति में मुख्यत दो विचारधाराओ का सम्मिश्रण एवं समन्वय हुआ है । एक विचारधारा मूलत वैदिक सभ्यता की थी और दूसरी श्रमण सभ्यता की । वैदिक सभ्यता के आधारस्तम्भ ऋग्वेद आदि सहिता-ग्रन्थ तथा ब्राह्मण ग्रन्थ थे । श्रमण सभ्यता की प्रतिनिधि अभिव्यक्ति जैनधर्म, हिन्दुओ के सांख्य दर्शन तथा बौद्धधर्म में हुई। कुछ लोग वैदिक अथवा ब्राह्मण संस्कृति अर्थात् वह संस्कृति जिमपर ब्राह्मण पुरोहितो का विशेष प्रभाव था और श्रमण संस्कृति के भेद को स्वीकार नहीं करते, किन्तु यह मानना ही होगा कि इन दो विचारधाराओ में पर्याप्त विषमता थी। सहिता-काल के आर्य मुख्यतः प्रवृत्तिवादी जीवनदृष्टि के अनुगामी थे, जबकि जैन-बौद्ध-धर्मों में निवृत्तिपरक जीवन पर गौरव था। स्वयं वैदिक आर्यों के बीच निवृत्ति-धर्म का उदय उपनिषदो में देखा जा सकता है। इसीलिए कुछ अन्वेषको का विचार है कि निवृत्तिपरक जीवनदृष्टियो का सामान्य उत्स उपनिषद्-साहित्य है। किन्तु जैनधर्म की प्राचीनता और महाभारत आदि में सांख्यो के ज्ञानमार्ग एव प्रवृत्तिपरक वैदिक धर्म के विरोध की चर्चाएं यह सकेत देती है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति के पोषक दर्शनो का विकास भिन्न समुदायों के बीच हुआ । भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि की प्रमुख विशेषता मोक्षतत्त्व की स्वीकृति और उसके सम्बन्ध में व्यवस्थित चिन्तन हैं, ये दोनो ही चीजें हमें मुख्यतः श्रमण-सस्कृति के धार्मिक नेताओ से प्राप्त हुई । आगे चलकर, जव हमारी संस्कृति मे प्रवृत्ति एवं निवृत्तिपरक विचारधागओ का समन्वय हुआ, तो यह निश्चित किया गया कि मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही है, जिसकी उपलब्धि अनेक मार्गों से चलकर की जा सकती है। मन आदि धर्माचार्यो ने वर्णाश्रम की कल्पना की और यह प्रतिपादित किया कि प्रत्येक मनुष्य स्वधर्म का पालन करते हुए मोक्ष नामक चरम लक्ष्य ___ की ओर अग्रसर हो सकता है। गीता में कहा गया है-'स्वे-स्वे कर्मण्य भिरत ससिद्धि लभते नर', अर्थात् अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुरूप (निष्काम भाव से) कर्म करता हुमा मनुष्य परम सिद्धि यानी मोक्ष को प्राप्त करता है। गीता, मनु आदि का यह मन्तव्य प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्गों का समन्वय रूप था। ___ जैन तथा बौद्ध धर्मों ने वर्णाश्रम के सिद्धान्त को स्वीकार नही किया। इनमें वौद्ध धर्म मुख्यतः भिक्षुओ का निवृत्तिपरक धर्म बन गया। किन्तु जैनधर्म ने, हिन्दूधर्म की भांति, गृहस्थो के लिए भी मुक्ति का द्वार खुला रखा । प्रस्तुत पुस्तक में जैनधर्म-सम्मत श्रमण-धर्म के साथ-साथ श्रावको यानी गृहस्थो के धर्माचार का भी व्यवस्थित वर्णन है। इसके लेखक डा० मोहनलाल मेहता सामान्यतः भारतीय दर्शन के और विशेषत जैन दर्शन के अधिकारी विद्वान् है। अब तक ये जैन दर्शन, जैन मनोविज्ञान आदि विषयो पर अनेक प्रामाणिक कृतियोका प्रणयन कर चुके है । प्रस्तुत पुस्तक में इन्होने जैन दृष्टि से श्रावकधर्म तथा श्रमणधर्म का विस्तृत एव विशद विवेचन किया है । यो तो भारत के सभी धर्मों में विचारो एव आचरण के मामजस्य पर गौरव दिया गया है, किन्तु जैन दर्शन मे यह गौरव अधिक स्पष्ट है । सास्य एव अद्वैत वेदान्त के अनुयायी कह सकते हैं कि केवल ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, किन्तु जैनधर्म यह स्पष्ट घोपणा करता है कि मम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एव सम्यक् चारित्र-ये तीनो मिलकर ही मोक्ष नामक परिणाम को उत्पन्न करते है। काशी विश्वविद्यालय वाराणसी-५ देवराज Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ में ५-२५ १. जैनाचार की भूमिका आचार और विचार वैदिक दृष्टि औपनिपदिक रूप सूत्र, स्मृतियाँ व धर्मशास्त्र कर्ममुक्ति आत्मविकास कर्मपथ जैनाचार व जैन विचार कमबन्ध व कर्ममुक्ति आत्मवाद अहिंसा और अपरिग्रह अनेकान्तदृष्टि दृष्टि से चारित्र-विकास आत्मिक विकास मोहशक्ति की प्रबलता मिथ्या दृष्टि अल्पकालीन सम्यक् दृष्टि मिश्र दृष्टि ग्रथिभेद व सम्यक् श्रद्धा देशविरति मर्वविरति अप्रमत्त अवस्था stu aur2MMM २९-४७ س س س س س سه له ل سه Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . and < < < ki away १ अपूर्वकरण स्थूल कषाय सूक्ष्म कपाय उपशात कषाय क्षीण कषाय सदेह मुक्ति विदेह मुक्ति जैन गुणस्थान, बौद्ध अवस्थाएँ व वैदिक भूमिकाएँ योगदृष्टियाँ ओघदृष्टि व योगदृष्टि मित्रादृष्टि व यम तारादृष्टि व नियम वलादृष्टि व आसन दोप्रादृष्टि व प्राणायाम स्थिरादृष्टि व प्रत्याहार कान्तादृष्टि व धारणा प्रभादृष्टि व ध्यान परादृष्टि व समाधि ३. जैन आचार-ग्रन्थ ५१-७९ आचाराग उपासकदशाग दशवकालिक आवश्यक दशाश्रुतस्कन्ध वृहत्कल्प व्यवहार ४७ w x Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ७३ ७४ ७५ ५ ८३-१३२ निशोथ महानिशीथ जीतकल्प मूलाचार मूलाराधना रत्नकरंडक-श्रावकाचार वसुनन्दि-श्रावकाचार सागार-धर्मामृत अनगार-धर्मामृत ४. श्रावकाचार अणुव्रत गुणवत शिक्षाव्रत सल्लेखना अथवा संथारा प्रतिमाएं प्रतिक्रमण ५. श्रमण-धर्म महाव्रत रात्रिभोजन-विरमणव्रत षडावश्यक आदर्श श्रमण अचेलकत्व व सचेलकत्व वस्त्रमर्यादा वस्त्र की गवेषणा पात्र की गवेषणा व उपयोग आहार १०४ ११३ ११६ १२४ १३१ १३५-१९६ १३५ १४१ १४२ १५१ १५७ میں ان .. کن . کن Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार क्यो? १६८ १७१ १७२ आहार क्यो नही ? १६७ विशुद्ध आहार आहार का उपयोग आहार-सम्बन्धी दोप एकभक्त १७५ विहार अर्थात् गमनागमन १७६ नौकाविहार १७७ पदयात्रा १७८ वसति अर्थात् उपाश्रय १७८ सामाचारी १८३ सामान्य चर्या १८४ पर्युषणाकल्प १८७ भिक्षु-प्रतिमाएँ १६० समाधिमरण अथवा पडितमरण १६५ ६. श्रमण-संघ १९९.२१५ गच्छ, कुल, गण व संघ आचार्य उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक व रत्नाधिक २०५ निग्रंथी-सघ वैयावृत्य २०६ प्रायश्चित्त २०४ ग्रन्थ-सूची २१७ अनुक्रमणिका २२१ २०० २०१ . . दीक्षा . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཏེ 6 ར EE ་བ Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमि का आचार और विचार वैदिक दृष्टि औपनिषदिक रूप सूत्र, स्मृतियाँ व धर्मशास्त्र कर्ममुक्ति आत्मविकास कर्मपथ जैनाचार व जैन विचार कर्मवन्ध व कर्ममुक्ति आत्मवाद अहिंसा और अपरिग्रह अनेकान्तदृष्टि Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१: जैनाचार की भूमिका आचार और विचार परस्पर सम्बद्ध ही नही, एक-दूसरे के पूरक भी हैं । संसार मे जितनी भी ज्ञान-शाखाएँ हैं, किसी न किसी रूप मे आचार अथवा विचार अथवा दोनो से सम्बद्ध हैं। व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए ऐसी ज्ञान-शाखाएँ अनिवार्य है जो विचार का विकास करने के साथ ही साथ आचार को भी गति प्रदान करे। दूसरे शब्दो मे जिन विद्याओ मे आचार व विचार, दोनों के बीज मौजूद हो वे ही व्यक्तित्व का वास्तविक विकास कर सकती हैं। जब तक आचार को विचारों का सहयोग प्राप्त न हो अथवा विचार आचार रूप में परिणत न हों तब तक जीवन का यथार्थ विकास नही हो सकता । इसी दृष्टि से आचार और विचार को परस्पर सम्बद्ध एवं पूरक कहा जाता है। आचार और विचार: विचारों अथवा आदर्शों का व्यावहारिक रूप आचार है। आचार की आधारशिला नैतिकता है। जो आचार नैतिकता पर प्रतिष्ठित नही है वह आदर्श आचार नही कहा जा सकता। ऐसा आचार त्याज्य है। समाज मे धर्म की प्रतिष्ठा इसीलिए है कि वह नैतिकता पर प्रतिष्ठित है। वास्तव मे धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के भीतर रही हई उस भावना के आधार पर ही होती है जिसे हम नैतिकता कहते हैं। नैतिकता का प्रादर्श जितना उच्च Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : जैन आचार होता है, धर्म की भूमिका भी उतनी ही उन्नत होती है । नैतिकता केवल भौतिक अथवा शारीरिक मूल्यों तक ही सीमित नही होती । उसकी दृष्टि मे आध्यात्मिक अथवा मानसिक मूल्यों का अधिक महत्त्व होता है। सकुचित अथवा सीमित नैतिकता की अपेक्षा विस्तृत अथवा अपरिमित नैतिकता अधिक बलवती होती है। वह व्यक्तित्व का यथार्थ एवं पूर्ण विकास करती है। धर्म का सार आध्यात्मिक सर्जन अथवा आध्यात्मिक अनुभूति है। इस प्रकार के सर्जन अथवा अनुभूति का विस्तार ही धर्म का विकास है । जो आचार इस उद्देश्य की पूर्ति मे सहायक हो वही धर्ममूलक आचार है। इस प्रकार का आचार नैतिकता की भावना के अभाव मे सम्भव नही । ज्यो-ज्यों नैतिक भावनाओ का विस्तार होता जाता है त्यो-त्यो धर्म का विकास होता जाता है। इस प्रकार का धर्मविकास ही आध्यात्मिक विकास है। आध्यात्मिक विकास की चरम अवस्था का नाम ही मोक्ष अथवा मुक्ति है । इस मूलभूत सिद्धान्त अथवा तथ्य को समस्त आत्मवादी भारतीय दर्शनो ने स्वीकार किया है। दर्शन का सम्बन्ध विचार अथवा तर्क से है, जबकि धर्म का सम्बन्ध आचार अथवा व्यवहार से है। दर्शन हेतुवाद पर प्रतिष्ठित होता है जवकि धर्म श्रद्धा पर अवलम्बित होता है। आचार के लिए श्रद्धा की आवश्यकता है जबकि विचार के लिए तर्क की। आचार व विचार अथवा धर्म व दर्शन के सम्बन्ध मे दो विचारधाराएँ हैं । एक विचारधारा के अनुसार आचार व Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका : ७ विचार अर्थात् धर्म व दर्शन अभिन्न हैं । इनमे वस्तुतः कोई भेद नही | आचार की सत्यता विचार में ही पाई जाती है एवं विचार का पर्यवसान आचार मे ही देखा जाता है । दूसरी विचारधारा के अनुसार आचार व विचार अर्थात् धर्मं व दर्शन एक-दूसरे से भिन्न हैं । तर्कशील विचारक का इससे कोई प्रयोजन नही कि श्रद्धाशील आचरणकर्ता किस प्रकार का व्यवहार करता है । इसी प्रकार श्रद्धाशील व्यक्ति यह नही देखता कि विचारक क्या कहता है । तटस्थ दृष्टि से देखने पर यह प्रतीत होता है कि आचार और विचार व्यक्तित्व के समान शक्तिवाले अन्योन्याश्रित दो पक्ष हैं । इन दोनों पक्षो का सतुलित विकास होने पर ही व्यक्तित्व का विशुद्ध विकास होता है । इस प्रकार के विकास को हम ज्ञान और क्रिया का संयुक्त विकास कह सकते है जो दुखमुक्ति के लिए अनिवार्य है । 1 आचार और विचार की अन्योन्याश्रितता को दृष्टि मे रखते हुए भारतीय चिन्तको ने धर्म व दर्शन का साथ-साथ प्रतिपादन किया | उन्होने तत्त्वज्ञान के साथ ही साथ आचारशास्त्र का भी निरूपण किया एवं बताया कि ज्ञानविहीन आचरण नेत्रहीन पुरुष की गति के समान है जबकि आचरणरहित ज्ञान पंगु पुरुष की स्थिति के सदृश है। जिस प्रकार अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के लिए निर्दोष आँखे व पैर दोनों आवश्यक हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक सिद्धि के लिए दोषरहित ज्ञान व चारित्र दोनों श्रनिवार्य हैं । भारतीय विचार- परम्पराओ मे आचार व विचार दोनों को Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : जैन आचार समान स्थान दिया गया है। उदाहरण के लिए मीमांसा-परम्परा का एक पक्ष पूर्वमीमांसा आचारप्रधान है जबकि दूसरा पक्ष उत्तरमीमांसा ( वेदान्त ) विचारप्रधान है। सांख्य और योग क्रमशः विचार और आचार का प्रतिपादन करनेवाले एक ही परम्परा के दो अग हैं । बौद्ध-परम्परा मे हीनयान और महायान के रूप मे आचार और विचार की दो धाराएं है। हीनयान आचारप्रधान है तथा महायान विचारप्रधान । जैन-परम्परा मे भी आचार और विचार को समान स्थान दिया गया है । अहिंसामूलक आचार एव अनेकांतमूलक विचार का प्रतिपादन जैन विचारधारा की विशेषता है। वैदिक दृष्टि : भारतीय साहित्य मे आचार के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। वैदिक सहिताओ मे लोकजीवन का जो प्रतिविम्ब मिलता है उससे प्रकट होता है कि लोगो मे प्रकृति के कार्यों के प्रति विचित्र जिज्ञासा थी। उनकी धारणा थी कि प्रकृति के विविध कार्य देवो के विविध रूप थे, विविध देव प्रकृति के विविध कार्यों के रूप मे अभिव्यक्त होते थे। ये देव अपनी प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता के आधार पर उनका हित-अहित कर सकते थे इसलिए लोग उन्हे प्रसन्न रखने अथवा करने के लिए उनकी स्तुति करते, उनकी यशोगाथा गाते । स्तुति करने की प्रक्रिया अथवा पद्धति का धीरे-धीरे विकास हुआ एवं इस मान्यता ने जन्म लिया कि अमुक ढग से अमुक प्रकार के उच्चारणपूर्वक की जानेवाली स्तुति ही Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका ९ फलवती होती है। परिणामत. यज्ञयागादि का प्रादुर्भाव हुआ एवं देवो को प्रसन्न करने की एक विशिष्ट आचार-पद्धतिने जन्म लिया। इस आचारपद्धति का प्रयोजन लोगो की ऐहिक सुख-समृद्धि एवं सुरक्षा था। लोगो के हृदय मे सत्य, दान, आदि के प्रति मान था। विविध प्रकार के नियमो, गुणो, दण्डो के प्रवर्तको के रूप मे विभिन्न देवो की कल्पना की गई। औपनिषदिक रूप: ___ उपनिषदों मे ऐहिक सुख को जीवन का लक्ष्य न मानते हुए श्रेयस् को परमार्थ माना गया है तथा प्रेयस् को हेय एव श्रेयस् को उपादेय बताया गया है। इस जीवन को अन्तिम सत्य न मानते हुए परमात्मतत्त्व को यथार्थ कहा गया है। आत्म-तत्त्व का स्वरूप समझाते हुए इसे शरीर, मन, इन्द्रियों से भिन्न वताया गया है। इसी दार्शनिक भित्ति पर सदाचार, सन्तोप, सत्य आदि आत्मिक गुणो का विधान किया गया है एव इन्हें आत्मानुभूति के लिए आवश्यक बताया गया है। इन गुणो के आचरण से श्रेयस् की प्राप्ति होती है । श्रेयस् के मार्ग पर चलनेवाले विरले ही होते हैं। ससार के समस्त प्रलोभन श्रेयस् के सामने नगण्य हैं-तुच्छ है । सूत्र, स्मृतियाँ व धर्मशास्त्र : सूत्रो, स्मृतियों व धर्मशास्त्रो में मनुष्य के जीवन की निश्चित योजना दृष्टिगोचर होती है। इनमे मानव-जीवन के कर्तव्य-अकर्तव्यो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : जैन आचार के विषय मे विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। वैदिक विधिविधानों के साथ ही साथ सामाजिक गुणों एवं आध्यात्मिक विशुद्धियों का भी विचार किया गया है । संक्षेप मे कहा जाय तो इनमे भौतिक सुखों एवं आत्मिक गुणो का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। सूत्रो व धर्मशास्त्रों में मानव-जीवन के चार सोपान-चार आश्रम निर्धारित किये गये हैं जिनके अनुसार आचरण करने पर मनुष्य का जीवन सफल माना जाता है। इन चार आश्रमों के पारिभाषिक नाम ये हैं : ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम । ब्रह्मचर्याश्रम मे शारीरिक व मानसिक अनुशासन का अभ्यास किया जाता है जो सारे जीवन की भूमिका का काम करता है। गृहस्थाश्रम सांसारिक सुखों के अनुभव व कर्तव्यों के पालन के लिए है। वानप्रस्थाश्रम सांसारिक प्रपंचों के आंशिक त्याग का प्रतीक है । आध्यात्मिक सुखो की प्राप्ति के लिए सासारिक सुख-सुविधाओ के हेतु किये जानेवाले प्रपंचों का सर्वथा त्याग करना संन्यासाश्रम है। इन चार आश्रमों के साथ ही साथ चार प्रकार के वर्णों के कर्तव्याकर्तव्यों के लिए आचारसंहिता भी बनाई गई। आचार के दो विभाग किये गये : सब वर्गों के लिए सामान्य आचार और प्रत्येक वर्ण के लिए विशेष आचार । जिस प्रकार प्रत्येक आश्रम के लिए विभिन्न कर्तव्यों का निर्धारण किया गया उसी प्रकार प्रत्येक वर्ण के लिए विभिन्न कर्तव्य निश्चित किये गये, जैसे ब्राह्मण के लिए अध्ययन-अध्यापन, क्षत्रिय के लिए रक्षण-प्रशासन, वैश्य के लिए व्यापार-व्यवसाय एव शूद्र Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका : ११ के लिए सेवा-शुश्रूषा । इसी व्यवस्था अर्थात् आचारसंहिता का नाम वर्णाश्रम-धर्म अथवा वर्णाश्रम-व्यवस्था है। कर्ममुक्तिः भारतीय आचारशास्त्र का सामान्य आधार कर्मसिद्धान्त है। कम का अर्थ है चेतनाशक्ति द्वारा की जानेवाली क्रिया का कार्यकारणभाव । जो क्रिया अर्थात् आचार इस कार्य-कारण की परम्परा को समाप्त करने में सहायक है वह आचरणीय है। इससे विपरीत आचार त्याज्य है। विविध धर्मग्रन्थो, दर्शनग्रन्थो एव आचारग्रन्थो मे जो विधिनिषेध उपलब्ध हैं, इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं। योग-विद्या का विकास इस दिशा में एक महान् प्रयत्न है। भारतीय विचारको ने कर्ममुक्ति के लिए ज्ञान, भक्ति एवं ध्यान का जो मार्ग बताया है वह योग का ही मार्ग है । ज्ञान, भक्ति एवं ध्यान को योग की ही संज्ञा दी गई है। इतना ही नहीं, अनासक्त कर्म को भी योग कहा गया है। आत्मनियन्त्रण अर्थात् चित्तवृत्ति के निरोध के लिए योग अनिवार्य है। योग चेतना की उस अवस्था का नाम है जिसमे मन व इन्द्रियाँ अपने विषयो से विरत होने का अभ्यास करते हैं। ज्योज्यो योग की प्रक्रिया का विकास होता जाता है त्यो-त्यो आत्मा अपने-आप में लीन होती जाती है। योगी को जिस आनन्द व सुख की अनुभूति होती है वह दूसरो के लिए अलभ्य है । वह आनन्द व सुख वाह्य पदार्थो पर अवलम्बित नही होता अपितु आत्मावलम्बित होता है । आत्मा का अपनी स्वाभाविक विशुद्ध अवस्था मे निवास Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : जैन आचार करना ही वास्तविक सुख है। यह सुख जिसे हमेशा के लिए प्राप्त हो जाता है वह कर्मजन्य सुख-दु.ख से मुक्त हो जाता है । यही मोक्ष, मुक्ति अथवा निर्वाण है। कर्म से मुक्त होना इतना आसान नहीं है। योग की साधना करना इतना सरल नही है। इसके लिए धीरे-धीरे निरन्तर प्रयत्न करना पडता है। आचार व विचार की अनेक कठिन अवस्थाओ से गुजरना होता हैं । आचार के अनेक नियमों एवं विचार के अनेक अंकुशो का पालन करना पड़ता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए विभिन्न आत्मघादो दर्शनो ने कर्ममुक्ति के लिए आचार के विविध नियमो का निर्माण किया तथा आत्मविकास के विभिन्न अंगों तथा रूपों का प्रतिपादन किया । आत्मविकास: वेदान्त मे सामान्यतया आत्मिक विकास के सात अंग अथवा सोपान माने गये हैं। प्रथम अग का नाम शुभ इच्छा है। इसमे वैराग्य अर्थात् सम्यक् पथ पर जाने की भावना होती है। द्वितीय अग विचारणारूप है। इसमे शास्त्राध्ययन, सत्संगति तथा तत्त्व का मूल्याकन होता है। तृतीय अग तनुमानस रूप है जिसमे इन्द्रियो और विषयो के प्रति अनासक्ति होती है। इसके बाद की जो अवस्था है उसमे मानसिक विषयो का निरोध प्रारम्भ होकर मन को शुद्धि होती है। इस अवस्था का नाम सत्यापत्ति है। इसके बाद पदार्थभावनो अवस्था आती है जिसमें बाह्य वस्तुप्रो का मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका : १३ सातवां अंग तुरीयगा कहलाता है । इसमे पदार्थों का मन से कोई सम्बन्ध ही नही रहता तथा आत्मा का सत् , चित् व आनन्दरूप ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। यह अवस्था निर्विकल्पक समाधिरूप है। ___ योगदर्शन का अष्टाग योग प्रसिद्ध हो है । प्रथम अग यम मे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का समावेश होता है। द्वितीय अग नियम मे शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का समावेश किया जाता है। तृतीय अंग का नाम आसन है। चतुर्थ अग प्राणायामरूप है। पांचवा अग प्रत्याहार, छठा धारणा, सातवा ध्यान व आठवा समाधि कहलाता है। निर्विकल्प समाधि आत्मविकास की अतिम अवस्था होती है जिसमे आत्मा अपने स्वाभाविक रूप मे अवस्थित हो जाती है। कर्मपथ : मीमासा व स्मृतियो आदि मे क्रियाकाण्ड पर अधिक भार दिया गया है जवकि सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, वेदान्त आदि आत्मशुद्धि पर विशेष जोर देते हैं। वौद्धो के अनुसार हमारी समस्त प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं . ज्ञात और अज्ञात । इन्हे बौद्ध परिभाषा मे विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति परोक्ष अर्थात् अजात रूप से किसी अन्य द्वारा किसी प्रकार का पापकार्य करता है तो वह अविज्ञप्ति-कर्म करता है। जो जानबूझ कर अर्थात् ज्ञातरूप से पापक्रिया करता है वह विज्ञप्ति-कर्म करता है। यही बात शुभ प्रवृत्ति के विषय मे भी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : जैन आचार । अत. शील भी विज्ञप्ति व अविज्ञप्ति रूप दो प्रकार का है । वौद्ध दर्शन के अनुसार प्रत्येक क्रिया के तीन भाग होते हैं : प्रयोग, कर्मपथ और पृष्ठ । क्रिया को तैयारी करना प्रयोग है। वास्तविक क्रियाकर्मपथ है । अनुगामिनी क्रिया का नाम पृष्ठ है । उदाहरण के रूप मे चोरी को ले । जब कोई चोरी करना चाहता है तो अपने स्थान से उठता है, आवश्यक साधन-सामग्री लेता है, दूसरे के घर जाता है, चुपचाप घर मे घुसता है, रुपयेपैसे व अन्य वस्तुए दूढता है और उन्हें वहां से उठाता है । यह सव प्रयोग के अन्तर्गत है । चोरी का सामान लेकर वह घर से वाहर निकलता है, यही कर्मपथ है । उस सामान को वह अपने साथियो मे बाटता है, बेचता है अथवा छिपाता है, यह पृष्ठ है । ये तीनो प्रकार विज्ञप्ति व अविज्ञप्तिरूप होते हैं । इतना ही नही, एक प्रकार का कर्मपथ दूसरे प्रकार के कर्मपथ का प्रयोग अथवा पृष्ठ बन सकता है । इसी प्रकार अन्य पापो एव शुभ क्रियाओ के भी तीन विभाग कर लेने चाहिए । वस्तुत प्रयोग, कर्मपथ व पृष्ठ प्रवृत्ति की अथवा आचार की तीन अवस्थाएं हैं । इन्हें प्रवृत्ति के तीन सोपान भी कह सकते है । किस प्रकार की प्रवृत्ति अर्थात् कर्म से किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, इसका भी बौद्ध साहित्य मे पूरी तरह विचार किया गया है । वह विचार वौद्ध आचारशास्त्र की भूमिकारूप है । जैनाचार व जैन विचार : जैनाचार की मूल भित्ति कर्मवाद है । इसी पर जैनो का Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका : १५ अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद एवं अनीश्वरवाद प्रतिष्ठित है। कर्म का साधारण अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया है। कर्मकाण्डी यज्ञ आदि क्रियाओ को कर्म कहते हैं। पौराणिक व्रत-नियम आदि को कर्मरूप मानते हैं । जैन परम्परा मे कर्म दो प्रकार का माना गया है : द्रव्यकर्म व भावकर्म । कार्मण पुद्गल अर्थात जडतत्त्व विशेष जो कि जीव के साथ मिल कर कर्म के रूप में परिणत होता है, द्रव्यकर्म कहलाता है । यह ठोस पदार्थरूप होता है। द्रव्यकर्म की यह मान्यता जैन कर्मवाद की विशेषता है। आत्मा के अर्थात् प्राणी के राग-द्वेपात्मक परिणाम अर्थात् चित्तवृत्ति को भावकर्म कहते हैं। दूसरे शब्दो मे प्राणी के भावों को भावकर्म तथा भावो द्वारा आकृष्ट सूक्ष्म भौतिक परमाणुओ को द्रव्यकर्म कहते हैं। यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाहत अनादि है। प्राणी अनादि काल से कर्मपरम्परा में पड़ा हुआ है। चैतन्य और जड का यह सम्मिश्रण अनादिकालीन है। जीव पुराने कर्मों का विनाश करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है। जब तक उसके पूर्वोपाजित समस्त कर्म नष्ट नही हो जाते-आत्मा से अलग नही हो जाते तथा नवीन कर्मो का उपार्जन बद नही होजाता-नया बंध रुक नही जाता तब तक उसकी भवभ्रमण से मुक्ति नही होती। एक बार समस्त कर्मों का नाश हो जाने पर पुन. नवीन कर्मों का आगमन नही होता क्योकि उस अवस्था मे कर्मोपार्जन का कोई कारण विद्यमान नही रहता । आत्मा की इसी अवस्था का नाम मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण अथवा सिद्धि है। इस अवस्था मे आत्मा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : जैन आचार अपने असली रूप मे रहता है। आत्मा का यही रूप जैनदर्शन का ईश्वर है। परमेश्वर अथवा परमात्मा इससे भिन्न कोई विशेष व्यक्ति नही है। जो आत्मा है वही परमात्मा है । जे अप्पा से परमप्पा । कर्मवाद नियतिवाद अथवा अनिवार्यतावाद नही है । कर्मसिद्धान्त यह नही मानता कि प्राणी को नियत समय मे उपार्जित कर्म का फल भोगना ही पड़ता है अथवा नवीन कर्म का उपार्जन करना ही पड़ता है । यह सत्य है कि प्राणी को स्वोपार्जित कर्म का फल अवश्य भोगना पडता है किन्तु इसमे उसके पश्चात्कालीन पराक्रम, पुरुपार्थ अथवा आत्मवीर्य के अनुसार न्यूनाधिकता तथा शीघ्रता अथवा देरी हो सकती है। इसी प्रकार वह नवीन कर्म का उपार्जन करने मे भी अमुक सीमा तक स्वतन्त्र होता है। आन्तरिक शक्ति तथा आचार की परिस्थिति को दृष्टि में रखते हुए व्यक्ति अमुक सीमा तक नये कर्मो के आगमन को रोक सकता है। इस प्रकार जैन कर्मसिद्धान्त मे सीमित इच्छास्वातन्त्र्य स्वीकार किया गया है। कर्मवन्ध व कर्ममुक्ति: । __ जैन कर्मवाद मे कर्मोपार्जन के दो कारण माने गये हैं : योग और कपाय । शरीर, वाणी और मन के सामान्य व्यापार को जैन परिभाषा मे योग कहते है । दूसरे शब्दो मे जैन परिभाषा मे प्राणी की प्रवृत्तिसामान्य का नाम योग है। कषाय मन का व्यापारविशेष है । यह क्रोधादि मानसिक आवेगरूप है । यह लोक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका · १७ कर्म की योग्यता रखने वाले परमाणुओं से भरा हुआ है। जव प्राणी अपने मन, वचन अथवा तन से किसी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसके आस-पास रहे हुए कर्मयोग्य परमाणुओ का आकर्षण होता है अर्थात् आत्मा अपने चारों ओर रहे हुए कर्मपरमाणुओ को कर्मरूप से ग्रहण करती है। इस प्रक्रिया का नाम आस्रव है । कपाय के कारण कर्मपरमाणुओ का आत्मा से मिल जाना अर्थात् आत्मा के साथ बंध जाना वंध कहलाता है। वैसे तो प्रत्येक प्रकार का योग अर्थात् प्रवृत्ति कर्मबंध का कारण है किन्तु जो योग क्रोधादि कपाय से युक्त होता है उससे होने वाला कर्मवंध दृढ होता है । कपायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मवध निर्बल व अस्थायी होता है। यह नाममात्र का वध है। इससे ससार नही वढता। योग अर्थात् प्रवृत्ति की तरतमता के अनुसार कर्मपरमाणुरो की मात्रा मे तारतम्य होता है। वह परमाणुओ की राशि को प्रदेश-वन्ध कहते है । इन परमाणुओ की विभिन्न स्वभावरूप परिणति को अर्थात् विभिन्न कार्यरूप क्षमता को प्रकृति-बन्ध कहते है। कर्मफल की मुक्ति की अवधि अर्थात् कर्म भोगने के काल को स्थितिवन्ध तथा कर्मफल की तीव्रता-मन्दता को अनुभाग-बन्ध कहते है। कर्म बधने के बाद जब तक वे फल देना प्रारम्भ नही करते तव तक के काल को अवाधाकाल कहते हैं । कर्मफल का प्रारम्भ ही कर्म का उदय है । ज्यो-ज्यो कमो का उदय होता जाता है त्योंत्यो कर्म आत्मा से अलग होते जाते हैं। इसी प्रक्रिया का नाम Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८ : जैन आचार निर्जरा है। जव आत्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं तब उसकी जो अवस्था होती है उसे मोक्ष कहते है। जैन कर्मशास्त्र में प्रकृति-वन्ध के आठ प्रकार माने गये है अर्थात् कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ गिनाई गई हैं। ये प्रकृतियाँ प्राणी को भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुकूल एव प्रतिकूल फल प्रदान करतो है। इनके नाम इस प्रकार हैं .--१.ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६ नाम, ७. गोत्र, ८ अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय-ये चार प्रकृतियाँ घाती कहलाती है क्योकि इनसे आत्मा के चार मूल गुणो-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का घात होता है। शेष चार प्रकृतियाँ अघाती हैं क्योकि ये किसी आत्मगुण का घात नही करती । ये शरीर से सम्बन्धित होती हैं। ज्ञानावरणीय प्रकृति आत्मा के ज्ञान अर्थात् विशेष उपयोगरूप गुण को आवृत करती है। दर्शनावरणीय प्रकृति आत्मा के दर्शन अर्थात् सामान्य उपयोगरूप गुण को आच्छादित करती है। मोहनीय प्रकृति आत्मा के स्वाभाविक सुख मे वाधा पहुंचाती है । अन्तराय प्रकृति से वीर्य अर्थात् आत्मशक्ति का नाश होता है । वेदनीय कर्मप्रकृति शरीर के अनुकूल एवं प्रतिकूल सवेदन अर्थात् सुख-दुःख के अनुभव का कारण है। आयु कर्मप्रकृति के कारण नरक, तिर्यच, देव एवं मनुप्य भव के काल का निर्धारण होता है। नाम कर्मप्रकृति के कारण नरकादि गति, एकेन्द्रियादि जाति, औदारिकादिशरीर आदि की प्राप्ति होती है । गोत्र कर्मप्रकृति प्राणियो के लौकिक उच्चत्व एवं नीचत्व का कारण है। कर्म की सत्ता मानने पर पुनर्जन्म की सत्ता Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका १९ भी माननी पड़ती है। पुनर्जन्म अथवा परलोक कर्म का फल है। मृत्यु के बाद प्राणी अपने गति नाम कर्म के अनुसार पुन. मनुष्य, तिर्यश्च, नरक अथवा देव गति मे उत्पन्न होता है । आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचा देता है । स्थानान्तरण के समय जीव के साथ दो प्रकार के सूक्ष्म शरीर रहते हैं। तैजस और कार्मण औदारिकादि स्थूल शरीर का निर्माण अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचने के बाद प्रारम्भ होता है । इस प्रकार जैन कर्मशास्त्र में पुनर्जन्म की सहज व्यवस्था की गई है। कर्मवन्ध का कारण कषाय अर्थात् राग-द्वेपजन्य प्रवृत्ति है। इससे विपरीत प्रवृत्ति कर्ममुक्ति का कारण बनती है । कर्ममुक्ति के लिए दो प्रकार की क्रियाएँ आवश्यक हैं । नवीन कर्म के उपार्जन का निरोध एवं पूर्वोपाजित कर्म का क्षय । प्रथम प्रकार की क्रिया का नाम संवर तथा द्वितीय प्रकार की क्रिया का नाम निर्जरा है। ये दोनो क्रियाएँ क्रमश आस्रव तथा बन्ध से विपरीत हैं। इन दोनो की पूर्णता से आत्मा की जो स्थिति होती है अर्थात् आत्मा जिम अवस्था को प्राप्त होती है उसे मोक्ष कहते हैं। यही कर्ममुक्ति है। नवीन कर्मों के उपार्जन का निरोध अर्थात् संवर निम्न कारणो से होता है:--गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय, चारित्र व तपस्या । सम्यक् योगनिग्रह अर्थात् मन, वचन व तन की प्रवृत्ति का सुकु नियन्त्रण गुप्ति है । सम्यक चलना, बोलना, खाना, लेनादेना आदि समिति कहलाता है। उत्तम प्रकार की क्षमा, मृदुता, ऋजुता, शुद्धता आदि धर्म के अन्तर्गत हैं। अनुप्रेक्षा में अनित्यत्व, Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : जैन आचार अशरणत्व, एकत्व आदि भावनाओ का समावेश होता है । क्षुधा, पिपासा, सर्दी, गर्मी आदि कप्टो को सहन करना परीपहजय है। चारित्र सामायिक आदि भेद से पाँच प्रकार का है। तप वाह्य भी होता है व आभ्यन्तर भी । अनशन आदि वाह्य तप है, प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप कहलाते है। तप से सवर के साथसाथ निर्जरा भी होती है । सवर व निर्जरा का पर्यवसान मोक्ष मे कर्ममुक्ति होता है। यात्मवाद: कर्मवाद का आत्मवाद से साक्षात् सम्बन्ध है। यदि आत्मा की पथक सत्ता न मानी जाय तो कर्मवाद की मान्यता निरर्थक सिद्ध होती है। जैन आचारशास मे कर्मवाद के आधारभूत मात्मवाद को भी प्रतिष्ठा की गई है । आत्मा का लक्षण उपयोग है। उपयोग का अर्थ है बोवरूप व्यापार । यह व्यापार चैतन्य का धर्म है । जड पदार्थो मे उपयोग-क्रिया का अभाव होता है स्वोरि उनमे चतन्य नहीं होता । उपयोग अर्थात् बोध दो प्रकार का है : नान और दर्शन । नुख और वीर्य भी चैतन्य का ही धर्म है।लिए आत्मा को अनन्त-चतुष्टयात्मक माना गया है। अनन्त चतुष्टय ये है : अनन्त जान,अनन्त दर्शन,अनन्त मुख गौर अनन्त वीर्य बल अर्थात् नमारी आत्मा में ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय, मोहनीय सौरमानाय पर्म के सम्पूर्णक्षय ले क्रमश विशेष वोधरूप धनाम भान, नामान्य बोधस्य अनन्न दर्शन, अलौकिक आनन्दरजनन्न नुम्य व बाध्यात्मिक शक्तिस्प अनन्त वीर्य प्रादुर्भूत Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका : २१ होता है । मुक्त आत्मा मे ये चार अनन्त-अनन्त-चतुष्टय सर्वदा बने रहते है। ससारी आत्मा स्वदेहपरिमाण एवं पौद्गलिक कर्मों से युक्त होती है, साथ ही परिणमनशील, कर्ता, भोक्ता एव सीमिति उपयोगयुक्त होती है। अहिंसा और अपरिग्रह : जैनाचार का प्राण अहिंसा है। अहिंसक आचार व विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है जो कर्ममुक्ति का कारण है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन एव आचरण जैन परम्परा मे उपलब्ध है उतना शायद ही किसी जैनेतर परम्परा मे हो । अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है। प्रत्येक आत्मा-चाहे वह पृथ्वीसम्बन्धी हो, चाहे उसका आश्रय जल हो, चाहे वह कीट अथवा पतंग के रूप मे हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी मे हो, चाहे उसका वास मानव मे हो तात्त्विक दृष्टि से समान है। सुख-दुख का अनुभव प्रत्येक प्राणी को होता है। जीवन-मरण की प्रतीति सबको होती है। सभी जीव जीना चाहते हैं । वास्तव मे कोई भी मरने की इच्छा नही करता। जिस प्रकार हमे जीवन प्रिय है एव मरण अप्रिय, सुख प्रिय है एव दु ख अप्रिय, अनुकूलता प्रिय है एव प्रतिकूलता अप्रिय, मृदुता प्रिय है एवं कठोरता अप्रिय, स्वतन्त्रता प्रिय है एव परतन्त्रता अप्रिय, लाभ प्रिय है एवं हानि अप्रिय, उसी प्रकार अन्य जीवो को भी जीवन आदि प्रिय हैं एव मरण आदि अप्रिय । इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी के वध आदि की बात न सोचे । शरीर से किसी की हत्या करना अथवा किसी को किसी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : जैन आचार प्रकार का कष्ट पहुंचाना तो पाप है ही, मन अथवा वचन से उस प्रकार की प्रवृत्ति करना भी पाप है । मन, वचन और काया से किसी को सताप न पहुँचाना सच्ची अहिंसा है-पूर्ण अहिंसा है। वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मानव तक के प्रति अहिंसक आचरण को भावना जैन विचारधारा की अनुपम विगेपता है। इसे अहिंसक आचार का चरम उत्कर्ष कह सकते है। आचार का यह अहिसक विकास जैन सस्कृति की अमूल्य निधि है। अहिसा को केन्द्रबिन्दु मानकर अमृपावाद, अस्तेय, अमैथुन एव अपरिग्रह का विकास हुमा । आत्मिक विकास मे बाधक कर्मवंध को रोकने तथा वद्ध कर्म को नष्ट करने के लिए अहिंसा तथा तदाधारित अमृपावाद आदि की अनिवार्यता स्वीकार की गई । इसमे व्यक्ति एव समाज दोनो का हित निहित है। वैयक्तिक उत्थान एवं सामाजिक उत्कर्प के लिए असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण तथा संयम का परिपालन आवश्यक है। इनके अभाव मे अहिंसा का विकास नही हो पाता। परिणामत. आत्मविकास मे बहुत बडी बाधा उपस्थित होती है। इन सबके साथ अपरिग्रह का व्रत अत्यावश्यक है। परिग्रह के साथ आत्मविकास की घोर शत्रुता है। जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ आत्मविकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इतना ही नहीं, परिग्रह आत्मपतन का बहुत बड़ा कारण बनता है। परिग्रह का अर्थ है पाप का सन्नह। यह आसक्ति से बढता है एवं आसक्ति को वढाता भी है। इसी का नाम मूर्छा है। ज्यो-ज्यो परिग्रह Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका २३ वढता है त्यों-त्यों मूर्च्छा-मृद्धि - आसक्ति बढती जाती है । जितनी अधिक मासक्ति बढती है उतनी ही अधिक हिंसा बढती है | यही हिंसा मानव समाज मे वैपम्य उत्पन्न करती है । इसीसे आत्मपतन भी होता है । अपरिग्रहवृत्ति अहिंसामूलक आचार के सम्यक् परिपालन के लिए अनिवार्य है । अनेकान्तष्ट : 1 जिस प्रकार जैन विचारको ने आचार मे हिंसा को प्रधानता दी उसी प्रकार उन्होने विचार में अनेकान्तदृष्टि को मुख्यता दी । अनेकान्तदृष्टि का अर्थ है वस्तु का सर्वतोमुखी विचार | वस्तु मे अनेक धर्म होते हैं । उनमे से किसी एक धर्म का आग्रह न रखते हुए अर्थात् एकान्तदृष्टि न रखते हुए अपेक्षाभेद से सव धर्मो के साथ समान रूप से न्याय करना अनेकान्तदृष्टि का कार्य है । अनेक धर्मात्मक वस्तु के कथन के लिए 'स्यात्' शव्द का प्रयोग श्रावश्यक है । 'स्यात्' का अर्थ है कथचित् श्रर्थात् किसी एक अपेक्षा से - किसी एक धर्म की दृष्टि से । वस्तु के अनेक धर्मो अर्थात् अनन्त गुणो मे से किसी एक धर्म अर्थात् गुण का विचार उस दृष्टि से ही किया जाता है । इसी प्रकार उसके दूसरे धर्म का विचार दूसरी दृष्टि से किया जाता है । इस प्रकार वस्तु के धर्म-भेद से ही दृष्टि-भेद पैदा होता है । दृष्टिकोण के इस अपेक्षावाद अथवा सापेक्षवाद का नाम ही स्याद्वाद है । चूंकि स्याद्वाद से अनेक धर्मात्मक अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन या विचार होता है अत स्याद्वाद का अपर नाम अनेकान्तवाद Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ , जैन आचार है। इस प्रकार स्याद्वाद व अनेकान्तवाद जैनदर्शनाभिमत सापेक्षवाद के ही दो नाम है। जैनधर्म मे अनेकान्तवाद के दो रूप मिलते है : सकलादेश और विकलादेश । सकलादेश का अर्थ है वस्तु के किसी एक धर्म से तदितर समस्त धर्मों का अभेद करके समग्र वस्तु का कथन करना। दूसरे शब्दो मे वस्तु के किसी एक गुण मे उसके गेप समस्त गुणो का संग्रह करना सकलादेश है। उदाहरणार्थ 'स्यादस्त्येव सर्वम्' अर्थात् 'कथचित् सव है ही' ऐसा जब कहा जाता है तो उसका अर्थ यह होता है कि अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य जितने भी धर्म हैं, सब किसी दृष्टि से अस्तित्व से अभिन्न हैं। इसी प्रकार नास्तित्व आदि धर्मों का भी तदितर धर्मों से अभेद करके कथन किया जाता है । यह अभेद काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध उपकार आदि आठ दृष्टियो से होता है। जिस समय किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म होता है उसी समय अन्य धर्म भी होते हैं । घट मे जिस समय अस्तित्व रहता है उसी समय कृष्णत्व, स्थूलत्व आदि धर्म भी रहते हैं । अत. काल की दृष्टि से अस्तित्व व अन्य गुणों मे अभेद है। यही बात शेप सात दृष्टियो के विषय मे भी समझनी चाहिये । वस्तु के स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व धर्म का विचार किया जाता है एवं परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्व धर्म का। सकलादेश मे एक धर्म मे अशेप धर्मो का अभेद करके सकल अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का कथन किया जाता है । विकलादेश में किसी एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेप की उपेक्षा । जिस धर्म का कथन करना होता है वही धर्म दृष्टि के सन्मुख रहता है । अन्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार की भूमिका . २५ धर्मों का निपेध तो नही होता किन्तु प्रयोजनाभाव के कारण उनके प्रति उपेक्षाभाव अवश्य रहता है । विकल अर्थात् अपूर्ण वस्तु के कथन के कारण इसे विकलादेश कहा जाता है। इस प्रकार अहिंसा और अनेकान्तवाद की मूल भित्ति पर ही जैनाचार के भव्य भवन का निर्माण हुआ है। Page #40 --------------------------------------------------------------------------  Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चा रित्र - वि का स आत्मिक विकास मोहशक्ति की प्रबलता मिथ्या दृष्टि अल्पकालीन सम्यक् दृष्टि मिश्र दृष्टि ग्रन्थिभेद व सम्यक् श्रद्धा देशविरति सर्वविरति अप्रमत्त अवस्था अपूर्वकरण स्थूल कषाय सूक्ष्म कपाय उपशात कषाय क्षीण कषाय सदेह मुक्ति विदेह मुक्ति जैन गुणस्थान, वौद्ध अवस्थाएँ व वैदिक भूमिकाएँ योगदृष्टियाँ ओघदृष्टि व योगदृष्टि Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रादृष्टि व यम ताराष्टि व नियम वलादृष्टि व आसन दीप्रादृष्टि व प्राणायाम स्थिराष्टि व प्रत्याहार कान्तादृष्टि व धारणा प्रभादृष्टि व ध्यान परादृष्टि व समाधि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास आध्यात्मिक विकास को व्यावहारिक परिभाषा मे चारित्रविकास कह सकते हैं। मनुष्य के आत्मिक गुणो का प्रतिबिम्ब उसके चारित्र मे पड़े बिना नही रहता। चारित्र की विविध दशाओं के आधार पर आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं अथवा अवस्थाओं का सहज ही अनुमान हो सकता है। आत्मा की विविध अवस्थाओ को तीन मुख्य रूपो मे विभक्त किया जा सकता है : निकृष्टतम, उत्कृष्टतम व तदन्तर्वर्ती । अज्ञान अथवा मोह का प्रगाढतम आवरण आत्मा की निकृष्टतम अवस्था है। विशुद्धतम ज्ञान अथवा आत्यन्तिक व्यपगतमोहता आत्मा की उत्कृष्टतम अवस्था है। इन दोनो चरम अवस्थाओं के मध्य मे अवस्थित दशाएँ तृतीय कोटि की अवस्थाएँ हैं। प्रथम प्रकार की अवस्था मे चारित्र-शक्ति का सम्पूर्ण ह्रास तथा द्वितीय प्रकार की अवस्था मे चारित्र-शक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है। इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के अतिरिक्त चारित्र-विकास की जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सबका समावेश उभय चरमान्तर्वर्ती तीसरी कोटि मे होता है। आत्म-विकास अथवा चारित्र-विकास की समस्त अवस्थाओ को जैन कर्मशास्र में चौदह भागो मे विभाजित किया गया है जो 'चौदह गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये जैनाचार के चतुर्दश सोपान अर्थात् जैन चारित्र की चौदह सीढियाँ है । साधक को इन्ही सीढियो से चढनाउतरना पडता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : जैन आचार आत्मिक विकास : यात्मिक गुणो के विकास की ऋमिक अवस्थाओ को गुणस्थान कहते है। जैन-दर्शन यह मानता है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध ज्ञानमय व परिपूर्ण सुखमय है। इसे जैन पदावली मे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य कहा जाता है। इस स्वरूप को विकृत अथवा आवृत करने का कार्य कर्मों का है। कर्मावरण की घटा ज्यों-ज्यों घनी होती जाती है त्यो-त्यों आत्मिक शक्ति का प्रकाश मद होता जाता है। इसके विपरीत जैसे-जैसे कर्मों का आवरण हटता जाता है अथवा शिथिल होता जाता है वैसे-वैसे आत्मा की शक्ति प्रकट होती जाती है। आत्मिक शक्ति के अल्पतम आविर्भाव वाली अवस्था प्रथम गुणस्थान है। इस गुणस्थान में आत्मशक्ति का प्रकाश अत्यन्त मन्द होता है। आगे के गुणस्थानों मे यह प्रकाश क्रमशः बढता जाता है । अन्तिम अर्थात चौदहवे गुणस्थान मे आत्मा अपने असली रूप मे पहुँच जाती है। मोहशक्ति की प्रबलता: आत्मगक्ति के चार प्रकार के आवरणों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय-मे मोहनीयरूप आवरण प्रधान है। मोह की तीनता-मंदता पर अन्य आवरणो की तीव्रता-मंदता निर्भर रहती है। यही कारण है कि गुणस्थानो को व्यवस्था मे शास्त्रकारों ने मोहशक्ति की तीव्रता-मदता का विशेष अवलम्बन लिया है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि ले चारित्र-विकास : ३१ मोह मुख्यतया दो रूपो में उपलब्ध होता है . दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय आत्मा को यथार्थतासम्यक्त्व-विवेकशीलता से दूर रखता है। चारित्र मोहनीय आत्मा को विवेकयुक्त आचरण अर्थात् प्रवृत्ति नहीं करने देता। दर्शन मोहनीय के कारण व्यक्ति की भावना, विचार, दृष्टि, चिन्तन अथवा श्रद्धा सम्यक नही हो पाती-सही नही बन पाती । सम्यक दृष्टि की उपस्थिति मे भी चारित्र मोहनीय के कारण व्यक्ति का क्रियाकलाप सम्यक् अर्थात् निर्दोष नहीं हो पाता। इस प्रकार मोह का आवरण ऐसा है जो व्यक्ति को न तो सम्यक विचार प्राप्त करने देता है और न उसे सम्यक् आचार की ओर ही प्रवृत्त होने देता है। मिथ्या दृष्टि: प्रथम गुणस्थान का नाम दर्शन मोहनीय के ही आधार पर मिथ्यादृष्टि रखा गया है। यह आत्मा की अधस्तम अवस्था है। इसमे मोह की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति की आध्यात्मिक स्थिति विलकुल गिरी हुई होती है। वह मिथ्या दृष्टि अर्थात् विपरीत श्रद्धा के कारण राग-द्वेष के वशीभूत हो आध्यात्मिक किंवा तात्त्विक सुख से वचित रहता है। इस प्रकार इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्या दर्शन अथवा मिथ्या श्रद्धान है। अल्पकालीन सम्यक दृष्टि : द्वितीय गुणस्थान का नाम सास्वादान-सम्यग्दृष्टि अथवा सासादन-सम्यग्दृष्टि अथवा सास्वादन-सम्यग्दृष्टि है। इसका काल Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : जैन आचार अति अल्प है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति को मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब कुछ क्षणो के लिए सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता की अनुभूति होती है-तत्त्वदृष्टि प्राप्त होती है-सच्ची श्रद्धा प्रकट होती है तब उसकी जो अवस्था होती है उसे सास्वादन-सम्यगदृष्टि गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान मे स्थित आत्मा तुरन्त मोहोदय के कारण सम्यक्त्व से गिर कर पुनः मिथ्यात्व मे प्रविष्ट हो जाती है। इस अवस्था में सम्यक्त्व का अति अल्पकालीन आस्वादन होने के कारण इसे स्वास्वादन-सम्यगदृष्टि नाम दिया गया है। इसमे आत्मा को सम्यक्त्व का केवल स्वाद चखने को मिलता है, पूरा रस प्राप्त नहीं होता। मिश्र दृष्टि: तृतीय गुणस्थान आत्मा की वह मिश्रित अवस्था है जिसमे न केवल सम्यग्दृष्टि होती है, न केवल मिथ्यादृष्टि। इसमे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मिश्रित अवस्था में होते है जिसके कारण आत्मा मे तत्त्वातत्त्व का यथार्थ विवेक करने की क्षमता नही रह जाती। वह तत्त्व को तत्त्व समझने के साथ ही अतत्त्व को भी तत्त्व समझने लगती है। इस प्रकार तृतीय गुणस्थान मे व्यक्ति की विवेकशक्ति पूर्ण विकसित नहीं होती। यह अवस्था अधिक लंबे काल तक नही चलती। इसमे स्थित आत्मा शीघ्र ही अपनी तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार या तो मिथ्यात्व-अवस्था को प्राप्त हो जाती है या सम्यक्त्व-अवस्था को । इस गुणस्थान का नाम मिश्र अर्थात् सम्यक-मिथ्यादृष्टि है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र - विकास : ३३ ग्रंथिभेद व सम्यक् श्रद्धा : मिथ्यात्व - अवस्था मे रही हुई आत्मा अनुकूल संयोगो अर्थात् कारणो की विद्यमानता के कारण मोह का प्रभाव कुछ कम होने पर जब विकास की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करती है तव उसमे तीव्रतम राग-द्वेप को किचित् मद करने वाला बलविशेष उत्पन्न होता है । इसे जैन कर्मशास्त्र मे ग्रथिभेद कहा जाता है । ग्रथिभेद का अर्थ है तीव्रतम राग-द्वेष अर्थात् मोहरूप गाँठ का छेदन अर्थात् शिथिलीकरण । ग्रथिभेद का कार्य वडा कठिन होता है । इसके लिए आत्मा को बहुत लंबा सघर्ष करना पडता है । चतुर्थ गुणस्थान आत्मा की वह अवस्था है जिसमे मोह की शिथि लता के कारण सम्यक् श्रद्धा अर्थात् सदसद्विवेक तो विद्यमान रहता है किन्तु सम्यक् चारित्र का अभाव होता है । इसमे विचार-शुद्धि को विद्यमानता होते हुए भी आचार-शुद्धि का असद्भाव होता । इस गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है | देशविरति : देशविरत - सम्यग्दृष्टि नामक पांचवे गुणस्थान मे व्यक्ति की आत्मिक शक्ति और विकसित होती है । वह पूर्ण रूप से सम्यक् चारित्र की आराधना तो नही कर पाता किन्तु आशिक रूप से उसका पालन अवश्य करता है । इसी अवस्था मे स्थित व्यक्ति को जैन आचारशास्त्र मे उपासक अथवा श्रावक कहा गया है | श्रावक की आशिक चारित्र साधना अणुव्रत के नाम से प्रसिद्ध है। अणुव्रत का अर्थ है स्थूल, छोटा अथवा आशिक व्रत अर्थात् चारित्र अथवा ३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : जैन आचार नियम । अणुव्रती उपासक पूर्णरूपेण अथवा सूक्ष्मतया सम्यक् चारित्र का पालन करने मे असमर्थ होता है। वह मोटे तौर पर ही चारित्र का पालन करता है । स्थूल हिंसा, झूठ आदि का त्याग करते हुए अपना व्यवहार चलाता हुआ त्किचित् आध्मात्मिक साधना करता है। सर्वविरति : छठे गुणस्थान मे साधक कुछ और आगे बढता है। वह देशविरति अर्थात् आंशिकविरति से सर्वविरति अर्थात् पूर्णविरति की ओर आता है। इस अवस्था में वह पूर्णतया सम्यक् चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहला कर महाव्रत कहलाता है। वह अणुव्रती उपासक अथवा श्रावक न कहला कर महाव्रती साधक अथवा श्रमण कहलाता है। उसका हिंसादि का त्याग स्थूल न होकर सूक्ष्म होता है, अणु न होकर महान् होता है, छोटा न होकर बड़ा होता है। यह सब होते हुए भी ऐसा नही कहा जा सकता कि इस अवस्था मे स्थित साधक का चारित्र सर्वथा विशुद्ध होता है अर्थात् उसमे किसी प्रकार का दोष आता ही नही । यहाँ प्रमादादि दोषो की थोडी-बहुत सभावना रहती है अतएव इस गुणस्थान का नाम प्रमत्त-सयत रखा गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भूमिका से नीचे भी गिर सकता है तथा ऊपर भी चढ सकता है। अप्रमत्त अवस्था सातवे गुणस्थान में स्थित साधक प्रमादादि दोषो से रहित Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ३५ होकर आत्मसाधना मे लग्न होता है। इसीलिए इसे अप्रमत्तसयत गुणस्थान कहा जाता है। इस अवस्था मे रहे हुए साधक को प्रमादजन्य वासनाएँ एकदम नहीं छोड देती। वे बीच-बीच मे उसे परेशान करती रहती हैं। परिणामतः वह कभी प्रमादावस्था में विद्यमान रहता है तो कभी अप्रमादावस्था मे। इस प्रकार साधक की नैया छठे व सातवे गुणस्थान के बीच मे डोलती रहती है। अपूर्वकरण : यदि साधक का चारित्र-बल विशेष बलवान् होता है और वह प्रमादाप्रमाद के इस संघर्ष मे विजयी वन कर विशेष स्थायी अप्रमत्त-अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे तदनुगामी एक ऐसी शक्ति की सम्प्राप्ति होती है जिससे रहे-सहे मोह-बल को भी नष्ट किया जा सके । इस गुणस्थान मे साधक को अपूर्व आत्मपरिमाणरूप शुद्धि अर्थात् पहले कभी प्राप्त न हुई विशिष्ट आत्मगुणशुद्धि की प्राप्ति होती है । चूँकि इस अवस्था मे रहा हुआ साधक अपूर्व आध्यात्मिक करण अर्थात् पूर्व मे अप्राप्त आत्मगुणरूप साधन प्राप्त करता है अथवा उसके करण अर्थात् चारित्ररूप क्रिया की अपूर्वता होती है अत इसका नाम अपूर्वकरण-गुणस्थान है। इसका दूसरा नाम निवृत्ति-गुणस्थान भी है क्योकि इसमे भावो की अर्थात् अध्यवसायो की विषयाभिमुखता--पुन. विषयो की ओर लौटने की क्रिया विद्यमान रहती है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ३६ : आचार स्थूल कषाय : दृष्ट, श्रुत अथवा भुक्त विषयो की आकांक्षा का अभाव होने के कारण नवे गुणस्थान मे अध्यवसायों की विषयाभिमुखता नही होती अर्थात् भाव पुन. विषयो की ओर नही लौटते । इस प्रकार भावो -अध्यवसायो की अनिवृत्ति के कारण इस अवस्था का नाम अनिवृत्ति - गुणस्थान रखा गया है। इस गुणस्थान मे आत्मा बादर अर्थात् स्थूल कषायो के उपशमन अथवा क्षपण मे तत्पर रहती है अत. इसे अनिवृत्ति - बादर - गुणस्थान, अनिवृत्तिबादर-सम्पराय ( कपाय ) गुणस्थान अथवा बादर- सम्पराय गुणस्थान भी कहा जाता है । सूक्ष्म कपाय : दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्म-सम्पराय के नाम से प्रसिद्ध है । इसमे सूक्ष्म लोभरूप कषाय का ही उदय रहता है । श्रन्य कपायो का उपशम अथवा क्षय हो चुका होता है । उपशांत कपाय : जो साधक क्रोधादि कपायो को नष्ट न कर उपशान्त करता हुआ ही आगे वढता है - विकास करता है वह क्रमश: चारित्र - शुद्धि करता हुआ ग्यारहवे गुणस्थान को प्राप्त करता है । इस गुणस्थान मे साधक के समस्त कपाय उपशान्त हो जाते हैं - दब जाते हैं । इसीलिए इसका उपशान्त-कपाय गुणस्थान अथवा उपशान्त-मोह गुणस्थान नाम सार्थक है । इस गुणस्थान मे स्थित Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ३७ आत्मा मोह को एक बार सर्वथा दवा तो देती है किन्तु निर्मूल नाश के अभाव मे दबा हुआ मोह राख के नीचे दबी हुई अग्नि की भाँति समय आने पर पुन. अपना प्रभाव दिखाने लगता है। परिणामत. आत्मा का पतन होता है। आत्मा इस अवस्था से एक बार अवश्य नीचे गिरती है-इस भूमिका से गिर कर नीचे की किसी भूमिका पर आ टिकती है। यहाँ तक कि इस गुणस्थान से गिरने वाली आत्मा कभी-कभी सवसे नीची भूमिका अर्थात् मिथ्यात्व-गुणस्थान तक पहुंच जाती है। इस प्रकार की आत्मा पुन अपने प्रयास द्वारा कषायो को उपशान्त अथवा नष्ट करती हुई प्रगति कर सकती है। क्षीण कषाय: कषायों को नष्ट कर आगे बढ़ने वाला साधक दसवे गुणस्थान के अन्त मे लोभ के अन्तिम अवशेष को विनष्ट कर मोह से सर्वथा मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था का नाम क्षीणकषाय अथवा क्षीण-मोह गुणस्थान है। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले व्यक्ति का कभी पतन नही होता । ग्यारहवे गुणस्थान से विपरीत स्वरूप वाले इस बारहवें गुणस्थान की यही विशेपता है। सदेह मुक्तिः मोह का क्षय होने पर ज्ञानादिनिरोधक अन्य कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। परिणामत. आत्मा मे विशुद्ध ज्ञानज्योति प्रकट होती है। आत्मा की इसी अवस्था का नाम सयोगि केवली गुणस्थान Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : जैन आचार है । केवली का अर्थ है केवलज्ञान अर्थात् सर्वथा विशुद्धज्ञान से युक्त । सयोगी का अर्थ है योग अर्थात् कायिक आदि प्रवृत्तियों से युक्त । जो विशुद्ध ज्ञानी होते हुए भी शारीरिक प्रवृत्तियो से मुक्त नही होता वह सयोगी केवली कहलाता है। यह तेरहवा गुणस्थान है। विदेह भक्तिः तेरहवें गुणस्थान में स्थित सयोगी केवली जब अपनी देह से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारो को सर्वथा रोक देता है तब वह आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है । आत्मा की इसी अवस्था का नाम अयोगि-केवली गुणस्थान है। यह चारित्र-विकास अथवा आत्मविकास की चरम अवस्था है । इसमे आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त मे देहत्यागपूर्वक सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। इसी का नाम परमात्म-पद, स्वरूपसिद्धि, मुक्ति, निर्वाण, निर्गुण-ब्रह्मस्थिति, अपुनरावृत्ति-स्थान अथवा मोक्ष है। यह आत्मा की सर्वागीण पूर्णता, पूर्ण कृतकृत्यता एवं परम पुरुषार्थ-सिद्धि है । इसमे आत्मा को अनन्त एवं अव्याबाध अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। जैन गुणस्थान, वौद्ध अवस्थाएँ व वैदिक भूमिकाएँ : जैन दर्शन की तरह अन्य भारतीय दर्शनों ने भी आत्मा के क्रमिक विकास का विचार किया है। यह विचार वैदिक परम्परा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ३९ मे भूमिकाओ तथा बौद्ध विचारधारा मे अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है। वैदिक परम्परा के योगवासिष्ठ, पातंजल योगसूत्र आदि ग्रन्थो मे आत्मविकास की भूमिकाओ का पर्याप्त विवेचन है । वौद्ध दर्शन में भी आत्मा की ससार, मोक्ष आदि अवस्थाएं मानी गई हैं अत उसमे आत्मविकास का वर्णन स्वाभाविक है। यह वर्णन मज्झिमनिकाय आदि बौद्ध ग्रन्थो मे उपलब्ध है। योगवासिष्ठवणित चौदह भूमिकाएँ जैनशास्त्रोक्त चौदह गुणस्थानों से कुछ-कुछ मिलती हुई हैं। इन चौदह भूमिकाओ मे से सात अज्ञान की तथा सात ज्ञान की हैं। जैन परिभाषा मे इन्हे क्रमशः मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व की अवस्थाएं कह सकते हैं। मज्झिमनिकाय मे स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त करने तक की स्थिति का पॉच अवस्थाओ मे विभाजन किया गया है जिनके नाम ये है : १. धर्मानुसारी, २ सोतापन्न, ३. सकदागामी, ४. अनागामी और ५. अरहा। जैन शास्त्रोक्त कर्मप्रकृतियो की भांति मज्झिमनिकाय मे दस सयोजनाओ का वर्णन है। इन सयोजनाओं का क्रमश क्षय होने पर सोतापन्न आदि अवस्थाएँ प्राप्त होती है। सोतापन्न आदि चार अवस्थाओं का विकास-क्रम जैनग्रन्थोक्त चौथे से लेकर चौदहवे तक के गुणस्थानों से मिलता-जुलता है। इन चार अवस्थाओं को चतुर्थ आदि गुणस्थानो का सक्षिप्त रूप कह सकते हैं। योगदृष्टियाँ: जिस प्रकार पातंजल-योगसूत्र मे आत्मविकास अर्थात् चारित्रविकास की चरम अवस्थारूप मोक्ष की सिद्धि के लिए योगरूप Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : जैन आचार साधन के यम, नियमादि आठ अंग बतलाये गये हैं उसी प्रकार आचार्य हरिभद्रकृत योगदृष्टिसमुच्चय मे जैनाभिमत आठ योगदृष्टियाँ बतलाई गई है। इन दृप्टियो के नाम इस प्रकार हैं : १ मित्रा, २ तारा, ३. बला, ४ दीपा, ५ स्थिरा, ६. कान्ता, ७ प्रभा और ८ परा। दृष्टि का अर्थ बताते हुए योगदृष्टिसमुच्चय मे कहा गया है कि सत्श्रद्धाश्रुत बोध का नाम दृष्टियथार्थ दृष्टि है । इसके द्वारा विचारयुक्त श्रद्धा रखने, निर्णय करने एवं सत्य पदार्थ का ज्ञान करने की शक्ति उत्पन्न होती है । ज्योंज्यो दृष्टि की उच्चता प्राप्त होती जाती है त्यो-त्यो चारित्र का विकास होता जाता है। आचार्य हरिभद्र ने इस विकास क्रम को उक्त आठ दृष्टियो के माध्यम से स्पष्ट किया है। ओघदृष्टि व योगदृष्टि: सामान्यतया दृष्टि दो प्रकार की होती है । ओघदृष्टि और योगदृष्टि । ओघदृष्टि का अर्थ है सामान्य अथवा साधारण दृष्टि। जनसमूह की सामान्य दृष्टि जिसमे विचार अथवा विवेक का अभाव होता है, ओघदृष्टि कहलाती है। इसमे गतानुगतिकता का सद्भाव एव चिन्तनशीलता का अभाव होता है। योगदृष्टि का स्वल्प इससे विपरीत है। इसमे स्थित व्यक्ति मे विवेकशीलता विद्यमान रहती है । आचार्य हरिभद्रोक्त आठ दृष्टियो का समावेश योगदृष्टि मे होता है । दूसरे शब्दो मे मित्रादि आठ दृष्टियाँ योगदृष्टियाँ कहलाती है। इन्ही दृष्टियो के समूह का नाम योगदृष्टिसमुच्चय है। इन आठ दृष्टियो मे से प्रथम चार दृष्टियाँ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ४१ मिथ्यादृष्टि जीवो को भी हो सकती है। यही कारण है कि इनसे पतन की भी संभावना रहती है। अन्तिम चार दृष्टियाँ नियमतः सम्यग्दृष्टि को ही होती हैं अत ये अप्रतिपाती है-इनसे पतन कभी नहीं होता । प्रथम चार दृष्टियाँ अस्थिर है जबकि अन्तिम चार स्थिर हैं। मित्रादृष्टि व यम : मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के समकक्ष है। इसमे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, मैथुनविरमण एवं अपरिग्रह रूप पाच यम सामान्यतया विद्यमान होते है। इस दृष्टि मे प्राप्त वोध तृण की अग्नि के समान होता है। जैसे वृणपुंज शीघ्रता से जलकर शीघ्र ही शान्त हो जाता है वैसे ही मित्रादृष्टि मे बोध शीघ्र उत्पन्न होकर शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। यह वोध अति सामान्य प्रकार का होता है। इसमे स्थायित्व जरा भी नही होता । इस दृष्टि का लक्षण 'अखेद' है अर्थात् इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति को शुभ कार्य करते ज़रा भी खेद नही होता-अच्छा काम करते तनिक भी दुख नहीं होता। इतना ही नही, वह अशुभ कार्य करने वाले के प्रति 'अद्वेष' वत्ति रखता है अर्थात् बुरा काम करने वाले पर क्रोध न लाते हुए अथवा उससे घृणा न करते हुए उसे दया का पात्र समझता है । इस अद्वेपवृत्ति के कारण उसमे सहिष्णुता उत्पन्न होती है। ताराष्टिव नियम : तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समकक्ष है। इसमे Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : जैन आचार शौच, संतोप, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान की विद्यमानता होती है। शारीरिक व मानसिक शुद्धि का नाम शौच है । जीवन के लिए अनिवार्य पदार्थों के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं की अस्पृहा को सन्तोष कहते हैं। क्षुधा, पिपासा आदि परीषह तथा अन्य प्रकार के कष्ट सहन करना तप है। ग्रन्थादि के अध्ययन का अर्थ है स्वाध्याय । परमात्मतत्त्व का चिन्तन ईश्वरप्रणिधान कहलाता है। इस दृष्टि मे बोध कडे की अग्नि के समान होता है जो कुछ समय तक टिकता है। जिस प्रकार मित्रादृष्टि मे अखेद एवं अद्वेष गुण उत्पन्न होता है उसी प्रकार तारादृष्टि मे 'जिज्ञासा' गुण पैदा होता है। इसके कारण व्यक्ति के मन में तत्त्वज्ञान की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इस दृष्टि मे शुभ कार्य करने की प्रवृत्ति विशेष बलवती एवं वेगवती होती है। इसकी सिद्धि के लिए व्यक्ति अनेक प्रकार के नियम अंगीकार करता है। उसे योगकथा से बहुत प्रेम होता है। अन्य प्रकार की कथानो मे आनन्द नही आता । योगियों-साधको के प्रति उसके हृदय मे मान बढ़ जाता है। वलादृष्टि व आसन : बलादृष्टि मे साध्य का दर्शन विशेष दृढ एवं स्पष्ट होता है। आत्मा 'ग्रन्थिभेद' के समीप पहुँच जाती है। उसे एक ऐसे वल का अनुभव होता है जो पहले कभी न हुआ हो। इस दृष्टि मे स्थित व्यक्ति की ऐसी मनोवृत्ति हो जाती है कि उसकी पौद्गलिक पदार्थविषयक तृष्णा शान्त हो जाती है। परिणामतः Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र - विकास : ४३ उसमे ऐसी स्वभावसौम्यता उत्पन्न हो जाती है कि स्थिरता के अभ्यास के रूप मे उसे आसन नामक तृतीय योगाग की प्राप्ति होती है | प्रथम दो दृष्टियो मे जैसे अद्वेप व जिज्ञासा गुण प्राप्त होते हैं वैसे ही इस दृष्टि मे शुश्रूपा अर्थात् श्रवणेच्छा गुण की प्राप्ति होती है । इससे व्यक्ति को तत्त्वश्रवण की प्रबल इच्छा होती है । उसे तत्त्वश्रवण मे अति श्रानन्द का अनुभव होता है । इस दृष्टि मे प्राप्त बोध काष्ठ की अग्नि के सदृश होता है । यह तारादृष्टि मे प्राप्त बोध की अपेक्षा अधिक स्थिर होता है । इस दृष्टि की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमे सत्प्रवृत्ति करते हुए प्राय विघ्न उपस्थित नही होते प्रत. आरम्भ किये हुए शुभ कार्य ठीक तरह पूरे हो जाते हैं । कदाचित् विघ्न आ जाय तो भी उसके निवारण की उपायकुशलता प्राप्त होने के कारण वह बाधक सिद्ध नही हो पाता । दीप्रादृष्टि व प्राणायाम : दीप्रा नामक चतुर्थ दृष्टि मे योग के चतुर्थ अग प्राणायामश्वासनियन्त्रण की प्राप्ति होती है । जिस प्रकार प्राणायाम की रेचक, पूरक व कुम्भकरूप तीन अवस्थाएं हैं उसी प्रकार इस दृष्टि की भी तीन अवस्थाएं हैं । यहाँ बाह्यभाव- नियन्त्रणरूप रेचक, आन्तरिकभाव - नियन्त्रणरूप पूरक एव स्थिरतारूप कुभक होता है | यह प्राध्यात्मिक प्राणायाम है । इस दृष्टि मे प्राप्त होनेवाला बोध दीपप्रभा - दीपक की ज्योति के समान होता है । यहाँ श्रवण गुण की प्राप्ति होती है । बलादृष्टि मे प्राप्त शुश्रूषा दीप्रा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : जैन आचार दृष्टि में श्रवण के रूप में परिणत होती है। इससे वोध अधिक स्पष्ट होता है । इस दृष्टि मे स्थित व्यक्ति को धर्म अर्थात् सदाचरण पर इतनी अधिक श्रद्धा होती है कि वह उसके लिए प्राणार्पण करने को भी तैयार रहता है। उसको दृष्टि मे शरीर का उतना मूल्य नहीं होता जितना कि धर्म का-चारित्र का । इतना होते हुए भी इस दृष्टि मे सूक्ष्म बोध का तो अभाव ही रहता है। यही कारण है कि चतुर्थ दृष्टि तक पहुंच कर भी प्राणी कभी-कभी पतित हो जाता है-पुनः नीचे गिर पडता है। स्थिराइष्टि व प्रत्याहार : उपयुक्त चार दृष्टियो तक कम-ज्यादा मात्रा मे अभिनिवेशआसक्ति की विद्यमानता रहती है। व्यक्ति को सत्यासत्य की सुनिश्चित प्रतीति नही होती । सूक्ष्म बोध के अभाव मे वह तत्त्वातत्त्व की समुचित परीक्षा नही कर पाता । या तो अपनी मान्यता को सत्य मानकर चलता है या पूरी परीक्षा किये विना जिस किसी का अनुसरण करता है। प्राणी की इस प्रकार की स्थिति को 'अवेद्यसवेद्य पद' कहा जाता है। अभिनिवेश का अभाव होने पर सूक्ष्म वोध के कारण व्यक्ति को सत्यासत्य की सुनिश्चित प्रतीति होती है-तत्त्वातत्त्व का निश्चित ज्ञान होता है। इस स्थिति का नाम है 'वेद्यसवेद्य पद' । ( क्षायिक ) सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारण ही इस पद की प्राप्ति होती है। प्रथम चार दृष्टियो मे सम्यक्त्व की भजना है अर्थात् इनमे सम्यक्त्व होता भी है और नहो भी । स्थिरा नामक पाँचवी दृष्टि मे निश्चित रूप से Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ४५ सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व ग्रन्थिभेद के कारण प्राप्त होता है। इसके बाद साधक का पतन नहीं होता। वह निश्चित रूप से आगे बढ़ता जाता है आध्यात्मिक उन्नति करता जाता है। उसके चारित्र में किसी प्रकार का दोष नही आता-किसी प्रकार की शिथिलता नही पाती । स्थिरादृष्टि मे बोध रत्नप्रभा के समान होता है। उसमे पर्याप्त स्थिरता आ जाती है जिसके कारण आत्मा को साध्य का साक्षात् अनुभव होने लगता है। इस दृष्टि मे विपयविकार-त्यागरूप प्रत्याहार नामक पचम योगाग की प्राप्ति होती है जिससे आत्मा इन्द्रियविषयो की ओर आकृष्ट न होती हुई स्वरूप की ओर झुकती है। जिस प्रकार पूर्वोक्त चार दृष्टियो मे क्रमशः अद्वेष ,जिज्ञासा, शुभूषा एवं श्रवण गुण की प्राप्ति होती है उसी प्रकार इस पाँचवी दृष्टि मे सूक्ष्मबोध गुण उत्पन्न होता है । इस दृष्टि मे स्थित व्यक्ति की चर्या सामान्यतया ऐसी हो जाती है कि उसे अतिचाररूप दोप बहुत कम लगते हैं-नही के बराबर लगते है। वह अनेक यौगिक गुण प्राप्त करता है, जैसे अचंचलता अथवा स्थिरता, नीरोगता, अकठोरता, मलादिविषयक अल्पता, स्वरसुन्दरता, जनप्रियता आदि । कान्तादृष्टि च धारणा: कान्ता नामक छठी दृष्टि में पदार्पण करने के पूर्व साधक को यौगिक सिद्धियां प्राप्त हो चुकी होती हैं। कान्तादृष्टि मे उसे धारणा नामक योगाग की प्राप्ति होती है। धारणा का अर्थ है किसी पदार्थ के एक भाग पर चित्त की स्थिरता। यह दृष्टि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : जैन आचार प्राप्त होने पर चित्त की चंचलता और कम हो जाती है जिससे मन को और अधिक स्थिर किया जा सकता है। यहां मीमांसा गुण की प्राप्ति होती है जिससे व्यक्ति की सदसत्परीक्षणशक्ति विशेष बढ जाती है। उसका बोध तारे की प्रभा के समान होता है। जैसे तारा एकसा प्रकाश देता है वैसे ही इस दृष्टिवाले प्राणी का बोध एकसा स्पष्ट एवं स्थिर होता है। उसका चारित्र स्वभावतः निरतिचार होता है, अनुष्ठान शुद्ध होता है, आचरण प्रमादरहित होता है, आशय उदार एवं गंभीर होता है। भवउद्वेग के पूर्ण विकास के कारण उसका संसारसम्बन्धी राग नष्टप्रायः हो जाता है-माया व ममता से उसे अन्तःकरणपूर्वक विरक्ति हो जाती है। उसका मन श्रुतधर्म मे बहुत आसक्त रहता है। उसकी कर्मप्रचुरता धीरे-धीरे कम होती जाती है। प्रभादृष्टि व ध्यान : प्रभा नामक सातवी दृष्टि मे ध्यान नामक योगांग की प्राप्ति होती है। किसी एक पदार्थ पर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त होने वाली चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं । यह ध्येय वस्तु मे होने वाली एकाकार चित्तवृत्ति के प्रवाह के रूप मे प्रस्फुटित होता है। धारणा मे चित्तवृत्ति की स्थिरता एकदेशीय तथा अल्पकालीन होती है जबकि ध्यान मे वह प्रवाहरूप तथा दीर्घकालीन होती है। प्रभादृष्टि मे बोध सूर्य की प्रभा के समान होता है जो लंबे समय तक अतिस्पष्ट रहता है। यहाँ प्रतिपत्ति गुण की प्राप्ति होती है अर्थात् कान्तादृष्टि मे विचारित-परीक्षित-मीमासित तत्त्व का ग्रहण होता है-अमल प्रारंभ होता है। सर्व व्याधियो के Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दृष्टि से चारित्र - विकास : ४७ 1 उच्छेद के कारण शमसुख -- अपूर्वं शान्ति की अनुभूति होती कर्ममल क्षीणप्रायः हो जाता है । इस अवस्था को पातंजल योगदर्शन की परिभाषा मे प्रशान्तवाहिता कह सकते 1 परादृष्टि व समाधि : आठवी परादृष्टि योग के अन्तिम अंग समाधि के समकक्ष है । धारणा से प्रारम्भ होने वाली एकस्य चित्तता ध्यानावस्था को पार करती हुई समाधि मे पर्यवसित होती है । धारणा मे चित्तवृत्ति की स्थिरता एकदेशीय अर्थात् अप्रवाहरूप होती है । ध्यान मे चित्तवृत्ति का एकाकार प्रवाह चलता है किन्तु वह सतत धारारूप नही होता अपितु थोडे समय वाद - अन्तमुहूर्त मे उसका विच्छेद हो जाता है । समाधि मे चित्तवृत्ति का प्रवाह अविछिन्न रूप से बहता है । इसमे एकाग्रता स्थायी होती है क्योकि यहाँ ध्यान मे विक्षेप करने वाले कारणों का अभाव होता है | परादृष्टि मे बोध चन्द्र के उद्योत के समान शान्त एवं स्थिर होता है । यहाँ प्रवृत्ति गुण की प्राप्ति होती है अर्थात् प्रभादृष्टि मे प्राप्त प्रतिपत्ति गुण इस दृष्टि पूर्णता को प्राप्त होता है । परिणामतः आत्मा की स्वगुण मे अर्थात् स्वरूप में सम्पूर्णतया प्रवृत्ति होती है । इस अवस्था मे किसी भी प्रकार के दोष की सम्भावना नही रहती । अन्त मे ग्रात्मा को अखंड आनन्दरूप अनन्त सुख की प्राप्ति होती है जिसे भारतीय दार्शनिको ने मोक्ष अथवा निर्वाण कहा है तथा जो सम्यक्विचार एव सदाचार का ध्येय माना गया है और जिसमे सम्यग्दृष्टि व सच्चारित्र का पर्यवसान होता है । मे Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwww WWW जैन आचार - ग्रन्थ आचाराग उपासकदशाग दशवैकालिक आवश्यक दशाश्रुतस्कन्ध बृहत्कल्प व्यवहार निशीथ महानिशीथ जीतकल्प मुलाचार मला राधना रत्नकरण्डक-श्रावकाचार वसुनन्दि-श्रावकाचार सागार धर्मामृत अनगार धर्मामृत Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ जैन आचार का प्रारभ देशविरति अर्थात् आंशिक वैराग्य से होता है। इस अवस्था को पंचम गुणस्थान कहते हैं। इसमे व्यक्ति अणुव्रतो-छोटे व्रतो का पालन करता है। इस भूमिका पर स्थित व्यक्ति को उपासक अथवा श्रावक कहा जाता है। इसके बाद की अवस्था सर्वविरति के रूप मे होती है। इसमे व्यक्ति पूर्णतया विरक्त हो जाता है। इस अवस्था को षष्ठ गुणस्थान कहते है । इसमे स्थित श्रमण अथवा निग्रंन्थ महानतो-बडे व्रतो का पालन करता है। इस भूमिका को आचार्य हरिभद्रप्रतिपादित मित्रा-योगदृष्टि एवं पतंजलिनिर्दिष्ट यम-योगाग के समकक्ष माना जा सकता है। इसके बाद चारित्र का धीरे-धीरे विकास होता जाता है जिसके कारण कर्मग्रन्थोक्त अप्रमत्त आदि अवस्थाओ की प्राप्ति होती है। जैन आचार्यों ने श्रमणाचार एव श्रावकाचार दोनो से सम्बन्धित ग्रन्थों का निर्माण किया है। इन ग्रन्थो मे श्वेताम्वर परम्पराभिमत आचा राग, उपासकदशांग, दशवैकालिक, आवश्यक, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहकल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ व जीतकल्प तथा दिगम्बर परम्पराभिमत मूलाचार, मूलाराधना, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत व अनगारधर्मामृत मुख्य हैं। आचारांग: समग्र जैन आचार की आधारशिला प्रथम अंगसूत्र आचाराम Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : जैन है । यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध गणधरकृत तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थविरकृत है । प्रथम श्रुतस्कन्ध मे पहले नौ अध्ययन थे किन्तु महापरिज्ञा नामक एक अध्ययन का लोप हो जाने के कारण अब इसमे आठ अध्ययन ही रह गये है । इन अध्ययनो के नाम इस प्रकार हैं : १ शस्त्रपरिज्ञा, २. लोकविजय, ३. शीतोष्णीय, ४. सम्यक्त्व, ५. लोकसार अथवा आवंती, ६. घूत, ७ विमोक्ष और ८. उपधानश्रुत । ये अध्ययन विभिन्न उद्देशो मे विभक्त है । प्रथम अध्ययन के सात उद्देश है | द्वितीय आदि अध्ययनों के क्रमश छ, चार, चार, छ, पाँच, आठ और चार उद्देश हैं। इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध मे सब मिला कर चौवालीस उद्देश हैं । ये उद्देश छोटे-छोटे सूत्रों मे विभक्त हैं । प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनो का संयुक्त नाम 'ब्रह्मचर्यं ' है । इसीलिए आचार्य शीलांक ने अपनी टीका मे इस श्रुतस्कन्ध को ब्रह्मचर्य - श्रुतस्कन्ध कहा है । यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ सयम है जो अहिंसा एवं समभाव की साधना का नामान्तर है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध को नियुक्तिकार ने 'आचाराग्र' नाम दिया है । यह वस्तुतः प्रथम श्रुतस्कन्ध का परिशिष्ट है । इसीलिए इसे आचारचूडा अथवा आचारचूलिका भी कहा जाता है । विषय के विशेष स्पष्टीकरण की दृष्टि से इस प्रकार की चूलिकाएँ ग्रन्थो मे जोड़ी जाती हैं । आचाराग्र अथवा आचारचूलिकारूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाँच चूलाओ मे विभक्त है । प्रथम चूला मे पिण्डेषणादि सात तथा द्वितीय चूला मे स्थान आदि सात अध्ययन हैं। तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम चलाएँ एक-एक अध्ययन के रूप मे ही हैं। प्रथम चूला के प्रथम अध्ययन के ग्यारह, द्वितीय तथा आचार Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ५३ तृतीय अध्ययनों के तीन-तोन और अन्तिम चार अध्ययनों के दोदो उद्देश हैं। द्वितीयादि चूलाओ के अध्ययन एक-एक उद्देश के रूप मे ही हैं। उपलब्ध समग्न जैन साहित्य मे आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम है, यह इसकी प्राकृत भाषा, तनिष्ठ शैली व तद्गत भावो से सिद्ध है। इसके प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा के सात उद्देशो मे हिंसा के साधनो अर्थात् शस्त्रो का परिज्ञान कराते हुए उनके परित्याग का उपदेश दिया गया है। जीवविषयक सयम इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। प्रथम उद्देश मे जीव का सामान्य निरूपण करके द्वितीयादि उद्देशो मे पट जीवनिकायो का क्रमश. वर्णन किया गया है। प्रत्येक उद्देश मे यह प्रतिपादित किया गया है कि जीववध से कर्मों का वन्ध हाता है अतएव विरति ही कर्तव्य है। लोकविजय नामक द्वितीय अध्ययन छ उद्देशो मे विभक्त है। इसका प्रतिपाद्य विषय लोक का बंधन व उसका घात है। इसके छ. उद्देशो का अधिकार अर्थात् प्रतिपाद्य विषय क्रमशः इस प्रकार है : १ स्वजनो मे आसक्ति का परित्याग, २ संयम मे शिथिलता का परित्याग, ३ मान और अर्थ मे सारदृष्टि का परित्याग, ४. भोग मे आसक्ति का परित्याग, ५. लोक के आश्रय से सयम-निर्वाह, ६. लोक मे ममत्व का परित्याग । 'लोकविजय' का शब्दार्थ है कपायरूप भावलोक का औपशमिकादि भावो द्वारा निरसन । शीतोष्णीय नामक तृतीय अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है । सत्कार आदि अनुकूल परीपह शीत तथा अपमान आदि प्रतिकूल परीषह उष्ण कहे जाते हैं। प्रस्तुत Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ • जैन आचार अध्ययन मे आन्तरिक व बाह्य शीत-उष्ण की चर्चा है। इसमे यह बताया गया है कि श्रमण को शीतोष्ण स्पर्श, सुख-दुःख, अनुकूलप्रतिकूल परीपह, कषाय, कामवासना, शोक-संताप आदि को सहन करना चाहिए तथा सदैव तप-संयम-उपशम के लिए उद्यत रहना चाहिए । प्रथम उद्देश मे असयमी का, द्वितीय उद्देश मे असयमी के दुख का, तृतीय उद्देश मे केवल कष्ट उठानेवाले श्रमण का एवं चतुर्थ उद्देश मे कषाय के वमन का वर्णन है। सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन भी चार उद्देशों मे विभक्त है। प्रथम उद्देश मे सम्यकवाद अर्थात् यथार्थवाद का विचार किया गया है। द्वितीय उद्देश मे धर्मप्रावादुको की परीक्षा का, तृतीय उद्देश मे अनवद्य तप के आचरण का तथा चतुर्थ उद्देश मे नियमन अर्थात् संयम का वर्णन है। इन सबका तात्पर्य यह है कि संयमी को सदेव सम्यक ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र मे तत्पर रहना चाहिए । पंचम अध्ययन का नाम लोकसार है । यह छ. उद्देशो मे विभक्त है। इसका दूसरा नाम आवती भी है क्योकि इसके प्रथम तीन उद्देशो का प्रारम्भ इसी शब्द से होता है । लोक मे धर्म ही सारभूत तत्त्व है। धर्म । का सार ज्ञान,ज्ञान का सार संयम व सयम का सार निर्वाण है। प्रस्तुत अध्ययन मे इसी का प्रतिपादन किया गया है। प्रथम उद्देश मे हिंसक, समारंभकर्ता तथा एकलविहारी को अमुनि कहा गया है। द्वितीय उद्देश मे विरत को मुनि तथा अविरत को परिग्रही कहा गया है। तृतीय उद्देश मे मुनि को अपरिग्रही एव कामभोगो से विरक्त बताया गया है। चतुर्थ उद्देश मे अगीतार्थ के मार्ग मे आने वाले विघ्नो का निरूपण है । पंचम उद्देश मे मुनि को ह्रद अर्थात् Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ५५ जलाशय की उपमा दी गई है। छठे उद्देश मे उन्मार्ग एवं रागद्वेष के परित्याग का उपदेश दिया गया है। पष्ठ अध्ययन का नाम धूत है। इसमे बाह्य व आन्तरिक पदार्थों के परित्याग तथा आत्मतत्त्व की परिशुद्धि का उपदेश दिया गया है अत. इसका धूत (फटक कर धोया हुआ-शुद्ध किया हुआ) नाम सार्थक है। इसके प्रथम उद्देश मे स्वजन, द्वितीय मे कर्म, तृतीय मे उपकरण और शरीर, चतुर्थ मे गौरव तथा पंचम मे उपसर्ग और सन्मान के परित्याग का उपदेश है। महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन विच्छिन्न है-लुप्त है। इसकी नियुक्ति भी उपलब्ध नहीं है। नियुक्तिकार ने प्रारम्भ मे इसके विषय का मोहजन्य परीषह व उपसर्ग के रूप में निर्देश किया है : मोहसमुत्था परीसहवसग्गा। इससे प्रतीत होता है कि इस अध्ययन मे नाना प्रकार के मोहजन्य परीषहों और उपसर्गों को सहन करने के विषय मे प्रकाश डाला गया होगा। विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन मे आठ उद्देश है। प्रथम उद्देश मे असमनोज्ञ अर्थात् असमान प्राचार वाले के परित्याग का उपदेश है। द्वितीय उद्देश मे अकल्प्य अर्थात् अग्राह्य वस्तु के ग्रहण का प्रतिषेध किया गया है। अंगचेष्टा से सम्बन्धित कथन या शंका का निवारण तृतीय उद्देश का विपय है। आगे के उद्देशों में सामान्यतः भिक्षु के वखाचार का वर्णन है किन्तु विशेषत चतुर्थ मे वैखानस एवं गार्द्धपृष्ठ मरण, पचम मे रोग एवं भक्तपरिज्ञा, षष्ठ मे एकत्वभावना एवं इंगिनीमरण, सप्तम मे प्रतिमा एवं पादपोपगमन मरण तथा अहम मे वय प्राप्त श्रमणो के भक्तपरिज्ञा, इगिनीमरण एवं पादपोपगमन मरण की चर्चा है। नवम अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है। इसमे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : जैन आचार वर्तमान जैनाचार के प्ररूपक अन्तिम तीर्थंकर श्रमणभगवान् महावीर की तपस्या का वर्णन है। प्रस्तुत अध्ययन मे भगवान् महावीर के साधकजीवन अर्थात् श्रमणजीवन की सर्वाधिक प्राचीन एवं विश्वसनीय सामग्री उपलब्ध है। इसके चार उद्देशों में से प्रथम मे श्रमणभगवान् की चर्या अर्थात् विहार, द्वितीय मे शय्या अर्थात् वसति, तृतीय मे परीषह अर्थात् उपसर्ग तथा चतुर्थ में आतक व तद्विपयक चिकित्सा का वर्णन है। इन सब कियाओं मे उपधान अर्थात् तप प्रधान रूप से रहता है अतः इस अध्ययन का उपधानश्रुत नाम सार्थक है। इसमे महावीर के लिए 'श्रमणभगवान्', 'ज्ञातपुत्र', 'मेधावी', 'ब्राह्मण', 'भिक्षु', 'अबहुवादी' आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक उद्देश के अन्त मे उन्हे मतिमान् ब्राह्मण एवं भगवान् कहा गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पाँच चूलाओ मे से अन्तिम चूला आचारप्रकल्प अथवा निशीथ को आचारांग से किसी समय पृथक कर दिया गया जिससे आचारांग मे अव केवल चार चूलाएं ही रह गई है। प्रथम श्रुतस्कन्ध मे आने वाले विविध विषयो को एकत्र करके शिष्यहितार्थ चूलाओ मे सगृहीत कर स्पष्ट किया गया। इनमे कुछ अनुक्त विषयो का भी समावेश कर दिया गया। इस प्रकार इन चूलाओ के पीछे दो प्रयोजन थे : उक्त विषयो का स्पष्टीकरण तथा अनुक्त विपयों का ग्रहण । प्रथम चूला मे सात अध्ययन हैं : १. पिण्डैषणा, २ शय्यपणा, ३. ईर्या, ४ भाषाजात, ५ वस्त्रपणा, ६ पात्रषणा, ७. अवग्रहप्रतिमा। द्वितीय चूला मे भी सात अध्ययन हैं : १. स्थान, २. निपीधिका, ३. उच्चारप्रस्रवण, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ५७ ४. शब्द, ५. रूप, ६. परक्रिया, ७ अन्योन्यक्रिया । तृतीय चूला भावना अध्ययन के रूप मे है। चतुर्थ चूला विमुक्ति-अध्ययनरूप है । प्रथम चूला का प्रथम अध्ययन ग्यारह उद्देशो मे विभक्त है। इनमे भिक्षु-भिक्षुणी की पिण्डैपणा अर्थात् आहार की गवेषणा के विपय मे विधि-निषेधो का निरूपण है। शय्यैषणा नामक द्वितीय अध्ययन मे श्रमण-श्रमणी के रहने के स्थान अर्थात् वसति की गवेषणा के विषय मे प्रकाश डाला गया है। इस अध्ययन मे तीन उद्देश हैं। ईर्या नामक तृतीय अध्ययन मे साधु-साध्वी की ईर्या अर्थात् गमनागमनरूप क्रिया की शुद्धि-अशुद्धि का विचार किया गया है । इसमे तीन उद्देश हैं। भापाजात नामक चतुर्थ अध्ययन के दो उद्देश हैं जिनमे भिक्षु-भिक्षुणी की वाणी का विचार किया गया है । प्रथम उद्देश मे सोलह प्रकार की वचनविभक्ति तथा द्वितीय मे कपायजनक वचनप्रयोग की व्याख्या है। पचम अध्ययन वस्त्रपणा के भी दो उद्देश है। इनमे से प्रथम मे वस्त्रग्रहणसम्बन्धी तथा द्वितीय मे वस्त्रधारणसम्बन्धी चर्चा है । षष्ठ अध्ययन पात्रैषणा के भी दो उद्देश हैं जिनमे अलावु, काष्ठ व मिट्टी के पात्र के गवेषण एव धारण की चर्चा है। अवग्रहप्रतिमा नामक सप्तम अध्ययन भी दो उदेशो मे विभक्त है जिनमे विना अनुमति के किसी भी वस्तु को ग्रहण करने का निपेध किया गया है। द्वितीय चूला के प्रथम अध्ययन स्थान मे शरीर की हलन-चलनरूप क्रिया का नियमन करने वाली चार प्रकार की प्रतिमाएँ अर्थात् प्रतिज्ञाएँ वर्णित हैं जिनमे सयमी की स्थिति अपेक्षित है। द्वितीय अध्ययन निषीधिका मे स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध मे चर्चा है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ . जैन आचार उच्चार-प्रस्रवण नामक तृतीय अध्ययन मे मल-मूत्र के त्याग की अहिंसक विधि बतलाई गई है। शब्द नामक चतुर्थ अध्ययन मे विविध वाद्यो, गीतो, नृत्यो, उत्सवों आदि के शब्दो को सुनने की लालसा से यत्र-तत्र जाने का निषेध किया गया है । रूप नामक पंचम अध्ययन मे विविध प्रकार के रूपों को देखने की लालसा का प्रतिषेध किया गया है। षष्ठ अध्ययन परक्रिया मे अन्य द्वारा शारीरिक संस्कार, चिकित्सा आदि करवाने का निषेध किया गया है । सप्तम अध्ययन अन्योन्यक्रिया मे परस्पर चिकित्सा आदि करने-करवाने का प्रतिषेध किया गया है। भावना नामक तृतीय चूला मे पांच महाव्रतो की भावनाओ के साथ ही तदुपदेशक भगवान् महावीर का जीवन भी दिया गया है। विमुक्ति नामक चतुर्थ चूला मे मोक्ष की चर्चा है । मुनि को आंशिक एवं सिद्ध को पूर्ण मोक्ष होता है । समुद्र के समान यह संसार दुस्तर है। जो मुनि इसे पार कर लेते हैं वे अन्तकृत-विमुक्त कहे जाते हैं। इस प्रकार आचाराग सूत्र नि.सदेह भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित आचारशास्त्र का उत्कृष्टतम ग्रंथ है। इसमे अनगारधर्म अर्थात् श्रमणाचार के समस्त महत्त्वपूर्ण पक्षों का सारगर्भित निरूपण है। उपासकदशांग: श्रावकाचार अर्थात् सागारधर्म का प्रतिपादक उपासकदशांग सातवा अंगसूत्र है । इसमे भगवान् महावीर के दस प्रधान उपासको-श्रावको के आदर्श चरित्र दिये गये हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं १. आनन्द, २ कामदेव, ३ चुलनीपिता, ४ सुरा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ५९ देव, ५. चुल्लशतक, ६. कुंडकोलिक, ७. सद्दालपुत्र, ८. महाशतक, ९ नदिनोपिता, १०. सालिहीपिता । आनन्द नामक प्रथम अध्ययन मे श्रावक के बारह व्रतो का विशेष वर्णन किया गया है। दशवैकालिक: उत्तराध्ययनादि मूलसूत्रो मे दशवैकालिक का भी समावेश किया जाता है। इसके कर्ता आचार्य शय्यभव हैं। इसमे दस अध्ययन है । अन्त मे दो चूलिकाएं भी है। द्रुमपुष्पित नामक प्रथम अध्ययन में बताया गया है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को विना कष्ट पहुँचाये उनमे से रस का पान कर अपने आपको तृप्त करता है वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा मे किसी को तनिक भी कष्ट नहीं पहुंचाता । श्रामण्यपूविक नामक द्वितीय अध्ययन में बताया गया है कि जो काम-भोगो का निवारण नही कर सकता वह सकल्प-विकल्प के अधीन होकर पद-पद पर स्खलित होता हुआ श्रामण्य को प्राप्त नही कर सकता। जैसे अगंधन सर्प अग्नि मे जल कर प्राण त्यागना स्वीकार कर लेता है किन्तु वमन किये हुए विप का पुन. पान नही करता वैसे ही सच्चा श्रमण त्यागे हुए काम-भोगो का किसी भी परिस्थिति मे पुन. ग्रहण नहीं करता। क्षुल्लिकाचारकथा नामक तीसरे अध्ययन में निर्ग्रन्थो के लिए औद्द शिक भोजन, क्रीत भोजन, रात्रिभोजन, राजपिण्ड आदि का निषेध किया गया है तथा बताया गया है कि जो ग्रीष्मऋतु मे आतापना लेते हैं, शीतकाल में ठड सहन करते हैं तथा वर्षाऋतु मे एक स्थान पर रहते हैं वे यत्नशील भिक्षु कहे जाते हैं। चौथा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : जैन आचार अध्ययन पट जीवनिकाय से सम्बन्धित है। इसमे पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय व त्रसकाय को मन, वचन व तन से हानि पहुंचाने का निषेध किया गया है तथा सर्व प्राणातिपात-विरमण, मृपावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण और परिग्रह-विरमणरूप महानतो एवं रात्रिभोजनविरमणरूप व्रत का प्रतिपादन किया गया है। पांचवाँ पिण्डैपणा अध्ययन दो उद्देशो मे विभक्त है। इनमे भिक्षासम्बन्धी विविध विधि-विधान है । छठे अध्ययन का नाम महाचारकथा है । इसमे चतुर्थ अध्ययनोक्त छ. व्रतो एव छ जीवनिकायो की रक्षा का विशेप विचार किया गया है। सातवाँ अध्ययन वाक्यशुद्धि से सम्बन्धित है। साधु को हमेशा निर्दोप, अकर्कश एवं असंदिग्ध भापा बोलनी चाहिए। आठवे अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है । इसमे मन, वचन अ. र काय से पटकाय जीवो के प्रति अहिंसक आचरण के विषय मे अनेक प्रकार से विचार किया गया है। विनयसमाधि नामक नवाँ अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है। इनमे श्रमण के विनयगुण का विविध दृष्टियो से व्याख्यान किया गया है। सभिक्षु नामक दसवे अध्ययन में बताया गया है कि जिसकी ज्ञातपुत्र महावीर के वचनो मे पूर्ण श्रद्धा है, जो पट्काय के प्राणियों को आत्मवत् समझता है, जो पांच महाव्रतो की आराधना एवं पाँच पास्रवो का निरोध करता है वह भिक्षु है, इत्यादि । रतिवाक्य नामक प्रथम चूलिका मे चंचल मन को स्थिर करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि जैसे लगाम से चचल घोड़ा वश मे हो जाता है, अकुश से उन्मत्त हाथी वश मे आ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ६१ जाता है उसी प्रकार अठारह वातो का विचार करने से चंचल चित्त स्थिर हो जाता है, इत्यादि । विविक्तचर्या नामक द्वितीय चूलिका मे साधु के कुछ कर्तव्याकर्तव्यों का प्रतिपादन किया गया है। आचाराग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक मे कुछ बातें शब्दशः व कुछ अर्थत. मिलती-जुलती हैं। आवश्यक: आवश्यक का समावेश भी मूलसूत्रों में होता है। इसमे नित्य __ के कर्तव्यो-आवश्यक अनुष्ठानों का प्रतिपादन किया गया है। इसके छः अध्ययन हैं : १ सामायिक, २ चतुर्विंशतिस्तव, ३ वंदन, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान । सामायिक मे यावज्जीवन-जीवनभर के लिए सब प्रकार के साबध योग-पापकारी कृत्यों का त्याग किया जाता है। चविशतिस्तव मे चौबीस तीर्थकरो की स्तुति की जाती है। वदन में गुरु का नमस्कारपूर्वक स्तवन किया जाता है। प्रतिक्रमण मे व्रतों मे लगे अतिचारो की आलोचना की जाती है एवं भविष्य में उन दोषो की पुनरावृत्ति न करने की प्रतिज्ञा की जाती है। कायोत्सर्ग मे शरीर से ममत्व भाव हटाकर उसे ध्यान के लिए स्थिर किया जाता है। प्रत्याख्यान मे एक निश्चित अवधि के लिए चार प्रकार के आहारअशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का त्याग किया जाता है। दशाभूतस्कन्धः दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और जीतकल्प छेदसूत्र कहलाते हैं। संभवतः छेद नामक प्रायश्चित्त Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : जैन आचार को ध्यान में रखते हुए इन्हें छेदसूत्र नाम दिया गया है। छेदसूत्रों में श्रमणाचार से सम्बन्धित प्रत्येक विषय का प्रतिपादन किया गया है। यह प्रतिपादन उत्सर्ग, अपवाद, दोष एव प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इस प्रकार का प्रतिपादन अगादि सूत्रो मे नही मिलता। इस दृष्टि से छेदसूत्रों का जैन आचारसाहित्य मे विशेष महत्वपूर्ण स्थान है । दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प एव व्यवहार आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) की कृतियाँ मानी जाती है। दशाश्रुतस्कन्ध को आचारदशा के नाम से भी जाना जाता है। इसमे दस अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन मे द्रुत गमन, अप्रमार्जित गमन, दुष्प्रमार्जित गमन, अतिरिक्त शय्यासन आदि बीस असमाधिस्थानो का उल्लेख है। द्वितीय अध्ययन मे हस्तकर्म, मैथुनप्रतिसेवन, रात्रिभोजन, आधाकर्मग्रहण, राजपिण्डग्रहण आदि इक्कीस प्रकार के शबल-दोषो का वर्णन है। तृतीय अध्ययन मे तैतीस प्रकार की आशातनाओ पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्ययन मे आठ प्रकार की गणिसम्पदाओ-आचार-सम्पदा, श्रुत-सम्पदा, शरीरसम्पदा, वचन-सम्पदा, वाचना-सम्पदा आदि का वर्णन है। पंचम अध्ययन दस प्रकार के चित्तसमाधि-स्थानो से सम्बन्धित है। षष्ठ अध्ययन मे एकादश उपासक-प्रतिमाओ तथा सप्तम अध्ययन मे द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओ का वर्णन है। अष्टम अध्ययन का नाम पर्युषणाकल्प है। वर्षाऋतु मे श्रमण का एक स्थान पर रहना पर्युषणा कहलाता है। पर्युषणाविपयक कल्प अर्थात् आचार का नाम है पर्युषणाकल्प । प्रस्तुत अध्ययन मे पर्युषणाकल्प के लिए विशेष उपयोगी महावीरचरितसम्बन्धी पाँच हस्तोत्तरो का निर्देश किया Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ६३ गया है : १. हस्तोत्तर नक्षत्र मे महावीर का देवलोक से च्युत होकर गर्भ मे आना, २ हस्तोत्तर में गर्भ-परिवर्तन होना, ३ हस्तोत्तर मे जन्म-ग्रहण करना, ४. हस्तोत्तर मे प्रव्रज्या लेना, ५ हस्तोत्तर मे ही केवलज्ञान की प्राप्ति होना । कल्पसूत्र के रूप मे प्रचलित ग्रंथ इसी अध्ययन का पल्लवित रूप है। इसमे श्रमणभगवान् महावीर के जीवनचरित्र के अतिरिक्त मुख्य रूप से पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ-इन तीन तीर्थंकरो की जीवनी भी दी गई है। अन्त मे । स्थविरावली एवं सामाचारी (श्रमण-जीवनसम्बन्धी नियमावली) भी जोड़ दी गई है। नवम अध्ययन मे तीस मोहनीय-स्थानो का । वर्णन है। दशम अध्ययन का नाम आयतिस्थान है। इसमे विभिन्न निदान-कर्मों अर्थात् मोहजन्य इच्छापूर्तिमूलक संकल्पों का वर्णन किया गया है जो जन्म-मरण की प्राप्ति के कारण हैं। इस प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनो मे से एक अध्ययन श्रावकाचार से सम्बन्धित है जिसमे उपासक-प्रतिमाओ का वर्णन है। शेष नौ अध्ययन श्रमणाचारसम्बन्धी हैं। वृहत्कल्प : वृहत्कल्प सूत्र मे छ. उद्देश हैं। प्रथम उद्देश मे तालप्रलम्ब, मासकल्प, आपगगृह, घटीमात्रक, चिलिमिलिका, दकतीर, चित्रकर्म, सागारिकनिश्रा, अधिकरण, चार, वैराज्य, अवग्रह, रात्रिभक्त, अध्वगमन, उच्चारभूमि, स्वाध्यायभूमि, आर्यक्षेत्र आदि विषयक विधि-निषेध उपलब्ध हैं। कही-कही अपवाद एव प्रायश्चित्त की भी चर्चा है । द्वितीय उद्देश मे प्रथम बारह सूत्र उपाश्रयविषयक हैं। आगे के तेरह सूत्रो मे आहार, वस्त्र व रजोहरण का Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : जैन आचार विचार किया गया है। तृतीय उद्देश मे उपाश्रय-प्रवेश, चर्म, वस्त्र, समवसरण, अन्तरगृह, शय्या-संस्तारक, सेना आदि से सम्बन्धित विधि-विधान है । चतुर्थ उद्देश मे बताया गया है कि हस्तम, मैथुन एवं रात्रिभोजन अनुद्घातिक अर्थात् गुरु प्रायश्चित्त के योग्य हैं। दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। सार्मिक स्तैन्य, अन्यधार्मिक स्तैन्य एवं मुष्टिप्रहार आदि के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था है। पंडक, क्लीव आदि प्रव्रज्या के अयोग्य है। निग्रंथ-निन्थियों को कालातिक्रान्त एव क्षेत्रातिक्रान्त अगनादि ग्रहण करना अकल्प्य है। उन्हें गगा, यमुना, सरयू, कोशिका एव मही नामक पॉच महानदियाँ महीने में एक बार से अधिक पार नहीं करनी चाहिए। ऐरावती आदि छोटी नदियां महीने मे दो-तीन बार पार की जा सकती है। पचम उद्दश मे ब्रह्मापाय, परिहारकल्प, पुलाकभक्त आदि दस प्रकार के विपयों से सम्बन्धित दोषो व प्रायश्चित्तों का प्रतिपादन किया गया है। षष्ठ उद्देश मे बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो को छ प्रकार के वचन नही वोलने चाहिए: अलीक वचन, होलित वचन, खिसित वचन, परुष वचन, गाई'स्थिक वचन और व्यवशमितोदीरण वचन । कल्पस्थिति-आचारमर्यादा छः प्रकार की बताई गई है : सामायिकसयतकल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीयसंयतकल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निविष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति । व्यवहार वृहत्कल्प और व्यवहार परस्पर पूरक हैं । व्यवहार सूत्र मे दस Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ६५ उद्देश हैं । पहले उद्देश मे निष्कपट और सकपट आलोचक, एकलविहारी साधु आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्तो का विधान है। दूसरे उद्देश मे समान सामाचारी वाले दोपी साधुग्रो से श्चित्त, सदोप रोगी की सेवा, अनवस्थित आदि की पुन. संयम मे स्थापना, गच्छ का त्याग कर पुनः गच्छ मे मिलने वाले की परीक्षा एवं प्रायश्चित्तदान आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे उद्देश मे निम्नोक्त बातो का विचार किया गया है गच्छाधिपति की योग्यता, पदवीधारियो का आचार, तरुण श्रमण का आचार, गच्छ में रहते हुए अथवा गच्छ का त्याग कर अनाचार सेवन करने वाले के लिए प्रायश्चित्त, मृषावादी को पदवी प्रदान करने का निषेध । चतुर्थ उद्देश् में निम्न विषयो पर प्रकाश डाला गया है. आचार्य आदि पदवीधारियो का श्रमण-परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु के समय श्रमणों का कर्तव्य, युवाचार्य की स्थापना इत्यादि। पचम उद्देश साध्वियों के आचार, साधु-साध्वियो के पारस्परिक व्यवहार; वैयावृत्य आदि से सम्बन्धित है। षष्ठ उद्देश निम्नोक्त विषयों से सम्बन्धित है । साधुओ को अपने सम्बन्धियो के घर कैसे जाना चाहिए, आचार्य आदि के क्या अतिशय हैं, शिक्षित एवं अशिक्षित साधु मे क्या विशेपता है, मैथुनेच्छा के लिए क्या प्रायश्चित्त है इत्यादि। सातवें उद्देश मे निम्न वातो पर प्रकाश डाला गया है : संभोगी अर्थात् साथी साधु-साध्वियो का पारस्परिक व्यवहार, साधु-साध्वियो की दीक्षा-प्रव्रज्या, साधु-साध्वियो के आचार की भिन्नता, पदवी प्रदान करने का समुचित समय, राज्यव्यवस्था में परिवर्तन होने की स्थिति मे श्रमणो का कर्तव्य Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : जैन आचार 1 आदि । आठवे उद्देश मे शय्या - सस्तारक आदि उपकरण ग्रहण करने की विधि पर प्रकाश डाला गया है । नवे उद्देश मे मकानमालिक के यहाँ रहे हुए अतिथि आदि के आहार से सम्बन्धित कल्पाकल्प का विचार किया गया है, साथ ही भिक्षु- प्रतिमाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। दसवे उद्देश मे यवमध्यप्रतिमा, वज्रमध्य- प्रतिमा, पांच प्रकार का व्यवहार, बालदीक्षा, विविध सूत्रो के पठन-पाठन की योग्यता आदि का प्रतिपादन किया गया है । निशीथ : निशीथ सूत्र मे चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लघुमास अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन समझना चाहिए। यह सूत्र वीस उद्देशो मे विभक्त है । प्रथम उद्देश मे निम्नलिखित क्रियाओ के लिए गुरुमास का विधान किया गया है : हस्तकर्म करना, अंगादान को काष्ठादि की नली मे डालना अथवा काष्ठादि की नली को अंगादान मे डालना, अंगुली आदि को अगादान मे डालना अथवा अगादान को अगुलियो से पकडना या हिलाना, अगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर कर अंदर का भाग खुला करना, पुष्पादि सूघना, ऊँचे स्थान पर चढने के लिए दूसरो से सोढी आदि रखवाना, दूसरो से पर्दा आदि वनवाना, सूई आदि ठीक करवाना, अपने लिए मॉग कर लाई हुई सूई Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ . ६७ आदि दूसरों को देना, पात्र आदि दूसरो से साफ करवाना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि : द्वितीय उद्देश मे निम्नोक्त क्रियायो के लिए लघुमास का विधान है . दारुदण्ड का पादप्रोछन बनाना, कीचड के रास्ते में पत्थर आदि रखना, पानी निकलने की नाली आदि बनाना, सूई आदि को स्वयमेव ठीक करना, जरासा भी कठोर वचन बोलना, हमेशा एक ही घर का आहार खाना, दानादि लेने के पहले अथवा वाद मे दाता की प्रशसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ की सगति करना, मकानमालिक के घर का आहार-पानी ग्रहण करना आदि । तीसरे, चौथे एवं पाँचवे उद्देश मे भी लघुमाम से सम्बन्धित क्रियाओ का उल्लेख है। छठे उद्देश में मैथुनसम्बन्धी निम्नोक्त क्रियाओ के लिए गुरुचातुर्मासिक (अनुद्घातिक ) प्रायश्चित्त का विधान किया गया है : स्त्री अथवा पुरुप से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुन की कामना से हस्तकर्म करना, स्त्री की योनि में लकड़ी आदि डालना, अचित्त छिद्र आदि में अंगादान प्रविष्ट कर शुक्र पुद्गल निकालना, वस्त्र दूर कर नन्न होना, निर्लज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना-लिखवाना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, उलवाना आदि । सातवे, भाठवे, नवे, दसवे व ग्यारहवे उद्देश में भी मैथुनविपयक एवं अन्य प्रकार की दोपपूर्ण नियाजो के लिए गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। बारहवे से उन्नीसवे उद्देश तक लघुचातुर्मासिक (उद्घातिक.) प्रायश्चित्त से सम्बन्धित क्रियाओ का प्रतिपादन दिया गया है। ये क्रियाएं Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : जैन आचार इस प्रकार हैं : प्रत्याख्यान का बार-बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, भाजन आदि का उपयोग करना, दर्शनीय वस्तुओ को देखने के लिए उत्कंठित रहना, प्रथम प्रहर मे ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, अपने उपकरण अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से उठवाना, हस्तरेखा आदि देख कर फलाफल बताना, मत्र-तत्र सिखाना, विरेचन लेना अथवा औपधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को वदनानमस्कार करना, पात्रादि मोल लेना, मोल लिवाना, मोल लेकर देने वाले से ग्रहण करना, उधार लेना, उधार लिवाना, उधार लेकर देनेवाले से ग्रहण करना, वाटिका आदि मे टट्टी-पेशाब डालना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार मे प्रवेश करना, जुगुप्सित कुलो से आहारादि ग्रहण करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अकारण नाव मे बैठना, स्वामी की अनुमति के बिना नाव में बैठना, इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, भूतमहोत्सव आदि के समय स्वाध्याय करना, अस्वाध्याय के काल मे स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के काल मे स्वाध्याय न करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढाना या उससे पढना, शिथिलाचारियों को पढाना अथवा उनसे पढना आदि । बीसवे उद्देश मे आलोचना एव प्रायश्चित्त करते समय लगने वाले विविध दोषो के लिए विशेष प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इस उद्देश के अन्त मे तीन गाथाएं हैं जिनमे निशीथ सूत्र के प्रणेता आचार्य विसाहगणि-विशाखगणी की प्रशस्ति की गई है। निशीथ सूत्र जैन आचारशास्त्रान्तर्गत निर्ग्रन्थ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ६९ दण्डशास्त्र का अति महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, इसमे कोई सदेह नही । महानिशोथ: उपलब्ध महानिशीथ भापा व विषय की दृष्टि से बहत प्राचीन नही माना जा सकता। इसमे यत्र-तत्र आगमेतर अथो व आचार्यों के नाम भी मिलते हैं। यह छ. अध्ययनो व दो चूलाओ मे विभक्त है। प्रथम अध्ययन मे पापरूपी शल्य की निन्दा एव आलोचना की दृष्टि से अठारह पापस्थानको का प्रतिपादन किया गया है । द्वितीय अध्ययन मे कर्मविपाक का विवेचन किया गया है। तृतीय व चतुर्थ अध्ययनो मे कुशील साधुओ की सगति न करने का उपदेश है। इनमे मत्र-तत्र, नमस्कार-मत्र, उपधान, जिनपूजा आदि का विवेचन है। पचम अध्ययन मे गच्छ के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। षष्ठ अध्ययन मे प्रायश्चित्त के दस व आलोचना के चार भेदो का विवेचन है। इसमे आचार्य भद्र के गच्छ मे पाँच सौ साधु व बारह सौ साध्वियां होने का उल्लेख है। चूलाओ मे सुसढ आदि की कथाएँ हैं । तृतीय अध्ययन में उल्लेख है कि महानिशीथ के दीमक के खाजाने पर हरिभद्रसूरि ने इसका उद्धार एव संशोधन किया तथा आचार्य सिद्धसेन, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणी आदि ने इसे मान्यता प्रदान की--इसका बहुमान किया । जीतकल्पः जीतकल्प सूत्र जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण की कृति है। इसमे निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो के विभिन्न अपराधविषयक प्रायश्चित्तो का Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : जैन आचार जीत-व्यवहार (परम्परा से प्राप्त एव श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत व्यवहार ) के आधार पर प्ररूपण किया गया है। सूत्रकार ने बताया है कि सवर और निर्जरा से मोक्ष होता है तथा तप सवर और निर्जरा का कारण है। प्रायश्चित्त तपो मे प्रधान है अतः प्रायश्चित्त का मोक्षमार्ग की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसके बाद सूत्रकार ने प्रायश्चित्त के निम्नलिखित दस भेदो का व्याख्यान किया है. १ आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३ उभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप,७ छेद, ८ मूल,९ अनवस्थाप्य, १०. पाराचिक । इन दस प्रायश्चित्तो मे से अन्तिम दो अर्थात् अनवस्थाप्य व पाराचिक अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर (प्रथम भद्रबाहु) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका लोप हो गया। मूलाचारः दिगम्वर परम्पराभिमत आचार-ग्रन्थो मे वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे आचाराग भी कहा जाता है। इस पर आचार्य वसुनन्दी ने टीका लिखी है। इसमे साडेवारह सौ गाथाएं है जो बारह अधिकारो मे विभक्त हैं। इन अधिकारो के नाम इस प्रकार है : १. मूलगुण, २. बृहत्प्रत्याख्यान, ३ सक्षेपप्रत्याख्यान, ४ सामाचार, ५ पचाचार, ६ पिण्डशुद्धि, ७ पडावश्यक, ८ द्वादशानुप्रेक्षा, ९ अनगारभावना, १० समयसार, ११ शीलगुण, १२ पर्याप्ति । मूलगुणाधिकार मे श्रमण के निम्नोक्त २८ मूलगुणो का वर्णन है : पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियो का निरोध, छ आवश्यक, लोच, अचेलकत्व, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ७ १ अस्नान, क्षितिशयन, अदतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त । बृहत्प्रत्याख्यान - अधिकार मे सब पापो का त्यागकर मृत्यु के समय दर्शनादि आराधनाओं में स्थिर रहने तथा क्षुधादि परीपहो को जीतने का उपदेश है । सक्षेप प्रत्याख्यान - अधिकार मे व्याघ्रा - दिजन्य आकस्मिक मृत्यु की उपस्थिति मे सव पापो का त्याग कर समभावपूर्वक प्राण छोडने का उपदेश है । सामाचाराधिकार मे इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निपेधिका, आपूच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, सनिमन्त्रणा और उपसम्पत् - इन दस प्रकार के औधिक सामाचारो का वर्णन है । इसमे यह भी बताया गया है कि तरुण श्रमण को तरुण श्रमणी के साथ सभापण नही करना चाहिए; श्रमणो को श्रमणियो के साथ उपाश्रय मे नही ठहरना चाहिए, श्रमणियो को तीन, पाँच अथवा सात की संख्या मे ( पारस्परिक संरक्षण की भावना से ) भिक्षा के लिए जाना चाहिए; आर्याओ को आचार्य से पाँच हाथ दूर, उपाध्याय से छः हाथ दूर एवं साधु से सात हाथ दूर बैठ कर वदना करनी चाहिए | इस प्रकार सामाचाराधिकार मे साधु-साध्वियो के पारस्परिक व्यवहार का भी कुछ विचार किया गया है। पचाचाराधिकार मे दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपआचार व वीर्याचार का भेद-प्रभेदपूर्वक वर्णन किया गया है । पिण्डशुद्धिअधिकार मे निम्नोक्त आठ प्रकार के दोपो से रहित आहारशुद्धि का प्रतिपादन किया गया है. १. उद्गम, २ उत्पादन, ३. एषण, ४. सयोजन, ५ प्रमाण, ६ अगार, ७ धूम, ८ कारण । पडावश्यक - अधिकार मे सर्वप्रथम पचनमस्कार - निरुक्ति की Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : जैन आचार गई है। तदनन्तर निम्नलिखित छः आवश्यको की निरुक्ति है : १ सामायिक, २ चतुर्विशस्तव, ३ वदना, ४. प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग । द्वादशानुप्रेक्षा अधिकार निम्नोक्त बारह भावनाओ से सम्बन्धित है : १ अध्रुव, २. अशरण, ३ एकत्व, ४. अन्यत्व, ५ ससार, ६. लोक, ७. अशुभत्व, ८. आस्रव, ९ सवर, १० निर्जरा, ११ धर्म, १२. वोधि । अनगारभावनाअधिकार मे दस प्रकार की शुद्धियों से युक्त मुनि को मोक्ष की प्राप्ति वतलाई गई है : १. लिंगशुद्धि, २ व्रतशुद्धि, ३. वसतिशुद्धि, ४ विहारशुद्धि, ५ भिक्षाशुद्धि, ६ ज्ञानशुद्धि, ७. उज्झनशुद्धि (परित्यागशुद्धि), ८. वाक्यशुद्धि, ९ तप शुद्धि, १०. ध्यानशुद्धि । समयसाराधिकार मे चारित्र को प्रवचन का सार बताया गया है एवं कहा गया है कि भ्रष्टचारित्र श्रमण सुगति प्राप्त नही कर सकता। इसमे चार प्रकार का लिंगकल्प वताया गया है : अचेलकत्व, लोच, व्युत्सृष्टशरीरता और प्रतिलेखन (पिच्छिका) शीलगुणाधिकार मे शील के अठारह हजार भेदो का निरूपण है। पर्याप्ति-अधिकार मे निम्नोक्त छ पर्याप्तियो का भेद-प्रभेदपूर्वक वर्णन किया गया है . १. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. आनप्राणपर्याप्ति ( श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ), ५ भाषापर्याप्ति, ६ मन.पर्याप्ति । इसमे चतुर्दश गुणस्थानो एवं चतुर्दश मार्गणास्थानो का भी समावेश है। मूलाचार की अनेक गाथाएं दशवैकालिक, दशवैकालिक-नियुक्ति, आवश्यक-नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, भक्तपरिज्ञा, मरणसमाधि आदि श्वेताम्बर ग्रन्थो से मिलती है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ७३ मूलाराधना : मूलाराधना का दूसरा नाम भगवती आराधना है । यह भी दिगम्बर सम्प्रदाय का एक प्राचीन ग्रन्थ है | इसमे नामा - नुरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एव सम्यक्तप रूप चार प्रकार की मूल आराधनाओ का दो हजार से अधिक गाथाओ मे विवेचन है । यह ग्रन्थ चालीस अधिकारो मे विभक्त है । इसकी रचना करने वाले आचार्य हैं शिवार्य अथवा शिवकोटि । मूलाचार की ही भांति इसकी भी अनेक गाथाएँ आवश्यक निर्युक्ति, वृहत्कल्प भाष्य, संस्तारक, भक्तपरिज्ञा, मरणसमाधि आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों से मिलती हैं । इस पर अपराजितसूरि, आशाघर आदि की टीकाऍ है । इस ग्रन्थ मे आचाराग, कल्प ( वृहत्कल्प ), व्यवहार एवं जीतकल्प का उल्लेख है । इसके मुख्य विषयों के नाम इस प्रकार हैं : मरण व उसके सत्रह भेद, आचेलक्य, लोच, देहममत्वत्याग व प्रतिलेखन ( पिच्छिका ), रूप चार निर्ग्रन्थलिंग, विनय व उसके भेद, समाधि अधिकार, अनियत विहार, उपाधित्याग, भावना अधिकार, सल्लेखना व उसके उपाय, वैयावृत्य व तत्सम्बद्ध गुण, आर्यिका संगति का त्याग, दुर्जन-संगति का त्याग, दशविधकल्प, आलोचनाअधिकार, योग्यायोग्य वसति, परिचारको के कर्तव्य, आहारप्रकरण, क्षपणाधिकार, पंचनमस्कार, पचमहाव्रत, कषायविजय, चार ध्यान, छः लेश्याएँ, वारह भावनाएँ, मृतकसंस्कार आदि । मार्गणा - अधिकार मे आचार ( आचारांग ), जीत ( जीतकल्प ) व कल्प ( बृहत्कल्प) का उल्लेख है । सुस्थित अधि ! Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -७४ : जैन आचार कार मे आगम, आज्ञा, श्रुत, धारणा और जीत रूप पांच प्रकार के व्यवहार का वर्णन है । इसमें व्यवहार सूत्र की प्रधानता बताई गई है । भावना-अधिकार मे गजसुकुमार, अन्निकापुत्र, भद्रबाहु, धर्मघोष, चिलातपुत्र आदि अनेक मुनियों की कथाएँ हैं जिन्होने विविध परीषह सहन कर सिद्धि प्राप्त की । रत्नकरण्डक-श्रावकाचार : आचार्य समतभद्रकृत रत्नकरण्डक श्रावकाचार का एक संस्कृत ग्रन्थ है | इसमे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र रूप त्रिरत्नधर्म की आराधना का उपदेश है । ग्रन्थ मे सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाया गया है एवं उसकी महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमे यह प्रतिपादित किया गया है कि सम्यग्दर्शनयुक्त चाडाल को भी देवसदृश समझना चाहिये | मोहरहित अर्थात् सम्यग्दृष्टिसम्पन्न गृहस्थ मोक्षाभिमुख होता है । जबकि मोहयुक्त अर्थात् मिथ्यादृष्टिसम्पन्न मुनि मोक्षविमुख होता है । अतएव मोहयुक्त मुनि से मोहरहित गृहस्थ श्रेष्ठ है । इसके बाद आचार्य ने सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताते हुए तद्विषयगत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एव द्रव्यानुयोग का सामान्य परिचय दिया है । तदनन्तर सम्यक् चारित्र की पात्रता एवं आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए उसे हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन एव परिग्रहात्मक पाप से विरतिरूप बताया है । चारित्र के सकल और विकलरूप दो भेद करके यह उल्लेख किया है कि सकलचारित्र सर्वविरत मुनियो के होता है जबकि Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ ७५ विकलचारित्र देशविरत गृहस्थों के होता है। विकलचारित्र के वारह भेद हैं . पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अहिंसादि पाच अणुव्रतों का अतिचारसहित स्वरूप समझाते हुए यह प्रतिपादन किया है कि ये पॉच अणुव्रत तथा मद्य, मास और मधु का त्याग ये पाठ श्रावक के मूलगुण हैं । ओहसादि अणुव्रतों की ही भाति दिग्त्रतादि तीन गुणवतो एवं देशावकाशिकादि चार शिक्षावतो का अतिचारसहित वर्णन किया है। सल्लेखना की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए ग्रंथकार ने संक्षेप मे समाधिमरण की विधि का निर्देश किया है एव सल्लेखना के पाच अतिचार वताये है। अन्त मे श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओ का स्वरूप समझाया गया है। वसुनन्दि-श्रावकाचार : आचार्य वसुनन्दिकृत श्रावकाचार ५४६ गाथाप्रमाण है। इसमे उपासक के छोटे-बड़े सभी कर्तव्यो का वर्णन किया गया है । प्रारम्भ मे आचार्य ने मगलाचरण करते हुए श्रावकधर्म का प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा की है। तदनन्तर श्रावक की निम्नोक्त ग्यारह प्रतिमाओ को आधार बनाकर श्रावकाचार का प्रतिपादन किया है : १ दर्शन, २ व्रत, ३ सामायिक, ४. पौषध, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रिभुक्तित्याग, ७ ब्रह्मचर्य, ८ आरम्भत्याग, ९ परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग,११. उद्दिष्टत्याग । चूंकि ये प्रतिमास्थान सम्यक्त्व से रहित जीव के नही होते अत. इसके बाद सम्यक्त्व का वर्णन किया गया है एवं Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : जैन आचार बताया गया है कि जो सम्यक्त्वी जीव पाच उदुम्बरों तथा सात व्यसनो के सेवन का त्याग करता है वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन-श्रावक कहलाता है। द्वितीय प्रतिमा मे स्थूल प्राणातिपातविरति आदि बारह व्रतों का पालन किया जाता है। इसी प्रकार आगे की प्रतिमाओ का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ मे आचार्य वसुनन्दि ने श्रावक के छोटे-बड़े सभी कर्तव्यो का प्रतिपादन किया है तथापि निम्नलिखित बातों की ओर उनका ध्यान विशेष रूप से गया है : धूत, मद्य, मास, वेश्या, आखेट, चोरी और परदार-सेवनरूप सात व्यसन व उनसे प्राप्त होने वाले चतुर्गति-सम्बन्धी दुख; दान, दान के योग्य पात्र, दाता, दातव्य पदार्थ व दानफल, पचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधान, नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप छ प्रकार की पूजा, जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप व फल से पूजन करने का फल; जिनप्रतिमा-स्थापन, जिनप्रतिमा निर्माण, जिनाभिषेक एवं जिनभवन-निर्माण का फल । सागार-धर्मामृत: पण्डितप्रवर आशाधर की श्रावकाचार एवं श्रमणाचार दोनो पर कृतियाँ हैं। उनका सागार-धर्मामृत श्रावकाचार से सम्बन्धित है जबकि अनगार-धर्मामृत का सम्बन्ध श्रमणाचार से है। सागार-धर्मामृत आठ अध्यायो मे विभाजित है। प्रथम अध्याय मे सागारधर्म का सामान्य स्वरूप प्रतिपादित करते हुए श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक व साधकरूप तीन प्रकारो का लक्षण Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ७७ बताया गया है। द्वितीय अध्याय पाक्षिकाचार से सम्बन्धित है। तृतीय अध्याय मे नैष्ठिक श्रावक के आचार पर विशेष प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय मे अणुव्रतपचक की समीक्षा की गई है। पंचम अध्याय शीलसप्तक अर्थात् दिग्नतादि तीन गुणवतो एवं देशावकाशिकादि चार शिक्षानतो से सम्बन्धित है। षष्ठ अध्याय मे श्रावक के आहोरात्रिक आचार पर प्रकाश डाला गया है। सप्तम अध्याय मे सामायिकादि नौप्रतिमाओ का स्वरूप बताया गया है। अष्टम अध्याय मे सल्लेखना की विधि बताई गई है। सागार-धर्मामृत मे श्रावकाचार के पूर्ववर्ती समस्त महत्त्वपूर्ण ग्रथो का सार समाविष्ट किया गया है। इसमे श्रावक का कोई भी आवश्यक कर्तव्य छूटने नहीं पाया है । तृतीय अध्याय मे सप्त व्यसनो के अतिचारों का वर्णन करके ग्रथकार ने सागार-धर्मामृत को एक विशेषता प्रदान की है जो पूर्ववर्ती किसी ग्रथ मे नही पाई जाती। अनगार-धर्मामृत : जिस प्रकार पंडितप्रवर आशाधर के सागार-धर्मामृत मे श्रावकाचार के पूर्ववर्ती समस्त ग्रन्थों का सार समाविष्ट है उसी प्रकार उनके अनगार-धर्मामृत मे श्रमणाचार के पूर्ववर्ती सव। महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का निचोड़ है। अनगार-धर्मामृत नौ अध्यायो मे विभक्त है। पहले अध्याय में धर्म के स्वरूप का निरूपण है। दूसरा अध्याय सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन के उत्पादन से सम्बन्धित है। तीसरे अध्याय मे सम्यग्ज्ञान की आराधना पर प्रकाश डाला Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैन ७८ • आचार गया है । चौथा अध्याय सम्यक्चारित्र की आराधना पर प्रकाश डालता है । पाचवे अध्याय मे पिण्डविशुद्धि का विचार किया गया है । इसमे आहारशुद्धि से सम्बन्धित निम्नोक्त दोपो का प्रतिपादन है : सोलह उद्गम-दोप, सोलह उत्पादन दोप, दस शकितादि दोष, अगार, धूम, सयोजन और प्रमाण - ये ४६ पिण्डदोप; पूय, अस्र, पल, अस्थि, अजिन, नख, कच, मृतविकलत्रिक, कद, बीज, मूल, फल, कण और कुण्ड - ये १४ अन्नगत मल, काकादि ३२ अन्तराय । छठे अध्याय में महोद्योग - मार्ग का वर्णन है । इसमे दशलक्षण धर्म, द्वादशविध अनुप्रेक्षा व द्वाविंशति परीषहजय का प्रतिपादन किया गया है। सातवे अध्याय मे सम्यक् तप की आराधना का उपदेश है । ग्राठवा अध्याय षडावश्यक से सम्बन्धित है । नवे अध्याय मे नित्य नैमित्तिक क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है । प्रस्तुत ग्रन्थ मे लगभग एक हजार श्लोक है । सागार-धर्मामृत व अनगार-धर्मामृत दोनो पर स्वोपज्ञ टीकाएँ हैं । - श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओ के आचार- विपयक ग्रन्थो के उपर्युक्त परिचय से स्पष्ट है कि इन दोनो परम्पराओं के आचारमूलक सिद्धान्तो व नियमो मे कितना साम्य है । मूलत. इनमे कोई भेद दृष्टिगोचर नही होता । यहाँ तक कि दिगम्बर परम्पराभिमत मूलाचार जो कि इस परम्परा का आचाराग है, श्रमण श्रमणियो के पारस्परिक व्यवहार का भी यथोचित विधान करता है । इससे स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा मे साध्वी सस्था भी उसी प्रकार मान्य एव आदरणीय रही है Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार ग्रन्थ : ७९ जिस प्रकार कि साधुसंस्था। यदि ऐसा न होता तो मूलाचार के सामाचाराधिकार मे श्रमणियो के कल्प का प्रसंग उपस्थित न होता। शिवार्यकृत मूलाराधना मे भी संयतियो के लिये आर्यिका-सगति के त्याग का उपदेश है। इससे भी साध्वी-संस्था की मान्यता सिद्ध होती है। चतविध संघ की सिद्धि के लिये ऐसा होना अनिवार्य भी है। Page #94 --------------------------------------------------------------------------  Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ˇˇˇˇˇww w श्रा व का चा र अणुव्रत गुणव्रत शिक्षाव्रत सल्लेखना अथवा सथारा प्रतिमाएँ प्रतिक्रमण Page #96 --------------------------------------------------------------------------  Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार _व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक, अणुन्नती, देशविरत, सागार आदि नामो से सम्बोधित किया जाता है। गुणस्थान की दृष्टि से वह पंचम गुणस्थानवर्ती माना जाता है। चूंकि वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों अर्थात् श्रमणो से निर्ग्रन्थ-प्रवचन का श्रवण करता है अत. उसे श्राद्ध अथवा श्रावक कहा जाता है। श्रमणवर्ग की उपासना करने के कारण वह श्रमणोपासक अथवा उपासक कहलाता है । अणुव्रतरूप एकदेशीय अर्थात् अपूर्ण संयम अथवा विरति धारण करने के कारण उसे अणुवती, देशविरत, देशसंयमी अथवा देशसयती कहा जाता है। चूंकि वह आगार अर्थात् घर मे रहता है-उसने घरबार का त्याग नही किया है अतएव उसे सागार, आगारी, गृहस्थ, गृही आदि नामो से पुकारा जाता है। श्रावकाचार के ग्रथो मे उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन प्रकार से किया गया है. १ वारह व्रतो के आधार पर, २. ग्यारह प्रतिमाओ के आधार पर, ३. पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर । उपासकदशाग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डक-श्रावकाचार आदि मे सल्लेखनासहित वारह व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र-प्राभृत मे, स्वामी कातिकेय ने अनुप्रेक्षा मे एव आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि-श्रावकाचार Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : जैन आचार में ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। पडित आशाधर ने सागार-धर्मामृत मे पक्ष, निष्ठा एवं साधन को आधार बनाकर श्रावक-धर्म का विवेचन किया है। इस पद्धति के बीज आचार्य जिनसेन के आदिपुराण (पर्व ३९) मे पाये जाते हैं। इसमे सावध क्रिया अर्थात् हिंसा की शुद्धि के तीन प्रकार बताये गये हैं : पक्ष, चर्या और साधन । निग्रंथ देव, निग्रन्थ गुरु तथा निग्रंन्थ धर्म को ही मानना पक्ष है । ऐसा पक्ष रखने वाले गृहस्थ को पाक्षिक श्रावक कहते हैं। ऐसे श्रावक की आत्मा मे मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ्यवृत्ति होती है। जीवहिंसा न करते हुए न्यायपूर्वक आजीविका का उपार्जन करना तथा श्रावक के बारह व्रतो एवं ग्यारह प्रतिमाओ का पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस प्रकार की चर्या का आचरण करने वाले गृहस्थ को नैष्ठिक श्रावक कहते है। जीवन के अन्त मे आहारादि का सर्वथा त्याग करना साधन है। इस प्रकार के साधन को अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्मशोधन करने वाला साधक श्रावक कहलाता है। उपासक-धर्म का प्रतिपादन करने वाले उक्त तीन प्रकारो मे तत्त्वतः कोई भेद नही है। अहिंसादि बारह व्रत एवं सल्लेखना श्रावक-धर्म के सम्यक् प्रतिपालन के लिए सामान्यतया आवश्यक हैं। बारह व्रतधारी श्रावक विशेष आत्मसाधना के लिए उपयुक्त समय पर ग्यारह प्रतिमाओ को क्रमश. धारण करता है। पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन द्वादश व्रतधारी श्रावक की आचार-मर्यादा के ही प्रकारान्तर से किये गये तीन भेद हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ८५ श्रावक के बारह व्रतों में से प्रथम पाँच अणुव्रत, वाद के तीन गुणन्नत एवं अन्तिम चार शिक्षानत कहलाते हैं । यद्यपि श्वेताम्वर व दिगम्बर ग्रंथो मे गुणवतो एवं गिक्षानतो के नामो व गणनाक्रम मे परस्पर एवं आन्तरिक दोनो प्रकार के मतभेद है तथापि यह कहा जा सकता है कि दिशापरिमाण, भोगोपभोगपरिमाण एव मनर्थदण्डविरमण रूप गुणनत तथा सामायिक, देशावकाशिक, पौपघोपवास एवं अतिथिसंविभाग रूप शिक्षाक्त साधारणतया अभीष्ट एवं उपयुक्त हैं । उपासकदगांग मे गुणवतो एवं शिक्षाव्रतों का सयुक्त नाम शिक्षावत ही दिया है तथा पच-अणुव्रतो व सप्त-शिक्षावतो को द्वादश प्रकार के गृहस्थ-धर्म के अग कहा है। अणुव्रत: श्रमण के अहिंसादि पाँच महाव्रतो की अपेक्षा लघु होने के कारण श्रावक के प्रथम पाँच व्रत अणुव्रत अर्थात् लघुव्रत कहलाते हैं। जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण के लिए पाच महाव्रत प्राणभूत हैं उसी प्रकार श्रावक के लिए पांच अणुव्रत जीवनरूप हैं । जैसे पांच महाव्रतों के अभाव मे श्रामण्य निर्जीव होता है वैसे ही पॉच अणुव्रतो के अभाव में श्रावक-धर्म निष्प्राण होता है। यही कारण है कि अणुव्रतो को श्रावक के मूलगुण कहा गया है। इस दृष्टि से दिशापरिमाणादि शेष सात व्रतो को श्रावक के उत्तरगुण कह सकते हैं। इस प्रकार जैसे मुनि अर्थात् श्रमण के गुण मूल एव उत्तर गुणरूप दो विभागो मे विभक्त हैं Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : जैन आचार वैसे ही श्रमणोपासक श्रावक के गुण भी मूलगुण एवं उत्तरगुण के रूप में विभाजित हैं । मूलगुण श्रमण-धर्म अथवा श्रावक-धर्म के आधारभूत स्तम्भ है । उत्तरगुण मूलगुणो की पुष्टि एव दृढता के लिए हैं। श्रावक के मूलगुणरूप पाँच अणुव्रतो के नाम इस . प्रकार है . १. स्थूल प्राणातिपात-विरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण, ४ स्वदार-सतोष, ५. इच्छा-परिमाण । १. स्थूल प्राणातिपात-विरसण-सर्वविरत अर्थात् महाव्रती मुनि प्राणातिपात अर्थात् हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है (प्रमादजन्य अथवा कषायजन्य हिंसा का सर्वथा त्याग करता है) जव कि देशविरत अर्थात् अणुव्रती श्रावक केवल स्थूल हिंसा का त्याग करता है क्योकि गृहस्थ होने के नाते उसे अनेक प्रकार से सूक्ष्म हिंसा तो करनी ही पड़ती है। इसीलिए श्रावक का प्राणातिपातविरमण अर्थात् हिंसा-विरति स्थूल है-दीर्घ है। श्रमण की सर्व हिंसा-विरति की तुलना मे श्रावक की स्थूल हिंसा-विरति देशविरति अर्थात् आशिक विरति कही जाती है। इसके द्वारा व्यक्ति आशिक अहिंसा की साधना करता है-अहिंसावत का आंशिक रूप से पालन करता है। श्रमण मन, वचन अथवा काया से किसी भी प्राणी की-चाहे वह त्रस हो अथवा स्थावर-न तो हिंसा करता है, न किसी से करवाता है और न करने वाले का समर्थन ही करता है। इस प्रकार श्रमण हिंसा का तीन योग (मन, वचन व काया) और तीन करण (करना, करवाना व अनुमोदन करना) पूर्वक त्याग करता है। उसका यह त्याग Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ८७ सर्वविरति कहलाता है। श्रावक इस प्रकार हिंसा का त्याग नही करता। वह केवल त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय) प्राणियों की हिंसा से विरत होता है। उसकी यह विरति तीन योग व तीन करणपूर्वक नही होती अपितु तीन योग व दो करणपूर्वक ही होती है। वह निरपराध प्राणियो को मन, वचन अथवा काया से न स्वय मारता है और न दूसरो से मरवाता है। परिस्थितिविशेष मे स्थूल हिंसा का समर्थन करने की वह छूट रखता है। यह श्रावक की देशविरति अथवा उपासक का स्थूल प्राणातिपात-विरमण व्रत है। श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति करने के लिए स्वतन्त्र होता है जिसमे स्थूल हिंसा की संभावना न हो। इस प्रकार की प्रवृत्ति वह दूसरो से भी करवा सकता है । ऐसा करने मे उसके व्रतभंग का कोई प्रश्न उपस्थित नहीं होता। वह कोई भी कार्य करता है अथवा करवाता है, इसकी पूरी सावधानी रखता है कि किसी को कष्ट न हो, किसी को चोट न पहुंचे, किसी को हिंसा न हो, किसी के · प्रति अन्याय न हो। विवेकपूर्वक पूर्ण सावधानी रखते हुए कार्य करने पर भी किसी की हिंसा हो जाय तो श्रावक के अहिंसा-व्रत का भग नही होता। कर्तव्य-अकर्तव्य एवं न्यायअन्याय का विवेक न रखना हिंसा को प्रोत्साहन देना है। इससे अहिंसा-व्रत की रक्षा नही हो सकती । अहिंसा की रक्षा के लिए विवेकशीलता-सत्यासत्यविचारणा अनिवार्य है। विचार की सूक्ष्मता, गभीरता एव यथार्थता तथा दृष्टि की विशालता, ममूढता एवं निष्पक्षता अहिंसा की सुरक्षा के सुदृढ साधन हैं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : जैन आचार अमोघ अस्त्र हैं। इनके अभाव मे अहिंसा निष्प्राण होकर जडवत् . हो जाती है-मर जाती है। अहिंसा-व्रत का पालन करने वाला श्रावक जितना किसी को मारने मे भय का अनुभव करता है उतना मरने मे नहो । वह अपनी व्रत-रक्षा के लिए सदैव प्राणोत्सर्ग करने को तैयार रहता है। वह न स्वयं भयभीत होता है; न किसी को भयभीत करता है। हिंसा व अन्याय के सामने सिर झुकाना उसका काम नही । वह वीरता व विवेकपूर्वक हिंसा व अन्याय का प्रतीकार करता है-सामना करता है। निर्भयता अर्थात् वीरता अहिंसादि व्रतो का आधार-स्तम्भ है। कायर अर्थात् डरपोक व्यक्ति न तो अपनी रक्षा कर सकता है, न अपने ब्रतों की । उसकी कायरतापूर्ण प्रवृत्तियो से हिंसा, अन्याय एवं अनाचार को ही प्रोत्साहन मिलता है। जिसे अपने शरीर का अत्यधिक मोह होता है वह न श्रावक के अहिसादि अणुव्रतो का यथार्थ पालन कर सकता है, न श्रमण के अहिंसादि महानतो को सम्यक्त्तया निभा सकता है। वह हमेशा दूसरो से डरता रहता है। उसके द्वारा न किसी का हिंसक प्रतीकार सभव होता है, न किसी का अहिंसक प्रतीकार । वह दब्बू बन कर न्याय-अन्याय सव कुछ चुपचाप सह लेता है। ऐसा व्यक्ति अपने व्रतो का पालन कैसे कर सकता है, अपने कर्तव्य-धर्म को कैसे निभा सकता है ? सच्चा श्रावक एव सच्चा श्रमण वही है जो कष्टो का वीरतापूर्वक सामना करता है, उनसे भयभीत होकर अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश नहीं करता। किसी कप्ट का किस प्रकार सामना करना-- Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ८९ यह तद्विषयक परिस्थिति एवं सामना करने वाले की मानसिक भूमिका व व्रतमर्यादा पर निर्भर है। इसके विपय मे किसी प्रकार का ऐकान्तिक विधान अथवा आग्रह नही है । सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी कभी-कभी प्रमादवश अथवा अज्ञानवश दोप लगने की संभावना रहती है । इस प्रकार के दोपो को अतिचार कहा जाता है । स्थूल अहिसा अथवा स्थूल प्राणातिपात-विरमण के पाच मुख्य अतिचार हैं : १ वन्ध, २. वध, ३. छविच्छेद, ४. अतिभार ५ अन्नपाननिरोध। ये अथवा इसी प्रकार के अन्य अतिचार श्रावक के जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नही। बन्ध का अर्थ है किसी त्रस प्राणी को कठिन वधन से वांधना अथवा उसे अपने इष्ट स्थान पर जाने से रोकना । अपने अधीनस्थ व्यक्तियो को निश्चित समय से अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट समय के उपरान्त कार्य लेना, उन्हें अपने इष्ट स्थान पर जाने मे अतराय पहुँचाना आदि वध के ही अन्तर्गत हैं। किसी भी बस प्राणी को मारना वध है। पीटना भी वध का ही एक रूप है। अपने आश्रित व्यक्तियो को अथवा अन्य किसी को निर्दयतापूर्वक या क्रोधवश मारना-पीटना, गाय, भैस, घोड़ा, बैल आदि को लकडी, चाबुक, पत्थर आदि से मारना, किसी पर अनावश्यक अथवा अनुचित आर्थिक भार डालना, किसी की लाचारी का अनुचित लाभ उठाना, किसी का अनैतिक ढग से शोपण कर अपनी स्वार्थपूर्ति करना आदि वध मे समाविष्ट है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्राणी की हत्या करना, किसी को मारना-पीटना, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : जैन आचार संताप पहुंचाना, तडफाना, चूसना आदि वध के हो विविध रूप हैं । अनीतिपूर्वक किसी की आजीविका छीनना अथवा नष्ट करना भी वध का ही एक रूप है । संक्षेप में स्वार्थवश किसी निरपराधी पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रहार करना वध है। इस अतिचार से बचने का यही उपाय है कि जिस प्रवृत्ति मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से त्रस प्राणियो की हिंसा होती हो-वध होता हो उस प्रवृत्ति से निलिप्त रहा जाय-अलग रहा जाय । जिस व्यक्ति मे स्वार्थभावना जितनी कम होगी वह वध के अतिचार से उतना ही दूर रहेगा । नि स्वार्थ एवं परोपकारमूलक प्रवत्ति स्वाभाविकतया हिंसादोष से दूर रहती है। जिसके हृदय मे सर्वहित की भावना विद्यमान होगी वह किसी का वध क्यो करेगा ? जिसे किसी के प्रति राग अथवा द्वेष नही होगा वह किसी की हिसा क्यों करेगा? परोपकारी के हृदय मे सबकी रक्षा करने की भावना होती है, किसी का वध करने की नही । वह जो कुछ भी प्रवृत्ति करता है। सार्वजनिक हित के लिए करता है, किसी के अहित के लिए नही। इसीलिए उसकी प्रवृत्ति शुद्ध एवं अहिंसक मानी जाती है। महात्मा गाधी ने इस प्रकार की अहिंसक प्रवृत्ति के अनेक प्रयोग किये जो एक आदर्श श्रावक के लिए अनुकरणीय हैं-आचरणीय हैं । महान् एवं पवित्र प्रवृत्ति मे यदि अल्प हिंसा होती भी हो तो वह नगण्य है। उससे प्रवृत्ति की पवित्रता एवं महानता अल्प नही होती । जिस प्रवृत्ति का उद्देश्य महान् एवं पवित्र हो, जिसके पीछे रही हुई भावना प्रशस्त एव उदात्त हो, जिसका संचालन विवेक एव सतर्कता से हो वह अल्पारंभ अर्थात् अल्प हिंसा के कारण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार: ९१ दूषित नही हो जाती । इस प्रकार की प्रवृत्ति करने वाला श्रावक वधदोष का भागी नही होता। स्थूल अहिंसा का तीसरा अतिचार छविच्छेद है। किसी भी प्राणी के अगोपांग काटना छविच्छेद कहलाता है। चूंकि छविच्छेद से प्राणी को पीडा होती है अत वह त्याज्य है । छविच्छेद की तरह वृत्तिच्छेद भी दोषयुक्त है। किसी की वृत्ति अर्थात् आजीविका का सर्वथा छेद करना याने रोजी छीन लेना तो वधरूप होने के कारण दोषयुक्त है ही, उचित पारिश्रमिक मे न्यूनता करना, कम वेतन देना, कम मजदूरी देना, अनुचित रूप से वेतन या मजदूरी काट लेना, नौकर या मजदूर कोछुट्टी आदि की पूरी सुविधाएं न देना आदि क्रियाएं भी छविच्छेद की ही भाँति दोषयुक्त हैं। चौथा अतिचार अतिभार है । बैल, ऊंट, अश्व आदि पशुओ पर अथवा मजदूर, नौकर आदि मनुष्यो पर उनकी शक्ति के अतिरिक्त वोझ लादना अतिभार कहलाता है। शक्ति एवं समय होने पर भी अपना काम खुद न कर दूसरो से करवाना अथवा किसी से शक्ति से अधिक काम लेना भी अतिभार ही है। पाचवा अतिचार अन्नपाननिरोध है। किसी के खान-पान मे रुकावट डालने वाला इस अतिचार का भागी होता है। नौकर आदि को समय पर खाना न देना, पूरा खाना न देना, ठीक खाना न देना, अपने पास सग्रह होने पर भी आवश्यकता के समय किसी की सहायता न करना, अपने अधीनस्थ पशुओ एवं मनुष्यो को पर्याप्त खाना आदि न देना अन्नपाननिरोध नही है तो क्या है ? अहिंसा की आराधना करने वाले श्रावक को इन सब अतिचारो से दूर रहना चाहिए-इस प्रकार के अनेक दोपो से Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ • जैन आचार बचना चाहिए | २ स्थूल मृपावाद - विरमण - जिस प्रकार श्रमणोपासक के लिए स्थूल प्राणातिपात अर्थात् हिंसा से वचना आवश्यक है उसी प्रकार उसके लिए स्थूल मृपावाद अर्थात् झूठ से बचना भी जरूरी है । जिस प्रकार हिंसा न करना प्राणातिपात विरमण व्रत का निपेधात्मक पक्ष है तथा रक्षा, अनुकम्पा, परोपकार आदि करना अहिंसा का विधेयात्मक रूप है उसी प्रकार असत्य वचन न बोलना मृपावाद - विरमण व्रत का निपेधात्मक पक्ष है तथा सत्य वचन बोलना इस व्रत का विधेयात्मक रूप है । इससे व्यक्ति को सत्यनिष्ठ होने की शिक्षा मिलती है । उसके जीवन मे सचाई व ईमानदारी का विकास होता है । अहिंसा की आराधना के लिए सत्य की आराधना अनिवार्य है । झूठा व्यक्ति सही अर्थ मे अहिंसक नही हो सकता । सच्चा अहिंसक कभी असत्य आचरण नही कर सकता । सत्य और अहिंसा का इतना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक के अभाव मे दूसरे की आराधना अशक्य है । ये दोनो परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित है | अहिंसा यथार्थता को सुरूप प्रदान करती है जबकि यथार्थता अहिंसा की सुरक्षा करती है । अहिंसा के विना सत्य नग्न अथवा कुरूप होता है जवकी सत्यरहित अहिंसा मरणोन्मुख अथवा अरक्षित होती है । जोवित रहते हुए मनुष्य हिंसा का पूर्ण त्याग नही कर सकता । खान-पान, हलन चलन, श्वासोच्छ्वास आदि मे होने वाली सूक्ष्म हिंसा को मानव दूर नही कर सकता । असत्य के लिए ऐसा नही कहा जा सकता । मनुष्य असत्य को पूर्णरूप से Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ९३ छोड सकता है। , गृहस्थ के लिए साधारणतया मृषावाद का सर्वथा त्याग अर्थात् सूक्ष्म असत्य का परित्याग शक्य नही होता। हाँ, वह स्थूल मृषावाद का त्याग अवश्य कर सकता है। इसीलिए श्रावक के लिए स्थूल प्राणातिपात-विरमण के विधान की भांति स्थूल मृषावाद-विरमण का भी विधान किया गया है। स्थूल झूठ का त्याग भो साधारणतया स्थूल हिंसा के त्याग के ही समान दो करण व तीन योगपूर्वक होता है । स्थूल झूठ किसे समझना चाहिए ? जिस झूठ से समाज में प्रतिष्ठा न रहे, साथियों मे प्रामाणिकता न मानी जाय, लोगो मे अप्रतीति हो, राजदण्ड का भागी होना पडे उसे स्थूल झूठ समझना चाहिए। इस प्रकार के झूठ से मनुष्य का चतुर्मुखी पतन होता है। अनेक कारणो से मनुष्य स्थूल झूठ का प्रयोग करता है। उदाहरण के लिए अपने पुत्र-पुत्रियो के विवाह के निमित्त सामने वाले पक्ष के सम्मुख झूठी प्रशसा करना-करवाना, पशु-पक्षियो के क्रय-विक्रय के निमित्त मिथ्या प्रशसा का आश्रय लेना, भूमि के सम्बन्ध मे झूठ बोलना-वुलवाना, अन्य वस्तुओं के विषय मे झूठ का प्रयोग करना, नौकरी आदि के लिए असत्य का आश्रय लेना, किसी की धरोहर आदि "दवाकर विश्वासघात करना, झूठी गवाही देना-दिलाना, रिश्वत खाना-खिलाना, झूठे को सच्चा या सच्चे को झूठा सिद्ध करने का प्रयत्न करना आदि । श्रावक के इस प्रकार का झूठ बोलने-बुलवाने का मन, वचन व तन से त्याग होता है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ : जैन आचार सावधानीपूर्वक स्थूल मृषावाद-विरमण व्रत का पालन करते हए भी एतद्विषयक जिन अतिचारो-दोषो की संभावना रहती है वे प्रधानतया पांच प्रकार के हैं : १. सहसा-अभ्याख्यान, २. रहस्य-अभ्याख्यान, ३.स्वदार अथवा स्वपति-मंत्रभेद, ४. मृपाउपदेश, ५. कूट-लेखकरण। बिना सोचे-समझे, विना देखे-सुने किसी के विषय मे कुछ धारणा बना लेना अथवा निर्णय दे देना, किसी पर मिथ्या कलक लगाना, किसी के प्रति लोगों मे गलत धारणा पैदा करना, सज्जन को दुर्जन, गुणी को अवगुणी, ज्ञानी को अज्ञानी कहना अदि सहसा-अभ्याख्यान अतिचार के अन्तर्गत है। किसी की गुह्य बात किसी के सामने प्रकट कर उसके साथ विश्वासघात करना रहस्य-अभ्याख्यान है। श्रावक को किसी की गोपनीय बात अन्य के सामने प्रकट कर किसी को धोखा नहीं देना चाहिए । पति-पत्नी का एक दूसरे की गुप्त बातो को किसी अन्य के सामने प्रकट करना स्वदार अथवा स्वपति-मत्रभेद है। इससे कुटुम्ब मे क्लेश पैदा होता है तथा बाहर बदनामी होती है। किसी को सच झूठ समझा कर कुमार्ग पर लेजाना मृपोपदेश है । झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना अथवा झूठा अगूठा लगाना, झूठे बही-खाते तैयार करना, झूठे सिक्के बनाना अथवा चलाना आदि कूट-लेखकरण अतिचार के अन्तर्गत हैं। श्रावक को इन सबसे अथवा इस प्रकार के अन्य अतिचारो से बचना चाहिए । उसे सदा सावधान रह कर सत्य की आराधना करनी चाहिए। सावधानीपूर्वक व्रत की आराधना करने वाला व्यक्ति सहसा दोष का भागी नही बनता। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ९५ ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण-अहिंसा व सत्य के सम्यक् पालन के लिए अचौर्य अर्थात् अदत्तादान-विरमण आवश्यक है। श्रावक के लिए जिस प्रकार का अचौर्य अथवा अस्तेय आवश्यक माना गया है उसे स्थूल अदत्तादान-विरमण कहते है। साधु के लिए तो विना अनुमति के दतशोधनार्थ तृण उठाना भी वर्जित है अर्थात् वह बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नही करता । श्रावक के लिए ऐसा आवश्यक नहीं माना गया है। वह सूक्ष्म अदत्तादान का त्याग न भी करे तथापि उसे स्थूल अदत्तादान का त्याग तो करना ही पड़ता है । अदत्तादान का शब्दार्थ है बिना दो हुई वस्तु ( अदत्त ) का ग्रहण ( आदान)। इसे सामान्य भाषा मे चोरी कहते हैं। श्रावक के लिए ऐसी चोरी का त्याग अनिवार्य है जिससे राजदण्ड भोगना पड़े, सामाज मे अविश्वास उत्पन्न हो, प्रामाणिकता नष्ट हो, प्रतिष्ठा को धक्का लगे । श्रावक का इस प्रकार की चोरी का त्याग ही जैन आचार-शास्त्र मे स्थूल अदत्तादान-विरमण व्रत के नाम से प्रसिद्ध है। स्थूल चोरी के कुछ उदाहरण ये है . किसी के घर आदि मे सेव लगाना, किसी की गाँठ काटना, किसी का ताला तोडना, किसी को लूटना, किसी की चीज विना पूछे उठा कर रख लेना, किसी का गड़ा हुआ धन निकाल लेना, डाका डालना, ठगना, मिली हई वस्तु का पता लगाने की कोशिश न करना अथवा पता लगने पर भी उसे न लौटाना, चौर्य बुद्धि से किसी की वस्तु उठा लेना अथवा अपने पास रख लेना आदि । आवश्यकता से अधिक सग्रह करना अथवा किसी वस्तु का अनुचित उपयोग करना भी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ : जैन आचार एक प्रकार को चोरी है जिसका सम्बन्ध परिग्रह-वृत्ति तथा नविवेक से है। श्रावक चोरी का त्याग भी साधारणतया दो करण व तीन योगपूर्वक ही करता है। अदत्तादान-विरमण व्रत के मुख्य पांच अतिचार हैं : १ स्तेनाहृत, २. तस्करप्रयोग, ३. राज्यादिविरुद्ध कर्म, ४. कूटतोल-कूटमान, ५ तत्प्रतिरूपक व्यवहार । अनानवश यह समझ कर कि चोरी करने व कराने में पाप है किन्तु चुराई हुई वस्तु लेने में क्या हर्ज है, चोरी का माल लेना स्तेनाहत अतिचार है। चोरी की वस्तु सस्ते भाव में मिला करती है जिससे लेने वाला लोभवन मौचित्यानौचित्य का विचार नही करता । श्रावक लो इस अतिचार से बचना चाहिए । चोरी का माल खरीदने से चोरी __ को प्रोत्साहन मिलता है । श्रावक को इस प्रकार का माल खरीद कर चोरी को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए-चोरी का निमित्त नहीं बनना चाहिए-चोरी नहीं करवानी चाहिए । चोरी करने की प्रेरणा देना, चोर को सहायता देना, तस्कर को शरण देना, शस्त्रास्त्र आदि द्वारा डाकुओ की मदद करना, लुटेरों का पक्ष लेना आदि क्रियाएं तस्करप्रयोग के अन्तर्गत हैं । प्रजा के हित के लिए बने हुए राज्य बादि के नियमो को भंग करना राज्यादिविरुद्ध कर्म है। इस अतिचार के अन्तर्गत निम्नोक्त कार्यों का समावेश होता है : अवैधानिक व्यापार करना, कर चुरांना, विना अनुमति के परराज्य की सीमा में प्रवेश करना, निषिद्ध वस्तुएं एक स्थान से दूसरे स्थान पर अथवा एक देश से दूसरे देश मे लाना-लेजाना, राज्यहित के विरुद्ध गुप्त कार्य करना, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ९७ स्वार्थवश राज्य के किसी भी कानून का भग करना, समाज के किसी भी हितकर नियम की अवहेलना करना आदि । लेन-देन न्यूनाधिकता का प्रयोग करना कूटतोल- कूटमान कहलाता है । इससे व्यक्ति की अप्रामाणिकता प्रकट होती है । प्रामाणिक व्यक्ति किसी के साथ विश्वासघात नही करता । वह किसी के अज्ञान अथवा विश्वास का अनुचित लाभ नही उठाता । लेन-देन मे धूर्तता का प्रयोग कर कम-ज्यादा तोलना, नापना, गिनना सामनेवाले के साथ विश्वासघात करना है । वस्तुओ मे मिलावट करना तत्प्रतिरूपक व्यवहार है । बहुमूल्य वस्तु मे अल्पमूल्य वस्तु मिलाना, शुद्ध वस्तु मे अशुद्ध वस्तु मिलाना, सुपथ्य वस्तु मे कुपथ्य वस्तु मिलाना और इस प्रकार अनुचित लाभ उठाना श्रावक के लिए वर्जित है । ४. स्वदार सन्तोष - अपनी भार्या के सिवाय शेष समस्त स्त्रियो के साथ मैथुनसेवन का मन, वचन व कायापूर्वक त्याग करना स्वदार-संतोप व्रत कहलाता है । जिस प्रकार श्रावक के लिए स्वदार - संतोष का विधान है उसी प्रकार श्राविका के लिए स्वपति - सतोष का नियम समझना चाहिए | अपने भर्ता के अतिरिक्त अन्य समस्त पुरुषो के साथ मन, वचन और काया - पूर्वक मैथुनसेवन का त्याग करना स्वपति - सतोष कहलाता है | श्रावक के लिए स्वदार- सतोष एव श्राविका के लिए स्वपति - सतोष अनिवार्य है | श्रमण श्रमणी के लिए मैथुन का सर्वथा त्याग विहित है जबकि श्रावक-श्राविका के लिए मैथुन की मर्यादा निश्चित की गई है । स्थूल प्राणातिपात विरमण ७ - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ : जैन आचार आदि की समकक्ष भाषा में इसे स्थूल मैथुन-विरमण कह सकते हैं। इसका पालन दो करण व तीन योगपूर्वक आवश्यक न माना जाकर साधारणतया एक करण व तीन योगपूर्वक ही जरूरी माना गया है। किसी भी व्रत के सम्यक पालन के.लिए शील अर्थात् सदाचार आवश्यक है । श्रावक पूर्ण ब्रह्मचारी नही होता अपितु आंशिक ब्रह्मचारी होता है। उसकी शीलमर्यादा स्वदारसंतोष तक होती है । स्वदारसंतोप का अर्थ है समाजसम्मत अथवा कानूनसम्मत विवाहपद्धति द्वारा पत्तीरूप से गृहीत स्त्री के साथ मैथुन-सेवन की मर्यादा। इस परिभापा से स्पष्ट है कि यह व्रत विवाहित व्यक्ति के लिए है न कि अविवाहित व्यक्ति के लिए। किसी का किसी कारण से चाहते हुए तथा विवाहयोग्य होते हुए भी विवाह अथवा पुनर्विवाह न हुआ हो तथा होने की सभावना भी न हो किन्तु वह मैथुन का सर्वथा त्याग न कर सकता हो तो उसके लिए स्थूल मैथुन-विरमण व्रत की क्या व्यवस्था है ? दूसरे शब्दों मे जो व्यक्ति स्वदारसंतोष की परिभाषा में नही आता उसके लिए चतुर्थ अणुव्रत का क्या रूप है ? इसका कोई स्पष्ट समाधान अथवा विधान शास्त्रों मे दृष्टिगोचर नहीं होता। स्थूल मैथुन-विरमण के पीछे जो विधेयात्मक भावना रही हुई है वह है मर्यादित मैथुन-सेवन की। इस दृष्टि से यदि ऐसा अपवादरूप व्यक्ति विवशता के कारण सार्वजनिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए किसी विवाहेतर पद्धति से एक निश्चित सीमा बाधकर अपनी मैथुनेच्छा पूरी करता है तो क्या उसके स्थूल मैथुन-विरमण व्रत का भंग होता है ? Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ९९ क्या वह चतुर्थ अणुव्रतधारी नही हो सकता ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। जव श्रावक मैथुनसेवन की स्वदारसतोपरूप मर्यादा निश्चित करता है तो उसमे परदारत्याग, वेश्यात्याग, कुमारिकात्याग आदि स्वत. आ जाता है। ऐसा होते हुए भी कई बार विषयवृत्ति की अधीनता के कारण वह जाने-अजाने ऐसी-ऐसी गलत गलियां निकालता है जिनसे व्रतभग भी न हो और मैथुनेच्छा भी पूरी हो जाय । यही गलियां स्थूल मैथुन-विरमण व्रत के अतिचार है । ये दोपरूप होने के कारण त्याज्य हैं । इनका शास्त्रकारो ने अन्य व्रतों के अतिचारो की ही भांति निम्नोक्त पांच रूपो मे प्रतिपादन किया है : इत्वरिक-परिगृहीता-गमन, अपरिगृहीता-गमन, अनंगक्रीडा, परविवाहकरण और कामभोग-तीनाभिलाषा। जो स्त्रियां परदारकोटि मे नही आती ऐसी स्त्रियों को धन आदि का लालच देकर कुछ समय तक अपनी बना लेना अर्थात् स्वदारकोटि मे ले आना तथा उनके साथ कामभोग का सेवन करना इत्वरिक-परिगृहीता-गमन कहलाता है। इत्वर अर्थात् अल्पकाल, परिग्रहण अर्थात् स्वीकार, गमन अर्थात् कामभोग-सेवन । इत्वरिक-परिगृहीतानमन अर्थात् अल्पकाल के लिए स्वीकार की हुई स्त्री के साथ कामभोग का सेवन करना-कुछ समय के लिए रखी हई किसी महिला के साथ मैथुनसेवन करना। जो स्त्री अपने लिए अपरिगृहीत अर्थात् अस्वीकृत है उसके साथ कामभोग का सेवन करना अपरिगृहीता-गमन है। इस प्रकार की स्त्रियो मे निम्नोक्त स्त्रियो का समावेश होता है : जिसके साथ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : जैन आचार सम्बन्ध निश्चित हो गया हो किन्तु विवाह न हुआ हो, जो अविवाहित कन्या के रूप मे ही हो, जिसका पति मर गया हो, जो वेश्या का व्यवसाय करती हो, जो अपने पति द्वारा छोड दी गई हो अथवा जिसने अपने पति को छोड दिया हो, जिसका पति पागल हो गया हो, जो अपनी दासी अथवा नौकरानी के रूप मे काम करती हो, इत्यादि । इन सब प्रकार की स्त्रियों के साथ स्वदार संतोप, जिसका कि निषेधात्मक रूप परदारविवर्जन है, का पूरा अर्थ न समझने के कारण अथवा भूल से मैथुनसेवन का प्रसंग उपस्थित होना अपरिगृहीता-गमन अतिचार है । जिसकिसी स्त्री के साथ कामोत्तेजक क्रीड़ा करना, जिस-किसी स्त्री का कामोत्तेजक आलिंगन करना, हस्तकर्म आदि कुचेष्टाएं करना, कृत्रिम साधनों द्वारा कामाचार का सेवन करना आदि कामवर्धक प्रवृत्तियाँ अनंगक्रीडा के अन्तर्गत आती है । कन्यादान मे पुण्य समझ कर अथवा रागादि के कारण दूसरों के लिए लड़केलड़कियाँ ढूढना, उनकी शादियां करना आदि कर्म परविवाहकरण अतिचार के अन्तर्गत हैं । कर्तव्यबुद्धि अथवा सहायताबुद्धि से वैसा करने मे कोई दोष नही । स्वसन्तति के विवाह आदि का दायित्व तो स्वदार संतोष से सम्बद्ध होने के कारण श्रावक पर स्वत. आ जाता है । अतएव अपने पुत्र-पुत्रियो की शादी आदि का समुचित प्रबन्ध करना श्रावक के चतुर्थं अणुव्रत स्वदार - सन्तोष की मर्यादा के ही अन्तर्गत है । पाँच इन्द्रियों मे से चक्षु और श्रोत्र के विषय रूप और शब्द को काम कहते हैं क्योकि इनसे कामना तो होती है किन्तु भोग नही होता । घ्राण, रसना व स्पर्शन के विषय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १०१ गध, रस व स्पर्श भोगरूप हैं क्योकि ये तीनो इन्द्रियाँ अपने-अपने विपय के भोग से ही तृप्त होती हैं। इन कामरूप एवं भोगरूप विषयो मे अत्यन्त आसक्ति रखना अर्थात् इनकी अत्यधिक आकाक्षा करना कामभोग-तीवाभिलाषा अतिचार कहलाता है। वाजीकरण आदि के सेवन द्वारा अथवा कामशास्त्रोक्त प्रयोगो द्वारा मैथुनेच्छा को अधिकाधिक उद्दीप्त करना भी कामभोग-तीवाभिलापारूप अतिचार है। अपनी पत्नी के साथ अमर्यादित ढग से मैथुन का सेवन करना भी कामभोग-तीव्राभिलाषा अतिचार ही कहलाता है क्योकि इससे सन्तोषगुण का घात होता है तथा मन मे सदा कामोत्तेजना बनी रहती है जो अपने आप के लिए तथा अपनी पत्नी के लिए दुखदायी होती है। उपर्युक्त अतिचारो से सदाचार दूषित होता है। अतः श्रावक को इनसे बचना चाहिये । श्राविका के लिए स्वपति-सन्तोषरूप स्थूल मैथुन-विरमण व्रत का तथा तद्विषयक समस्त अतिचारो का आवश्यक परिवर्तन के साथ यथोचित शब्दों मे सयोजन कर लेना चाहिए। ५ इच्छा-परिमाण-मनुष्य की इच्छा को आकाश के समान अनन्त कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि यदि इच्छा पर नियन्त्रण न किया जाय तो वह कदापि तृप्त नही हो सकती। इच्छातृप्ति का श्रेष्ठ उपाय है इच्छा-नियन्त्रण । गृहस्थाश्रम मे रहते हुए इच्छाओ का सर्वथा त्याग संभव नहीं। हा, इच्छाओ की मर्यादा अवश्य वांधी जा सकती है । इसी इच्छामर्यादा अथवा इच्छानियन्त्रण का नाम है इच्छा-परिमाण । यह श्रावक का पांचवा अणुव्रत है। जव इच्छा परिमित हो जाती है तब तद् Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : जैन आचार मूलक ममत्व तथा तज्जन्य सग्रह अथवा परिग्रह भी परिमित हो जाता है । परिणामत. श्रावक जो कुछ भी उपार्जन अथवा संग्रह करता है वह केवल आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही होता है। उससे वह सतीपपूर्वक अपनी तथा अपने आश्रितो की परिमित इच्छा की पूर्ति करता है | श्रावक की इस प्रकार की परिग्रह-परिमिति का ही दूसरा नाम स्थूल परिग्रह - विरमण है | मनुष्य को उतना ही सग्रह करना अथवा रखना चाहिये जितना कि उसके लिए अनिवार्य अथवा आवश्यक हो । अनावश्यक सग्रह से समाज मे विपमता पैदा होती है । इस विषमता के कारण समाज अनेक प्रकार की बुराइयो को जन्म देता है । समाज मे जो शोपणवृत्ति, पारस्परिक अविश्वास, ईर्ष्या-द्वेप, छल-कपट, दुखदारिद्रय, शोक-सताप, लूट-खसोट आदि देखने को मिलते है उनका प्रधान कारण परिग्रहवृत्ति, संग्रह खोरी अथवा सचयबुद्धि है। शोपक पूँजीवाद की जड भी यही है । दूपित साम्यवाद भी इसी पर आधारित है । परिग्रहवृत्ति की परिमितता से ही सरल एव सच्चे समाजवाद की स्थापना हो सकती है । दभरहित परिग्रह-परिमाण से ही यथार्थ सामाजिक न्याय की प्रतिष्ठा हो सकती है । इससे व्यक्ति के जीवन मे सरलता, सादगी एव सदाचरण की वृद्धि होती है तथा पारस्परिक विद्वेष एव सघर्ष को कमी होती है । परिग्रह की परिमितता अहिंसक एवं सत्यनिष्ठ समाज के विकास के लिये अनिवार्य है । इसके बिना न अहिंसा की रक्षा हो सकती है, न सत्यादि की । 1 जैन शास्त्रकारो ने समस्त परिग्रह का निम्नोक्त नौ प्रकारों Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १०३ में समावेश किया है : १. क्षेत्र, २. वस्तु, ३. हिरण्य, ४. सुवर्ण, ५. धन, ६. धान्य, ७. द्विपद, ८. चतुष्पद, ९. कुप्य । क्षेत्र अर्थात् खेत, बगीचा, चारागाह आदि । वस्तु अर्थात् मकान, दुकान गोदाम आदि । हिरण्य अर्थात् चादी के वर्तन, आभूषण तथा अन्य उपकरण । सुवर्ण अर्थात् सोने के वर्तन, आभूपण तथा अन्य उपकरण । रुपया-पैसा, रत्न-जवाहरात, क्रय-विक्रयरूप सोनाचाँदी, कल-कारखाने आदि धन के अन्तर्गत हैं। गेहूँ, जौ, चावल, उड़द, मूंग, तिल, अलसी, मटर आदि धान्य के अन्तर्गत है। दो पाँव वाले प्राणी यथा--स्त्री, पुरुष, तोता, मैना, कबूतर, मयूर आदि द्विपद मे समाविष्ट होते हैं। चार पैर वाले प्राणी यथा---गाय वैल, भैंस, हाथी, घोड़ा, भेड, बकरो आदि चतुष्पद मे समाविष्ट होते हैं। सोने व चांदी की वस्तुओ के अतिरिक्त शेष समस्त वस्तुओ का समावेश कुप्य मे होता है । ये वस्तुएँ मुख्यत. लोहा, तांबा, पीतल, कांसा आदि धातुओ की बनी हुई होती हैं। जो वस्तुएं अपने उपयोग के लिए नही अपितु व्यापार के लिए होती हैं उनका समावेश धन मे किया जाता है। गाडी, मोटर, साइकल बग्गी, तांगा, रथ, ठेला, ट्रक आदि वाहन स्वरूप तथा उपयोग की विविधता की दृष्टि से द्विपद, चतुष्पद, धन, कुप्य आदि मे समाविष्ट होते हैं।। श्रमण के समान ममत्व-मूछा-गृद्धि-संग्रहवृत्ति का सर्वथा त्याग करना श्रावक के लिए शक्य नही। वह अशत. परिग्रहवृत्ति से मुक्त होता है अर्थात् देशत. परिग्रह का त्याग करता है। यह त्याग उसके इच्छा-परिमाण अर्थात् परिग्रह-परिमाण से फलित Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : जैन आचार होता है। इसीको अणुव्रत की परिभाषा मे स्थूल परिग्रह-विरमण व्रत कहते है। इसके अनुसार श्रावक उपर्युक्त सब प्रकार की वस्तुओ मे से अपने लिए आवश्यक वस्तुओं की मर्यादा निश्चित कर शेष समस्त वस्तुओ के ग्रहण एवं सग्रह का त्याग करता है। यही परिग्रह-त्याग का स्थूल रूप अथवा स्थूल परिग्रह-विरमण है । इसके मूल में इच्छा-परिमाण रहा हुआ है। अन्य व्रतो की भाँति परिग्रहसम्बन्धी इस पचम अणुव्रत के भी पांच अतिचार वतलाये गये हैं। इन अतिचारो का सम्बन्ध उपर्युक्त नौ प्रकार के पदार्थो से ही है। इन पदार्थों को अतिचारो की दृष्टि से पाच वर्गों में विभक्त किया गया है तथा स्वीकृत सीमा का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोपो को अतिचारो के रूप मे इन्ही के नामो से सम्बद्ध किया गया है । ये अतिचार इस प्रकार है . १. क्षेत्रवास्तु-परिमाण-अतिक्रमण, २. हिरण्यसुवर्ण-परिमाण-अतिक्रमण, ३ धनधान्य-परिमाण-अतिक्रमण, ४ द्विपदचतुष्पद-परिमाण-अतिक्रमण, ५ कुप्य-परिमाणअतिक्रमण । मर्यादा से अधिक परिग्रह की प्राप्ति होने पर उसका दानादि सत्कार्यो मे उपयोग कर लेना चाहिए। इससे परिग्रहपरिमाण व्रत की आसानी से रक्षा हो सकती है तथा समाजहित के कार्यों को आवश्यक प्रोत्साहन मिल सकता है। गुणवत: अणुव्रतो की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचारशास्त्र मे गुणवतो की व्यवस्था की गई है। गुणवत तीन हैं : १, दिशा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १०५ परिमाण व्रत, २ उपभोगपरिभोग-परिमाण नत, ३. अनर्थदण्डविरमणव्रत। इन्हे गुणवत इसलिए कहा गया है कि इनसे अणुव्रत रूप मूलगुणों की रक्षा तथा विकास होता है। अथवा अणुव्रतो की भावनाओ के रूप मे अथवा उन भावनाओ की दृढता के लिए जिन विशेप गुणो की आवश्यकता रहती है उन्हे गुणवत कहा जाता है। इनकी उपस्थिति मे अणुव्रतो की रक्षा विशेष सरलता से हो सकती है। १. दिशा-परिमाण-अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियो के निमित्त दिशाओ की मर्यादा निश्चित करना दिशा-परिमाण व्रत है। इस गुणन्नत से परिग्रह-परिमाणरूप पांचवे अणुव्रत की रक्षा होती है। दिशाओ की मर्यादा निश्चित हो जाने पर तृष्णा पर स्वतः नियन्त्रण हो जाता है। तृष्णा पर नियन्त्रण होने पर सग्रह की भावना पर प्रतिवन्ध लगने में कोई देर नहीं लगती। इस प्रकार इच्छा-परिमाण अथवा परिग्रह-परिमाणरूप पंचम अणुव्रत की दृढता के लिए दिशा-परिमाणरूप गुणव्रत आवश्यक है। दूसरे शब्दो में दिशा-परिमाण व्रत, इच्छा-परिमाण व्रत की ही एक भावना अथवा गुणविशेष है जिससे परिग्रह-नियन्त्रण मे सहायता मिलती है। दिशा-परिमाण व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. ऊर्ध्वदिशा-परिणाम-अतिक्रमण, २ अधोदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ३ तिर्यदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ४. क्षेत्रवृद्धि, ५. स्मृत्यन्तर्धा । प्रमादवश अथवा अज्ञान के कारण ऊंची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का नाम ऊर्ध्व Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : जैन आचार दिशा-परिमाण-अतिक्रमण है। नीची दिशा के परिमाण का उल्लंघन करने पर जो दोष लगता है उसे अधोदिशा-परिमाणअतिक्रमण कहते हैं। ऊँची व नीची दिशाओं के अतिरिक्त पूर्वादि समस्त दिशाओं के परिमाण का उल्लंघन करना तिर्यदिशापरिमाण-अतिक्रमण है। एक दिशा के परिमाण का अमुक अंश दूसरी दिशा के परिमाण मे मिला देना व इस प्रकार मनमाने ढग से क्षेत्र की मर्यादा बढा लेनो क्षेत्रवृद्धि अतिचार है। सीमा का स्मरण न रहने पर लगने वाले दोष अर्थात् अतिचार का नाम स्मृत्यन्तर्धा है। 'मैने सौ योजन की मर्यादा का व्रत ग्रहण किया है या पचास योजन की मर्यादा का' इस प्रकार का सन्देह होने पर अथवा स्मरण न होने पर पचास योजन से आगे न जाना ही अनुमत है, चाहे वास्तव मे मर्यादा सौ योजन की ही क्यो न हो । यदि अज्ञान अथवा विस्मृति से क्षेत्र के परिमाण का उल्लंघन हुआ हो तो वापिस लौट आना चाहिए, मालूम होने पर आगे न जाना चाहिए, न किसी को भेजना ही चाहिए। वैसे ही कोई गया हो तो उसके द्वारा प्राप्त वस्तु का उपयोग भी नही करना चाहिए । विस्मृति के कारण खुद गया हो व कोई वस्तु प्राप्त हुई हो तो उसका भी त्याग कर देना चाहिए। २. उपभोगपरिभोग-परिमाण-जो वस्तु एक बार उपयोग मे आती है उसे उपभोग कहते हैं। वार-बार काम मे आने वाली वस्तु को परिभोग कहा जाता है। उपभोग एवं परिभोग की मर्यादा निश्चित करना उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत है। इस व्रत से अहिंसा एवं सतोष की रक्षा होती है । इससे जीवन मे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १०७ सरलता एवं सादगी आती है तथा व्यक्ति को महारम्भ, महापरिग्रह तथा महातृष्णा से मुक्ति मिलती है । शास्त्रकारों ने उपभोग परिभोग सम्बन्धी २६ प्रकार की वस्तुओ की गिनती की है | श्रावक को इन वस्तुओ की तथा इनके अतिरिक्त और भी जितनी वस्तुएं उसके काम मे आती हो उन सबकी मर्यादा निश्चित कर लेनी चाहिए जिससे उसके जीवन मे हमेशा शान्ति एव सन्तोप विद्यमान रहे । मर्यादा निश्चित करने मे विवेक का विशेष उपयोग करना चाहिए | जिनमे अधिक हिंसा ओर प्रपंच की सम्भावना हो उन पदार्थो का त्याग करना चाहिए तथा अल्पारम्भ व अल्प प्रपचयुक्त वस्तुओ का मर्यादापूर्वक सेवन करना चाहिए । उपभोगपरिभोगसम्बन्धी वस्तुओ के २६ प्रकार ये हैं : १ शरीर श्रादि पोछने का अंगोछा आदि, २ दाँत साफ करने का मजन आदि, ३ फल, ४ मालिश के लिए तेल आदि, ५. उवटन के लिए लेप आदि, ६ स्नान के लिए जल, ७. पहनने के वस्त्र, ८. विलेपन के लिए चन्दन आदि, ९. फूल, १०. आभरण, ११. धूप-दीप, १२ पेय, १३. पक्वान्न, १४. ओदन, १५ सूप अर्थात् दाल, १६. घृत आदि विगय, १७. शाक, १८. माधुरक अर्थात् मेवा, १९ जेमन अर्थात् भोजन के पदार्थ, २०. पीने का पानी, २१ मुखवास, २२ वाहन, २३. उपानत् अर्थात् जूता, २४ शय्यासन २५ सचित्त वस्तु, २६ खाने के अन्य पदार्थ | उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत के भी पांच प्रधान प्रतिचार हैं : १ सचित्ताहार, २ सचित्त- प्रतिवद्धाहार, ३ अपक्वाहार, ४ दुष्पक्वाहार, ५ तुच्छौपधिभक्षण | ये अतिचार भोजन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : जैन आचार । अथवा हरे सम्बन्धी हैं । जो सचित वस्तु मर्यादा के अन्दर नही है उसका भूल से आहार करने पर सचित्ताहार दोष लगता है । त्यक्त सचित्त वस्तु से संसक्त अर्थात् लगी हुई अचित्त वस्तु का आहार करने पर सचित्त-प्रतिबद्धाहार दोष लगता है जैसे वृक्ष से लगा हुआ गोंद, गुठली सहित ग्राम, पिण्डखजूर आदि खाना | सचित्त वस्तु का त्याग होने पर बिना अग्नि के पके आहार का सेवन करने पर अपक्वाहार दोष लगता है अर्थात् कच्चे शाक, फल आदि का त्याग होने पर बिना पके फल आदि का सेवन करने पर अपक्वाहार अतिचार लगता है । इसी प्रकार अर्धपक्व आहार का सेवन करने पर दुष्पक्वाहार दोष लगता है । जो वस्तु खाने मे कम आए तथा फेकने मे अधिक जाए अर्थात् खाने के लिये ठीक तरह से तैयार न हुई हो ऐसी वस्तु का सेवन करने पर तुच्छौषधिभक्षण अतिचार लगता है ।। उपभोगपरिभोग - परिमाण व्रत के आराधक को इन अतिचारो से बचना चाहिए। अतिचार सेवन का प्रसंग उपस्थित होने पर आलोचना एवं प्रतिक्रमण रूप पश्चात्ताप अर्थात् प्रायश्चित्त करना चाहिए । उपभोग एव परिभोग की वस्तुओ की प्राप्ति के लिए किसी न किसी प्रकार का कर्म अर्थात् व्यापार-व्यवसाय-उद्योग - धन्धा करना ही पडता है । जिस व्यवसाय मे महारम्भ होता हो— स्थूल हिसा होती हो-अधिक पाप होता हो वह व्यवसाय श्रावक के लिए निषिद्ध है । इस प्रकार के व्यवसायो से महान् अशुभ कर्मों का उपार्जन होता है अत. इन्हें शास्त्रकारो ने कर्मादान Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १०९ कहा है। उपासकदशाग मे निम्नलिखित १५ कर्मादान श्रावक के लिए वर्जित किये गये हैं : १. अंगारकर्म, २. वनकर्मः ३. शकटकर्म, ४. भाटककर्म, ५ स्फोटककर्म, ६. दंतवाणिज्य, ७. लाक्षावाणिज्य, ८ रसवाणिज्य, ९. केशवाणिज्य, १०. विषवाणिज्य, ११. यन्त्रपीडनकर्म, १२ निलांछनकर्म, १३. दावाग्निदानकर्म, १४. सरोह्रदतडागशोषणताकर्म, १५ असतोजनपोषणताकर्म। अगारकर्म अर्थात् अग्नि-सम्बन्धी व्यापार जैसेकोयले वनाना, इंटें पकाना आदि । वनकर्म अर्थात् वनस्पतिसम्बन्धी व्यापार जैसे-वृक्ष काटना, घास काटना आदि । शकटकर्म अर्थात् वाहनसम्बन्धी व्यापार जैसे-गाडी, मोटर, तांगा, रिक्शा वगैरह बनाना आदि । भाटककर्म अर्थात् वाहन किराये पर देना आदि । स्फोटककर्म अर्थात् भूमि फोडने का व्यापार जैसे-खाने खुदवाना, नहरे बनवाना, मकान बनाने का व्यवसाय करना आदि । दतवाणिज्य अर्थात् हाथीदांत आदि का । व्यापार । लाक्षावाणिज्य अर्थात् लाख आदि का व्यापार। रसवाणिज्य अर्थात् मदिरा आदि का व्यापार । केशवाणिज्य अर्थात् बालो व वालवाले प्राणियो का व्यापार । विषवाणिज्य अर्थात् जहरीली वस्तुओ तथा हिंसक अस्त्र-शस्त्रो का व्यापार । यन्त्रपीडनकर्म अर्थात् मशीन चलाने आदि का धन्धा । निर्ला नकर्म अर्थात् प्राणियो के अवयवो को छेदने, काटने आदि का व्यवसाय । दावाग्निदानकर्म अर्थात् जगल, खेत आदि मे आग लगाने का कार्य । सरोह्रदतडागशोषणताकर्म अर्थात् सरोवर, झील, तालाब आदि को सुखाने का कार्य । असतीजनपोषणताकर्म अर्थात् कुलटा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०: जैन आचार स्त्रियो के पोषण, हिंसक प्राणियो के पालन, समाजविरोधी तत्त्वों के सरक्षण आदि का कार्य । श्रावक के लिए इन सब प्रकार के व्यवसायो व इनसे मिलते-जुलते अन्य प्रकार के कार्यों का निषेध इसलिए किया गया है कि इनके गर्भ मे महती हिसा रही हुई है । इस प्रकार के हिंसापूर्ण कृत्यो से करुणासम्पन्न श्रावक अपनी आजीविका कैसे चला सकता है। इन सब व्यवसायो का त्याग करने पर गृहस्थ का जीवन कितना सरल, सादगीपूर्ण एवं सात्त्विक हो जाता है, इसकी कल्पना करना आज के युग के मनुष्य के लिए अति कठिन है । उसके लिए कुछ ही ऐसे लघु उद्योग एवं छोटेमोटे सात्त्विक व्यवसाय रह जाते हैं जिनके द्वारा वह बिना किसी आडम्बर के सीधा-सादा जीवन जी सकता है । उसका जीवन कितना पवित्र एवं प्रेरणाप्रद होगा, यह गाँधीजी के जीवन की एक झलक से समझा जा सकता है। गाँधीजी की अहिंसक समाज की कल्पना कुछ-कुछ इसी ढंग की है । उपर्युक्त १५ कर्मादानो मे से कुछ कर्म ऐसे भी हैं जिन्हे यदि विवेकपूर्वक एव विशिष्ट साधनों की सहायता से किया जाय तो स्थूल हिंसा का उपार्जन नही होता । व्यवसाय कोई भी हो, यदि उसमे दो बाते दृष्टिगोचर हो तो वह श्रावक के लिए आचरणीय है । पहली बात यह है कि उसमे स्थूल हिंसा अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा न होती हो अथवा कम-सेकम होती हो। दूसरी बात यह है कि उसके द्वारा किसी व्यक्ति वर्ग अथवा समाज का शोषण न होता हो अथवा कम-से-कम होता हो । इस प्रकार का शोषण प्रत्यक्षत हिंसा भले ही न हो किन्तु परोचते हिंसा ही है । इस प्रकार की हिंसा कभी-कभी साधारण Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार ११९ · स्थूल हिंसा से भी भारी हो जाती है । कौनसा व्यवसाय श्रावक के करने योग्य है और कौनसा करने योग्य नही, इसका निर्णय मुख्यतः इन दो दृष्टियो से ही करना चाहिए | ३ अनर्थदण्ड - विरमण -- अपने अथवा अपने कुटुम्ब के जीवननिर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य सावद्य अर्थात् हिसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियो से निवृत्त होना अनर्थदण्ड - विरमण व्रत है । इस गुणव्रत से प्रधानतया अहिसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है । अनर्थदण्ड - विरमण व्रतधारी श्रावक निरर्थक किसी की हिसा नहीं करता और न निरर्थक वस्तु का संग्रह ही करता है क्योकि इस प्रकार के संग्रह से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है । अनर्थदण्ड अर्थात् निरथंक पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ चार प्रकार की बताई गई हैं : अपध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिंसाप्रदान और पापकर्मोपदेश । अपध्यान अर्थात् कुध्यान । ध्यान के चार प्रकार हैं : आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान व शुक्लध्यान । इनमें से प्रथम दो ध्यान अशुभ ध्यान - कुध्यान तथा वाद के दो ध्यान शुभ ध्यानसुध्यान | आर्तध्यान चार प्रकार का है : इष्टवियोग, अनिष्टसयोग, रोगचिन्ता और निदान | प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति का वियोग होने पर उसके संयोग के लिये शोकाकुल रहना इष्टवियोगआर्तध्यान है । अप्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति का सयोग होने पर उसके वियोग के लिए व्याकुल रहना अनिष्टसंयोग-आर्तध्यान है । शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा दूर करने की व्याकुलता को रोगचिन्ता - आर्तध्यान कहते हैं । अप्राप्त विषयों Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : जैन आचार को प्राप्त करने की कामना से तीव्र संकल्प करना निदान - आर्तध्यान है । रौद्रध्यान अर्थात् क्रूरतापूर्ण चिन्तन | जिसका मन क्रूर होता है वह रुद्र कहलाता है । रुद्र व्यक्ति का ध्यान रौद्रध्यान है । हिंसा, असत्य, चोरी आदि से सम्बन्धित चिन्तन रौद्रध्यान के अन्तर्गत है क्योकि उसमे क्रोध, ईर्ष्या, कपट, लोभ, अहकार आदि क्रूर वृत्तियो की विद्यमानता होती है । आर्तध्यान व रौद्रध्यान का सेवन ही अपध्यानाचरण है । प्रमादाचरण अर्थात् आलस्य का सेवन । शुभ प्रवृत्ति मे आलस्य रखना अर्थात् शुभ प्रवृत्ति करना ही नही अथवा असावधानीपूर्वक शुभ प्रवृत्ति करना प्रमादाचरण है । इसका विधेयात्मक रूप अशुभ कार्यो मे उद्यमशील रहना है । हिंसाप्रदान का अर्थ है किसी को हिंसक साधन जैसे -अस्त्र-शस्त्र, विष आदि देकर हिंसक कृत्यों मे सहायक होना । जिस उपदेश से सुनने वाला पापकर्म मे प्रवृत्त हो वैसा उपदेश देना पापकर्मोपदेश कहलाता है । जैसे हिंसा से विरत व्यक्ति किसी को हिंसक साधन देकर हिसक कृत्यों मे सहायक नही होता उसी प्रकार पापकर्म से निवृत्त व्यक्ति किसी को पापकर्म का उपदेश देकर पापपूर्ण कृत्यो मे सहायक नही वनता । इस प्रकार अपध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिसाप्रदान व पापकर्मोपदेश तथा इसी प्रकार की अन्य निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियो से निवृत्त होना अनर्थदण्ड - विरमणव्रती के लिए आवश्यक है । अन्य व्रतो की भाति अनर्थदण्ड - विरमण व्रत के भी पाँच प्रधान अतिचार हैं . १. कन्दर्प, २. कौत्कुच्य, ३. मौखर्य, ४. सयुक्ताधिकरण, ५. उपभोगपरिभोगातिरिक्त । विकारवर्धक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ११३ वचन बोलना या सुनना कन्दर्प है । विकारवर्धक चेष्टाएं करना या देखना कौत्कुच्य है । असम्बद्ध एव अनावश्यक वचन बोलना मौखर्य है । जिन उपकरणो के संयोग से हिंसा की सभावना बढ जाती हो उन्हें संयुक्त कर रखना सयुक्ताधिकरण है । उदाहरण के लिए बन्दूक के साथ कारतूस धनुष के साथ तीर सयुक्त कर रखना । आवश्यकता से अधिक उपभोग एव परिभोग की सामग्री संग्रह करना उपभोगपरिभोगातिरिक्त है । ये सब अतिचार निरर्थक हिसा का पोषण करने वाले हैं अत श्रमणोपासक को इनसे बचना चाहिये । , शक्षाव्रत : शिक्षा का अर्थ है अभ्यास। जिस प्रकार विद्यार्थी पुन - पुन. विद्या का अभ्यास करता है उसी प्रकार श्रावक को कुछ व्रतो का पुन - पुन. अभ्यास करना पडता है । इसी अभ्यास के कारण इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा गया है । अणुव्रत एव गुणव्रत एक ही वार ग्रहण किये जाते है जवकि शिक्षाव्रत वार वार ग्रहण किये जाते हैं । दूसरे शब्दो मे अणुव्रत एव गुणव्रत जीवनभर के लिये होते हैं जबकि शिक्षाव्रत अमुक समय के लिए ही होते हैं । शिक्षाव्रत चार हैं : १. सामायिक व्रत, २. देशावकाशिक व्रत, ३. पौषधोपवास व्रत, ४ अतिथिसविभाग व्रत । १ सामायिक -- ' सामायिक' पद के मूल मे 'समाय' शब्द है । समाय शब्द 'सम' और 'आय' के सयोग से बनता है । सम का अर्थ है समता अथवा समभाव और प्राय का अर्थ है लाभ अथवा प्राप्ति । इन दोनो अर्थो को मिलाने से समाय का अर्थ होता है ८ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : जैन आचार समभाव का लाभ अथवा समता की प्राप्ति । समायसम्बन्धी भाव अथवा क्रिया को सामायिक कहते है। इस प्रकार सामयिक आत्मा का वह भाव अथवा शरीर की वह क्रियाविशेष है जिससे मनुष्य को समभाव की प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दो मे जो त्रस और स्थावर सभी जीवो के प्रति समभाव रखता है वह सामायिक का आराधक होता है । सामायिक के लिए मानसिक स्वस्थता और शारीरिक शुद्धि दोनो आवश्यक हैं । शरीर स्वस्थ, शुद्ध एव स्थिर हो किन्तु मन अस्वस्थ, अशुद्ध एवं अस्थिर हो तो सामायिक की साधना नही की जा सकती। इसी प्रकार मन स्वस्थ, शुद्ध तथा स्थिर हो किन्तु शारीरिक स्वस्थता, शुद्धता तथा स्थिरता का अभाव हो तो भी सामायिक की निर्विघ्न आराधना नही की जा सकती। सामायिक करने वाले के मन, वचन और कर्म तीनो पवित्र होते हैं। मन, वचन और कर्म मे सावद्यता अर्थात् दोष न रहे, यही सामायिक का प्रयोजन होता है। इसीलिए सामायिक मे सावध योग अर्थात् दोषयुक्त प्रवृत्ति का त्याग एवं निरवद्य योग अर्थात् दोपरहित प्रवृत्ति का आचरण करना पड़ता है। अमुक समय तक सामायिक व्रत ग्रहण करने वाला व्यक्ति क्रमश. अपने सम्पूर्ण जीवन मे समता का विकास करता है। धीरे-धीरे समभाव का अभ्यास करते-करते वह पूरे जीवन को समतामय बनाता है। जब तक समता जीवनव्यापी नही हो जाती तब तक उसका अभ्यास चलता रहता है। सामायिक व्रत का यथार्थ आराधन यही है। यही सामायिक का सार है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ११५ निम्नलिखित पाँच अतिचारो से सामायिक व्रत दूषित होता है : १. मनोदुष्प्रणिधान, २ वागदुष्प्रणिधान, ३. कायदुष्प्रणिधान, ४. स्मृत्यकरण, ५ अनवस्थितकरण । मनसे सावध भावों का अनुचिन्तन करना मनोदुष्प्रणिधान है। वाणी से सावध वचन बोलना वाग्दुष्प्रणिधान है । गरीर से सावध क्रिया करना कायदुष्प्रणिधान है। सामायिक की स्मृति न रखना अर्थात् सामायिक करनी है या नही, सामायिक की है या नही, सामायिक पूरी हुई है या नही-इत्यादि विषयक स्मृति न होना स्मृत्यकरण है। यथावस्थित सामायिक न करना, समय पूरा हुए विना ही सामायिक पूरी कर लेना अनवस्थितकरण है। २ देशात्रकाशिक-दिशापरिमाण व्रत मे जीवनभर के लिए मर्यादित दिशाओ के परिमाण मे कुछ घंटो अथवा दिनो के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना अर्थात् विशेष कमी करना देशावकाशिक व्रत है। देश अर्थात् क्षेत्र का एक अश और अवकाश अर्थात् स्थान । चूंकि इस व्रत मे जीवनपर्यन्त के लिए गृहीत दिशापरिमाण अर्थात् क्षेत्रमर्यादा के एक अशरूप स्थान की कुछ समय के लिए विशेष सीमा निर्धारित की जाती है इसलिए इसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं । यह व्रत क्षेत्रमर्यादा को सकुचित करने के साथ ही उपलक्षण से उपभोग-परिभोगादिरूप अन्य मर्यादाओ को भी सकुचित करता है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जाना, बाहर से किसी को न बुलाना, न बाहर किसी को भेजना और न बाहर से कोई वस्तु मंगवाना, बाहर क्रय-विक्रय न करना आदि प्रस्तुत व्रत के लक्षण हैं। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : जैन आचार देशावकाशिक व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं १. पानयनप्रयोग, २. प्रेषणप्रयोग, ३. शब्दानुपात, ४. रूपानुपात, ५ पुद्गलप्रक्षेप । मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु लाना, मंगवाना आदि प्रानयनप्रयोग है । मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना, लेजाना आदि प्रेषणप्रयोग है। किसी को निर्धारित क्षेत्र से बाहर खड़ा देख कर खाँसी आदि शब्दसंकेतों द्वारा उसे बुलाने आदि की चेष्टा करना शब्दानुपात है। सीमित क्षेत्र से बाहर रहे हुए लोगो को बुलाने आदि की चेष्टा से हाथ, मुंह, सिर आदि का इशारा करना अर्थात् रूपसकेतो का प्रयोग करना रूपानुपात है । मर्यादित क्षेत्र से बाहर रहे हए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए ककड़, कागज आदि कुछ फेकना पुद्गलप्रक्षेप है। ३. पौषधोपवास-विशेष नियमपूर्वक उपवास करना अर्थात् आत्मचिन्तन के निमित्त सर्व सावधक्रिया का त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान से बैठ कर उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना पौषधोपवास है । इस व्रत मे उपवास का मुख्य प्रयोजन आत्मतत्त्व का पोपण होता है अतः इसे पौषधोपवास व्रत कहते हैं। आत्मपोषण के निमित्त पौषधोपवास को अंगीकार करने वाला श्रावक भौतिक प्रलोभनो से दूर रहता है, भौतिक आपत्तियो से व्याकुल अथवा विचलित भी नही होता। इस व्रत मे स्थित साधक श्रमणवत् साधनारत होता है । वह आहार के परित्याग के साथ ही साथ उपलक्षण से शरीरसत्कार अर्थात् शारीरिक शृगार, अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन एवं सावध व्यापार अर्थात् हिंसक क्रिया का भी त्याग करता है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार . ११७ पोषधोपवास व्रत के निम्नोक्त पाच अतिचार हैं : १ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक, २.अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक, ३. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि, ४ अप्रमार्जित-दुप्पमाजित उच्चारप्रस्रवणभूमि, ५ पौषधोपवास-सम्यगननुपालनता । शय्या अर्थात् वसति-मकान और सस्तारक अर्थात् विछौना-कंबलादि का प्रतिलेखन अर्थात् प्रत्यवेक्षण-निरीक्षण बिलकुल न करना अथवा ठीक ढंग से न करना अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक अतिचार है । शय्या व सस्तारक को प्रमाजित किये विना अर्थात् पोछे बिना-साफ किये विना अथवा विना अच्छी तरह साफ किये काम मे लेना अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्तारक अतिचार है। इसी प्रकार मलमूत्र की भूमि का विना देखे अथवा अच्छी तरह न देखकर उपयोग करना अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि अतिचार है तथा साफ किये विना अथवा विना अच्छी तरह साफ किए उपयोग करना अप्रमाजित-दुष्प्रमाणित उच्चारप्रस्रवणभूमि अतिचार है । पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन न करना अर्थात् आत्मपोषक तत्त्वो का भलीभांति सेवन न करना पौषधोपवास-सम्यगननुपालनता अतिचार है । इन सव अतिचारो से दूर रहने वाला श्रावक पौषधोपवास व्रत की यथार्थ आराधना कर सकता है। प्रथम चार अतिचारो मे अनिरीक्षण अथवा दुनिरीक्षण एवं अप्रमार्जन अथवा कुप्रमार्जन के कारण हिंसादोप की संभावना रहती है-जीवजन्तु का हनन होने की शक्यता रहती है। ४ . अतिथिमविभाग-~यथासविभाग अथवा अतिथिसंविभाग Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : जैन आचार चतुर्थ शिक्षाव्रत है। यह श्रावक का बारहवाँ अर्थात् अंतिम व्रत है। यथासिद्ध अर्थात् अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना यथासविभाग अथवा अतिथिसविभाग कहलाता है। जैसे श्रावक अपनी आय को अपने तथा अपने कुटुम्ब के लिए व्यय करना अपना कर्तव्य समझता है वैसे ही वह अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का अमुक भाग सहजतया व्यय करना भी अपना कर्तव्य मानता है। यह कार्य वह किसी स्वार्थ के कारण नहीं करता अपितु विशुद्ध परमार्थ की भावना से करता है। इसीलिए उसका यह त्याग उत्कृष्ट कोटि मे आता है । जिसके आने-जाने की कोई तिथि अर्थात् दिन निश्चित न हो उसे अतिथि कहते है। जो घूमताफिरता कभी भी कही पहुंच जाय वह अतिथि है। उसका कोई निश्चित कार्यक्रम नही होता, जाने-आने के निश्चित स्थान नही होते। इतना ही नहीं, उसका भोजन आदि ग्रहण करने का भी कोई निश्चित कार्यक्रम नही होता। उसे जहाँ जिस समय जैसी भी उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो जाती है वहाँ उस समय उसी से सन्तोष प्राप्त हो जाता है। निर्ग्रन्थ श्रमण को इसी प्रकार का अतिथि कहा गया है। आध्यात्मिक साधना के लिए जिसने गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म स्वीकार किया है उस भ्रमणशील पदयात्री निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षुक को न्यायोपार्जित निर्दोष वस्तुओ का नि स्वार्थभाव से श्रद्धापूर्वक दान देना उत्कृष्ट कोटि का अतिथिसविभाग व्रत है। सयमी एवं साधक पुरुषो को आवश्यक वस्तुओ का दान देने से पवित्र जीवन का अनुमोदन होता है Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : ११९ आध्यात्मिक साधना का पोषण होता है। इससे दाता का जीवन भी उपयुक्त दिशा में विकसित होता है। जिस प्रकार निर्ग्रन्थ अतिथि को दान देना श्रमणोपासक का कर्तव्य है उसो प्रकार नि.स्वार्थ भाव से अन्य अतिथियों अथवा व्यक्तियों की समुचित मदद करना, दीन-दुखियों की यथोचित सहायता करना भी श्रावक का धर्म है। इससे करुणावृत्ति का पोषण होता है जो अहिंसाधर्म के उपयुक्त विकास एवं प्रसार के लिए आवश्यक है। अतिथिसविभाग व्रत के निम्नलिखित पाँच अतिचार बताये गये हैं जो मुख्यतया आहार से सम्बन्धित हैं १. सचित्तनिक्षेप, २. सचित्तपिधान, ३. कालातिक्रम, ४. परव्यपदेश, ५. मात्सर्य । न देने की भावना से अर्थात् कपटपूर्वक साधु को देने योग्य आहारादि को सचित्त-सचेतन वनस्पति आदि पर रखना सचित्तनिक्षेप है क्योकि निर्ग्रन्थ श्रमण ऐसा आहारादि ग्रहण नही करते। इसी प्रकार आहारादि को सचित्त वस्तु से ढकना सचित्तपिधान है। अतिथि को कुछ न देना पड़े, इस भावना से अर्थात् कपटपूर्वक भिक्षा के उचित समय से पूर्व अथवा पश्चात् भिक्षुक से आहारादि ग्रहण करने की प्रार्थना करना कालातिक्रम अतिचार है। न देने की भावना से अपनी वस्तु को परायी कहना अथवा परायी वस्तु देकर अपनी वस्तु बचा लेना अथवा अपनी वस्तु स्वय न देकर दूसरे से दिलवाना परव्यपदेश है। सहजभाव से अर्थात् श्रद्धापूर्वक दान न देते हुए दूसरे के दानगुण की ईर्ष्या से दान देना मात्सर्य अतिचार है। सल्लेखना अथवा संथारा : जीवन के अन्तिम समय मे अर्थात् मृत्यु आने के समय तप Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : जैन आचार विशेप की आराधना करना सल्लेखना कहलाता है । इसे शास्त्रीय परिभापा मे अपश्चिम-मारणान्तिक-सल्लेखना कहते हैं। अपश्चिम का अर्थ है जिसके पीछे कोई दूसरा नहीं है अर्थात् सबसे अन्तिम । मारणान्तिक का अर्थ है मृत्युरूप अन्त में होने वाली । सल्लेखना का अर्थ है जिसके द्वारा कपायादि कृग हो वैसी सम्यक् आलोचनायुक्त तपस्या । इस प्रकार अपश्चिम-मारणान्तिक-सल्लेखना का अर्थ होता है मरणान्त के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यो की सम्यक् आलोचना करके शरीर व कषायादि को कृश करने के निमित्त की जानेवाली सबसे अन्तिम तपस्या। इसका सीधे शब्दो में अर्थ होता है अन्तिम समय मे आहारादि का त्याग कर (पहले अन्न व वाद मे जल अथवा दोनो एक साथ छोड़कर) समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करना । इस दृष्टि से सल्लेखना प्राणान्त अनशन है। सल्लेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचारशास्त्र मे समाधिमरण व पण्डितमरण कहा गया है। इसे सथारा भी कहा जाता है। समाधिमरण व पडितमरण का अर्थ होता है स्वस्थ चित्तपूर्वक व विवेकयुक्त प्राप्त होने वालो मृत्यु । संथार अर्थात् सस्तारक का अर्थ होता है विछौना। चूंकि सल्लेखना मे व्यक्ति सस्तारक ग्रहण करता है अर्थात् आहारादि का त्याग कर विछौना विछा कर शान्त चित्त से एक स्थान पर लेटा रहता है इसलिए इसे सथारा कहते है । जब व्यक्ति का शरीर इतना निर्वल हो जाता है कि वह सयम अर्थात् आचार के पालन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध होता है तब उससे मुक्त होना ही साधक के लिए श्रेयस्कर होता है। दूसरे शब्दो मे जव शरीर Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १२१ किसी काम का न रह कर केवल भारभूत हो जाता है तब उससे मुक्ति पाना ही श्रेष्ठ होता है। ऐसी अवस्था मे बिना किसी प्रकार का क्रोध किये प्रशान्त एवं प्रसन्न चित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना सल्लेखना नत का महान् उद्देश्य है । अथवा अन्य प्रकार से मृत्यु का प्रसग उपस्थित होने पर निविकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना भी सल्लेखना है। श्रावक व श्रमण दोनो के लिए सल्लेखना व्रत का विधान है। इसे व्रत न कह कर व्रतान्त कहना ही अधिक उपयुक्त होगा क्योकि इसमे समस्त व्रतों का अन्त रहा हुआ है। इसमे जैसे शरीर का प्रशस्त अन्त अभीष्ट है वैसे ही व्रतो का भी पवित्र अन्त वाछित है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सल्लेखना अथवो सथारा आत्मघात नही है। प्रात्मघात के मूल मे अतिशय क्रोधादि कपाय विद्यमान होते हैं जबकि सल्लेखना के मूल मे कषायो का सर्वथा अभाव होता है। आत्मघात चित्त की अशान्ति एव अप्रसन्नता का द्योतक है जबकि सल्लेखना चित्त की प्रसन्नता एव शान्ति का निर्देशक है। आत्मघात मे मानसिक असन्तुलन की परिसीमा होती है जवकि सल्लेखना मे समभाव का उत्कर्ष होता है। आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है जबकि सल्लेखना निर्विकार चित्तवृत्ति से होती है। सल्लेखना जीवन के अन्तिम समय मे अर्थात् शरीर की अत्यधिक निर्वलता-अनुपयुक्तता-भारभूतता की स्थिति मे अथवा अन्यथा मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर की जाती है जबकि आत्मघात किसी भी स्थिति में किया जा सकता Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : जैन आचार है । सल्लेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु निष्कपायमरण, समाधिमरण एव पण्डितमरण है जवकि आत्महत्या सकपायमरण, वालमरण एवं अज्ञानमरण है । सल्लेखना आध्यात्मिक वीरता-निर्भीकता है जवकि आत्महत्या निराशामय कायरता-भीरता है। आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति स्थूल जीवन की निराशा से ऊब कर मृत्युमुख मे प्रवेश करता है जबकि संथारा करनेवाला आराधक आध्यात्मिक गुणो की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक मृत्यु का आह्वान करता है। उसमे स्थूल जीवन के लोभ से आध्यात्मिक गुणो से च्युत होकर अर्थात् अपने व्रतविशेप का भगकर मृत्यु से भयभीत होने की कायरता नही होती और न स्थल जीवन की निराशाओं से हताश होकर मृत्युमुख मे प्रवेश करने की पामरता ही होती है। वह जितना जीवन से निर्भय होता है उतना ही मृत्यु से निर्भय होता है एव जितना मृत्यु से निर्भीक रहता है उतना ही जीवन से निर्भीक रहता है। उसके लिए जीवन व मत्यु दोनों समानभाव से उपादेय होते हैं । वह सुख, सत्कार आदि मिलने पर अधिक समय तक जीवित रहने की कामना नही करता एव दु.ख, दुत्कार आदि मिलने पर शीघ्र मरने की इच्छा नहीं करता । कषायादि को कृश करता हुआ स्वाभाविकतया मृत्यु आने पर उसका सहर्ष स्वागत करता है एवं उत्कृष्ट आत्मपरिणामो के साथ अपनी जीवनलीला समाप्त करता है। इस प्रकार के मरण को आदर्श मरण न कहा जाय तो क्या कहा जाय ? इससे बढकर सात्त्विक एव शान्तिपूर्ण मृत्यु कौनसी हो सकती है ? इससे अधिक व्यक्ति के धैर्य एव विचारशीलता की क्या परीक्षा हो सकती है ? इसमे किसी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १२३ प्रकार के आवेश एवं अविवेक को स्थान ही कहाँ ? जो शरीर अब रुकने की स्थिति मे नही है उसे इससे वढकर और शानदार विदाई क्या दी जा सकती है ? इससे किसी का क्या अहित हो सकता है ? इसमे व्यक्ति व समाज दोनों का हित निहित है। इसकी आत्महत्या से किसी भी रूप मे तुलना नहीं की जा सकती। जैन आचारशास्त्र परहत्या की तरह आत्महत्या को भी भयकर पाप मानता है। कषायमुक्त वीतराग अहत्प्रणीत आचारशास्त्र मे सकषाय मृत्यु अर्थात् क्रोधादि कपायजन्य आत्मघातरूप मरण का विधान अथवा समर्थन कैसे हो सकता है? द्वादश व्रतो की ही भाति मारणान्तिकी सलखना अथवा सथारा के भी मुख्य पाच अतिचार बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं : १ इहलोकाशसाप्रयोग, २. परलोकाशसाप्रयोग, ३. जीविताशसाप्रयोग, ४. मरणाशंसाप्रयोग, ५ कामभोगाशंसाप्रयोग । इहलोक अर्थात् मनुष्यलोक, आशंसा अर्थात् अभिलापा, प्रयोग अर्थात् प्रवृत्ति । इहलोकाशसाप्रयोग अर्थात् मनुष्यलोकविषयक अभिलापारूप प्रवृत्ति । सल्लेखना के समय इस प्रकार की इच्छा करना कि आगामी भव मे इसी लोक मे धन, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त होइहलोकाशंसाप्रयोग अतिचार है। इसी प्रकार परलोक मे देव आदि बनने की इच्छा करना परलोकाशसाप्रयोग अतिचार है। अपनी प्रशसा, पूजा-सत्कार आदि होता देख कर अधिक काल तक जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसाप्रयोग अतिचार हे । सत्कार आदि न होता देख कर अथवा कष्ट आदि से घवराकर शीघ्र मृत्यु प्राप्त करने की इच्छा करना मरणाशसाप्रयोग Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ : जैन आचार अतिचार है । आगामी जन्म मे मनुष्यसम्बन्धी अथवा देवसम्बन्धी कामभोग प्राप्त करने की इच्छा करना कामभोगाशंसाप्रयोग अतिचार है । मारणान्तिकी सल्लेखना की अराधना करनेवाले को इन व इस प्रकार के अन्य अतिचारो से बचना चाहिए। इससे सल्लेखना की निर्दोष पाराधना होती है। दोप लगने की स्थिति में आलोचना व पश्चात्तापपूर्वक चित्तशुद्धि करनी चाहिए । इस प्रकार शुद्ध तथा शान्तभाव से निष्कषाय एव निर्दोष मृत्यु का वरण करना चाहिए। प्रतिमाएं : उपासकदशांग मे आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए बताया गया है कि उसने भगवान् महावीर से पाच अणुव्रत व सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म को स्वीकार किया एवं घर मे रह कर वारह व्रतो का पालन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत किए। पद्रहवे वर्ष के प्रारभ मे उसे विचार आया कि मैंने जीवन का काफी हिस्सा गृहस्थ-जीवन मे व्यतीत किया है। अब क्यो न गृहस्थी के झझटों से मुक्त होकर श्रमण भगवान् महावीर से गृहीत धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर अपना समय व्यतीत करूँ ? ऐसा विचार कर उसने मित्रो आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का सारा भार सौपा एवं सबसे विदा लेकर पौषधशाला मे जाकर पौषध ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर से ली हुई धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर रहने लगा। उसने उपासक-प्रतिमाएं अगीकार की एवं एक-एक करके ग्यारह प्रतिमाओ की आरा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १२५ मा धना की । अन्त मे मारणान्तिक सल्लेखना स्वीकार कर भक्तपान का प्रत्याख्यान कर समाधिमरण प्राप्त किया एव सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतसक महाविमान के उत्तर-पूर्व मे स्थित अरुण विमान मे चार पल्योपम की स्थितिवाले देव के रूप मे उत्पन्न हुआ। वहाँ की आयु पूर्ण कर वह महाविदेह मे मुक्त होगा। अानन्द के इस वर्णन मे स्पष्ट उल्लेख है कि उसने द्वादश श्रावक-व्रतो का पालन करते हुए जीवन के अन्तिम भाग मे एकादश उपासक-प्रतिमाओ की आराधना की एवं सल्लेखनापूर्वक मृत्यु प्राप्त की । द्वादश व्रतो व सल्लेखना का परिचय तो पाठको को प्राप्त हो ही चुका है। अब एकादश प्रतिमाओ का परिचय कराना अभीष्ट होगा। यहाँ प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञाविशेष, व्रतविशेष, तपविशेष अथवा अभिग्रहविशेष । प्रतिमास्थित श्रावक श्रमणवत् व्रतविशेषो की आराधना करता है। कोशकार प्रतिमा के मूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिविम्ब, विम्ब, छाया, प्रतिच्छाया आदि अर्थ देते हैं। चूकि प्रतिमाओं की आराधना करने वाले श्रावक का जीवन श्रमण के सदृश होता है अर्थात् उसका जीवन एक प्रकार से श्रमण-जीवन की ही प्रतिकृति होता है अत. उसके व्रतविशेषों को प्रतिमाएं कहा जाता है। जिस प्रकार श्रावक के लिए श्रमणजीवन की प्रतिकृतिरूप एकादश उपासक-प्रतिमाओ का विधान किया गया है उसी प्रकार श्रमण के लिए भी अपने से उच्च कोटि के साधक के जीवन की प्रतिकृतिरूप द्वादश भिक्षु-प्रतिमामओ का विधान किया गया है। दशाश्रुतस्कन्ध मे इन दोनो प्रकार की Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : जैन आचार प्रतिमाओ - साधना-सोपानो का संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित वर्णन है । पष्ठ उद्देश मे उपासक - प्रतिमाओ तथा सप्तम उद्देश मे भिक्षु प्रतिमाओ पर प्रकाश डाला गया है । व्रतधारी श्रावक मे प्रारम्भ की कुछ प्रतिमाएँ पहले से ही विद्यमान होती है | अतः उनके लिये उसे विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । जिसे श्रावक के व्रतो के पालन का अभ्यास नही होता उसे प्रथम प्रतिमा से ही प्रयत्नशील होना पडता है । प्रथम प्रतिमा में सम्यग्दृष्टि अर्थात् आस्तिकदृष्टि प्राप्त होती है । इसमे सर्वधर्मविषयक रुचि अर्थात् सर्वगुणविषयक प्रीति होती है । दृष्टि दोषों की ओर न जाकर गुणो की ओर जाती है । यह प्रतिमा दर्शनशुद्धि अर्थात् दृष्टि की विशुद्धता - श्रद्धा की यथार्थता से सम्बन्ध रखती है । इसमे गुणविषयक रुचि की विद्य मानता होते हुए भी शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि की सम्यक् आराधना नही होती । इसका नाम दर्शनप्रतिमा है । द्वितीय प्रतिमा का नाम व्रतप्रतिमा है । इसमे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि तो सम्यक्तया धारण किये जाते हैं किन्तु सामायिकव्रत एव देशावका शिकव्रत का सम्यक् पालन नही होता । तृतीय प्रतिमा का नाम सामायिक प्रतिमा है । इसमे सामायिक एव देशावकाशिक व्रतों की सम्यक् आराधना होते हुए भी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि के दिनो मे पौषधोपवासव्रत का सम्यक् पालन नही होता । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार . १२७ चतुर्थ प्रतिमा मे स्थित श्रावक चतुर्दशी आदि के दिनो मे प्रतिपूर्ण पौषधव्रत का सम्यक्तया पालन करता है। इसका नाम पौषधप्रतिमा है। पाचवी प्रतिमा का नाम है नियमप्रतिमा। इसमे स्थित श्रमणोपासक निम्नोक्त पाँच नियमो का विशेष रूप से पालन करता है : १ स्नान नही करना, २. रात्रिभोजन नही करना, ३. धोती की लाग नहीं लगाना, ४ दिन मे ब्रह्मचारी रहना एव रात्रि मे मैथुन की मर्यादा करना, ५ एकरात्रिकी प्रतिमा का पालन करना अर्थात् महीने मे कम-से-कम एक रात कायोत्सर्ग अवस्था मे ध्यानपूर्वक व्यतीत करना । छठी प्रतिमा का नाम ब्रह्मचर्यप्रतिमा है क्योकि इसमे श्रावक दिन की भांति रात्रि मे भो ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इस प्रतिमा मे सर्व प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग नही होता। सातवी प्रतिमा मे सभी प्रकार के सचित्त आहार का परित्याग कर दिया जाता है किन्तु प्रारम्भ (कृषि, व्यापार आदि मे होने वाली अल्प हिंसा) का त्याग नही किया जाता। इस प्रतिमा का नाम है सचित्तत्यागप्रतिमा । आठवी प्रतिमा का नाम आरम्भत्यागप्रतिमा है। इसमे उपासक स्वय तो आरभ का त्याग कर देता है किन्तु दूसरो से आरभ करवाने का परित्याग नही कर सकता। नवी प्रतिमा धारण करनेवाला श्रावक आरभ करवाने का भी त्याग कर देता है । इस अवस्था मे वह उद्दिष्ट भक्त Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार अर्थात् अपने निमित्त से बने हए भोजन का परित्याग नही करता । इस प्रतिमा का नाम प्रेष्यपरित्यागप्रतिमा है क्योकि इसमे आरभ के निमित्त किसी को कही भेजने-भिजवाने का त्याग होता है। आरभवर्धक परिग्रह को त्याग होने के कारण इसे परिग्रहत्यागप्रतिमा भी कहते हैं। दसवी प्रतिमा मे उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग कर दिया जाता है। इस प्रतिमा मे स्थित श्रमणोपासक उस्तरे से मुण्डित होता हुआ शिखा धारण करता है अर्थात् सिर को एकदम साफ न कराता हुआ चोटी जितने बाल सिर पर रखता है। इससे यह मालूम होता है कि गृहस्थ के सिर पर चोटी रखने का रूढ प्रथा जैन परम्परा मे भी मान्य रही है। दसवी प्रतिमा धारण करने वाले गृहस्थ को जब कोई एक बार अथवा अनेक बार, बुलाता है या एक अथवा अनेक प्रश्न पूछता है तब वह दो ही) उत्तर देता है। जानने पर कहता है कि मैं यह जानता हूँ। न जानने की स्थिति मे कहता है कि मुझे यह मालूम नही । चूंकि इस प्रतिमा मे उद्दिष्ट भक्त का त्याग अभिप्रेत होता है अत. इसका नाम उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा है। ___ ग्यारहवी प्रतिमा का नाम श्रमणभूतप्रतिमा है। श्रमणभूत का अर्थ होता है श्रमण के सदृश । जो गृहस्थ होते हुए भी साध के समान आचरण करता है अर्थात् श्रावक होते हुए भी श्रा के समान क्रिया करता है वह श्रमणभूत कहलाता है। श्री भूतप्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक बालों का उस्तरे से मुण्डन वाता है अथवा हाथ से लुचन करता है। इस प्रतिमा मे/ समुण्डमघोप Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १२९ नही रखी जाती। वेष, भाण्डोपकरण एवं आचरण श्रमण के ही समान होता है । श्रमणभूत श्रावक मुनिवेप मे अनगारवत् आचार-धर्म का पालन करता हुआ जीवनयापन करता है। सम्बन्धियो व जाति के लोगो के साथ यत्किंचित् स्नेहबन्धन होने के कारण उन्ही के यहाँ से अर्थात् परिचित घरो से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा लेते समय वह इस बात का ध्यान रखता है कि दाता के यहाँ उसके पहुंचने के पूर्व जो वस्तु बन चुकी होती है वही वह ग्रहण करता है, अन्य नही । यदि उसके पहुंचने के पूर्व चावल पक चुके हो और दाल न पकी हो तो वह चावल ले लेगा, दाल नही। इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो और चावल न पके हो तो वह दाल ले लेगा, चावल नही । पहुँचने के पूर्व दोनो चीजे बन चुकी हो तो दोनो ले सकता है और एक भी न बनी हो तो एक भी नहीं ले सकता । प्रतिमाएं गुणस्थानो की तरह आत्मिक विकास के बढते हुए अथवा चढते हुए सोपान हैं अत उत्तर-उत्तर प्रतिमाओ मे पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वत समाविष्ट होते जाते हैं। जब श्रावक ग्यारहवी अर्थात् अन्तिम प्रतिमा की आराधना करता है तब उसमे प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की समस्त प्रतिमाओ के गुण रहते हैं। इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार चाहे वह मुनिधर्म को दीक्षा ग्रहण कर सकता है, चाहे उसी प्रतिमा को धारण किये रह सकता है। इन प्रतिमाओ मे से कुछ के लिए अधिकतम कालमर्यादा भी वतलाई गई है। उदाहरण के लिए पांचवी प्रतिमा का अधिकतम काल पाच मास, छठी का छः मास, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : जैन आचार यावत् ग्यारहवी का ग्यारह मास है । यह एक साधारण विधान है । साधक के सामर्थ्य के अनुसार इसमे यथोचित परिवर्तन भी हो सकता है । श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा सम्मत उपासक - प्रतिमाओं के क्रम तथा नामों मे नगण्य अन्तर है । श्वेताम्बर - परम्परा मे एकादश उपासक - प्रतिमाओं के नाम क्रमानुसार इस प्रकार मिलते है : १. दर्शन, २ व्रत, ३. सामायिक, ४ पौषध, ५ नियम, ६. ब्रह्मचर्य, ७ सचित्तत्याग, ८ आरम्भत्याग, ९. प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग, १० उद्दिष्टभक्तत्याग, ११. श्रमणभूत । दिगम्बर- परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम इस क्रम से मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रिभुक्तित्याग, ७. ब्रह्मचर्य, ८ आरम्भत्याग, ९. परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग, ११ उद्दिष्टत्याग । उद्दिष्टत्याग के दो भेद होते हैं जिनके लिये क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दो का प्रयोग होता है । ये श्रावक की उत्कृष्ट अवस्थाएँ होती हैं । श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्मत प्रथम चार नामो मे कोई अन्तर नही है । सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर-परम्परा में पाचवा है जबकि श्वेताम्बर - परम्परा मे सातवा है । दिगम्बराभिमत रात्रिभुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पाचवी प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है । ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर परम्परा मे छठा है जबकि दिगम्बर - परम्परा मे सातवां है । दिगम्बरसम्मत अनुमतित्याग श्वेताम्बरसम्मत उद्दिष्टभक्त त्याग के ही अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है क्योकि इस प्रतिमा में श्रावक S Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकाचार : १३५ उद्दिष्ट भक्त ग्रहण न करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता। श्वेताम्बराभिमत श्रमणभूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है क्योकि इन दोनों मे श्रावक का आचरण भिक्षुवत् होता है। क्षुल्लक व ऐलक श्रमण के ही समान होते हैं। प्रतिक्रमण जीतकल्प सूत्र में जिन दस प्रकार के प्रायश्चित्तो का विधान किया गया है उनमे प्रतिक्रमण भी एक है। प्रतिक्रमण अर्थात् वापसी । यहाँ वापसी का अर्थ है शुभयोग से अशुभयोग मे गये हुए अपने आपको पुनः शुभयोग मे लाना । साधक प्रमादवश शुभयोग से च्युत होकर अशुभयोग में पहुंच जाता है । इस प्रकार अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभयोग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। जिस प्रकार श्रमण के लिये व्रतो मे दोष लगने पर प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त आवश्यक माना गया है उसी प्रकार श्रावक के लिये भी अतिचारों की शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण की आवश्यकता स्वीकार की गई है। श्रावक स्थूल प्राणातिपात-विरमण आदि जिन व्रतों को स्वीकार करता है उनमे बन्ध, वध आदि अनेक अतिचाररूप दोष लगने की सम्भावना रहती है। इन दोषों का सम्यक निरीक्षण कर आलोचनापूर्वक पश्चात्ताप करना चाहिये एव भविष्य मे उनकी पुनरावृत्ति न हो, इसका ध्यान रखना चाहिये। इस प्रकार श्रावक अशुभयोग से निवृत्त होकर विशुद्धभाव से उत्तरोत्तर शुभयोग मे प्रवृत्त होता Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : जैन आचार जाता है। यही प्रतिक्रमण की सार्थकता है। प्रतिक्रमण का प्रयोजन साधक के जीवन से प्रमादभाव को दूर करना है। अनान, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेप आदि प्रमाद के ही रूप हैं। प्रमाद साधक-जीवन का एक भयंकर रोग है जो साधना को सडागला कर नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। प्रतिक्रमण इस रोग को नष्ट करने की एक अद्भुत औषधि है। साधक को इस ढंग से प्रतिक्रमणरूप औषधि का सेवन करते रहना चाहिए कि प्रमादरूप रोग जीवन मे तनिक भी पनपने न पाए। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रम गा - धर्म महाव्रत रात्रिभोजन-विरमणवत षडावश्यक आदर्श श्रमण अचेलकत्व व सचेलकत्व वस्त्रमर्यादा वस्त्र की गवेषणा पात्र की गवेषणा व उपयोग आहार आहार क्यों? आहार क्यों नहीं ? विशुद्ध आहार आहार का उपयोग आहारसम्बन्धी दोष एकभक्त विहार अर्थात् गमनागमन नौकाविहार पदयात्रा वसति अर्थात् उपाश्रय Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी सामान्य चर्या पर्युषणाकल्प भिक्षु-प्रतिमाएं समाधिमरण अथवा पण्डितमरण Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म उपासक अथवा प्रावक अंशत. हिसादि का त्याग करता है अत. वह देशविरत कहलाता है। श्रमण अथवा भिक्षु पूर्णत. हिंसादि का प्रत्याख्यान करता है अत. वह सर्वविरत कहलाता है। श्रावक के व्रतो को अगुवत अर्थात् आंशिक त्याग और श्रमण के व्रतो को महाव्रत अर्थात् पूर्ण त्याग कहा जाता है। सर्वविरतिरूप महाव्रत पांच हैं : १. सर्वप्राणातिपात-विरमण, २ सर्वमपावाद-विरमण, ३. सर्वअदत्तादान-विरमण, ४. सर्वमैथुन-विरमण, ५. सर्वपरिग्रह-विरमण । प्राणातिपात अर्थात् हिसा आदि का करना, कराना ओर अनुमोदन करना रूप तीन करणो का मन, वचन और काय रूप तीन योगो से निपेध किया गया है। इस प्रकार के त्याग को नवकोटि (३४३%९) प्रत्याख्यान कहा जाता है। प्राणातिपात से नवकोटि से विरति लेना सर्वप्राणातिपात-विरमणरूप प्रथम महाव्रत है। इसी प्रकार मृषावाद अर्थात् झूठ, अदत्तादान अर्थात् चोरी, मैथुन अर्थात् कामभोग और परिग्रह अर्थात् संग्रह के नवकोटि प्रत्याख्यानरूप सर्वमृषावाद-विरमण, सर्वअदत्तादान-विरमण, सर्वमैथुन-विरमण और सर्वपरिग्रह-विरमण के विपय मे समझ लेना चाहिए। ये महाव्रत यावज्जीवन अर्थात् जीवनभर के लिए होते हैं। महात्रत पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : जैन आचार और त्रसकाय जीवनिकाय हैं । इन छ जीवनिकायो की हिसा का नवकोटि- प्रत्याख्यान सर्वप्राणातिपात विरमण महाव्रत कहलाता है । पृथ्वीकाय अर्थात् भूमि, अप्काय अर्थात् जल, तेजस्काय अर्थात् वह्नि, वायुकाय अर्थात् पवन, वनस्पतिकाय अर्थात् हरित और त्रसकाय अर्थात् द्वीन्द्रियादि प्राणी | महाव्रतधारी श्रमण अथवा श्रमणी का कर्तव्य है कि वह दिन मे अथवा रात्रि मे, अकेले अथवा समूह मे, सोते हुए अथवा जागते हुए भूमि, भित्ति, शिला, पत्थर, धुलियुक्त शरीर अथवा वस्त्र को हस्त, पाद, काष्ठ, अंगुली, शलाका आदि से न झाड़े, न पोंछे, न इधर-उधर हिलाये, न छेदन करे, न भेदन करे । अपने धूलियुक्त शरीर आदि को वस्त्रादि मृदु साधनो से सावधानीपूर्वक भाड़े-पोछे । उदक, ओस, हिम, आर्द्र शरीर अथवा आर्द्र वस्त्र को न हुए, न सुखाए, न निचोड़े, न झटके, न अग्नि के पास रखे। अपने गीले शरीर आदि को यतनापूर्वक सुखाए अथवा सूखने दे। अग्नि, अगार, चिनगारी, ज्वाला अथवा उल्का को न जलाये, न बुझाये, न हिलाये, न जल से शान्त करे, न बिखेरे । पखे, पत्र, शाखा, वस्त्र, हस्त, मुख आदि से हवा न करे । बीज, अकुर, पौधे, वृक्ष आदि पर पैर न रखे, नवैठे, न सोये । हाथ, पैर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, शय्या, सस्तारक आदि मे कीट, पतंग, कुथू, चीटी आदि दिखाई देने पर उन्हे यतनापूर्वक एकान्त मे छोड़ दे । प्रत्येक जीव जीने की इच्छा करता है । कोई भी मरना नही चाहता । जिस प्रकार हमे अपना जीवन प्रिय है उसी प्रकार दूसरो को भी अपना जीवन प्रिय है । इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि प्राणवध का त्याग करते है ! असावधानी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म . १३७ पूर्वक बैठने, उठने, चलने, सोने, खाने, पीने, बोलने से पापकर्म बंधता है। इसलिए भिक्षु को समस्त क्रिया यतनापूर्वक करनी चाहिए। जो जीव और अजीव को जानता है, वस्तुत. वही सयम को जानता है। क्योकि जीव और अजीव को जानने पर ही सयमी जीवों की रक्षा कर सकता है। इसलिए कहा गया है कि पहले ज्ञान है, फिर दया । जो सयमी ज्ञानपूर्वक दया का आचरण करता है वही वस्तुत. दयाधर्म का पालन करता है। अज्ञानी न पुण्य-पाप को समझ सकता है, न धर्म-अधर्म को जान सकता है, न हिंसा-अहिंसा का विवेक कर सकता है। आचाराग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की तृतीय चूला मे पाच महाव्रतो की पचीस भावनाएं बताई गई हैं जिनके पालन से महाव्रतो की रक्षा होती है। प्राणातिपात-विरमण की पाच भावनाएं ये हैं . १. ईर्याविषयक समिति-गमनागमनसम्बन्धी सावधानी,२. मन की अपापकता-मानसिक विकाररहितता,३ वचन की अपापकता-वाणी की विशुद्धता, ४. भाण्डोपकरणविषयक समिति-पात्रादि उपकरण-सम्बन्धी सावधानी, ५. भक्त-पानविषयक आलोकिकता-खान-पानसम्बन्धी सचेतता। ये एवं इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाएँ अहिंसावत को सुदृढ एवं सुरक्षित करती हैं। जिस प्रकार सर्वविरत श्रमण जीवकाय की हिंसा का सर्वथा त्याग करता है उसी प्रकार वह मृपावाद से भी सर्वथा विरत होता है। असत्य हिंसादि दोषो का जनक है, यह समझकर वह कदापि असत्य वचन का प्रयोग नहीं करता। वह हमेशा निर्दोप, Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : जैन आचार अकर्कश, असंदिग्ध वाणी बोलता है। क्रोध, मान, माया व लोभमूलक वचन तथा जान-बूझकर अथवा अज्ञानवश प्रयोग किये जाने वाले कठोर वचन अनार्य वचन हैं। ये दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य है। श्रमण को सदिग्ध अथवा अनिश्चित दशा में निश्चय-वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सम्यक्तया निश्चय होने पर ही निश्चय-वाणी बोलनी चाहिए । सदोष, कठोर, जीवों को कष्ट पहुचाने वाली भाषा भिक्षु न बोले। वह सत्य, मृदु, निर्दोष, अभूतोपघातिनी भाषा काम मे ले। सत्य होने पर भी अवज्ञासूचक शब्दों का प्रयोग न करे किन्तु सम्मानसूचक शब्द प्रयोग मे ले । सक्षेप मे कहा जाय तो सर्वविरत भिक्षु को क्रोधादि कषायो का परित्याग कर, समभाव धारण कर विचार व विवेक पूर्वक सयमित सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। सत्यव्रत की पाच भावनाएं ये हैं: १. वाणीविवेक, २. क्रोघत्याग, ३. लोभत्याग,४ भयत्याग, ५. हास्यत्याग। वाणीविवेक अर्थात् सोच-समझकर भाषा का, प्रयोग करना । क्रोधत्याग अर्थात् गुस्सा न करना। लोभत्याग अर्थात् लालच मे न फसना। भयत्याग अर्थात् निर्भीक रहना। हास्यत्याग अर्थात् हँसी-मजाक न करना। इन व इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाओ से सत्यवत की रक्षा होती है। , अदत्तादान से सर्वथा विरमण होने वाला श्रमण कोई भी वस्तु बिना दी हुई ग्रहण नहीं करता। वह बिना अनुमति के एक तिनका उठाना भी स्तेय अर्थात् चोरी समझता है। किसी की गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई अथवा अज्ञात स्वामी की Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १३९ वस्तु को छूना भी उसके लिए निषिद्ध है । आवश्यकता होने पर वह स्वामी की अनुमति से अर्थात् उपयुक्त व्यक्ति के देने पर ही किसी वस्तु को ग्रहण करता है अथवा उसका उपयोग करता है । जिस प्रकार वह स्वयं अदत्तादान का सेवन नही करता उसी प्रकार किसी से करवाता भी नही और करने-कराने वालों का समर्थन भी नही करता । इस प्रकार सर्वविरत मुनि सुविशुद्ध भावना से अदत्तादान - विरमण महाव्रत का पालन करता है | इससे उसके अहिंसाव्रत के पालन मे सहायता मिलती है । अस्तेयव्रत की दृढ़ता एवं सुरक्षा के लिए पाच भावनाएं इस प्रकार बतलाई गई हैं : १. सोच-विचार कर वस्तु की याचना करना, २ आचार्य आदि की अनुमति से भोजन करना, ३ . परिमित पदार्थ स्वीकार करना, ४ . पुनः पुन. पदार्थों की मर्यादा करना, ५ साधर्मिक ( साथी श्रमण ) से परिमित वस्तुओ की # याचना करना । श्रमण-श्रमणी के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है । उसके मैथुनत्याग को सर्वमैथुन - विरमण कहा जाता है । इसमे उसके लिए मन, वचन एव काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निषेध होता है । इसे नवकोटि ब्रह्मचर्य अथवा नवकोटि शील कहा जाता है । मैथुन को अधर्म का मूल तथा महादोषों का स्थान कहा गया है । इससे अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न होते हैं, हिंसादि दोषों और कलह-संघर्षविग्रह का जन्म होता है । यह सब समझकर निग्रंथ मुनि मैथुन के ससर्ग का सर्वथा त्याग करते है । जैसे मुर्गी के बच्चे को Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : जैन आचार बिल्ली से हमेशा डर रहता है उसी प्रकार संयमी श्रमण को स्त्री के शरीर एवं संयत श्रमणी को पुरुप की काया से सदा भय रहता है । वे स्त्री-पुरुष के रूप, रंग, चित्र आदि देखना तथा गीत आदि सुनना भी पाप समझते हैं। यदि उस ओर दृष्टि चली भी जाय तो वे तुरन्त सावधान होकर अपनी दृष्टि को खीच लेते हैं। वे बाल, युवा एव वृद्ध सभी प्रकार के नर-नारियो से दूर रहते हैं। इतना ही नही, वे किसी भी प्रकार के कामोत्तेजक अथवा इन्द्रियाकर्षक पदार्थ से अपना सम्बन्ध नही जोडते । ब्रह्मचर्यव्रत के पालन के लिए पांच भावनाएं इस रूप मे बतलाई गई हैं. १. स्त्री-कथा न करना, २. स्त्री के अंगो का अवलोकन न करना, ३.पूर्वानुभूत काम-क्रीडा आदि का स्मरण न करना, ४. मात्रा का अतिक्रमण कर भोजन न करना, ५ स्त्री आदि से सम्बद्ध स्थान मे न रहना । जिस प्रकार श्रमण के लिए स्त्री-कथा आदि का निषेध है उसी प्रकार श्रमणी के लिए पुरुषकथा आदि का प्रतिषेध है। ये एवं इसी प्रकार की अन्य भावनाएं सर्वमैथुन-विरमण व्रत की सफलता के लिए अनिवार्य है। सर्वविरत श्रमण के लिए सर्वपरिग्रह-विरमण भी अनिवार्य है। परिग्रह मानव-जीवन का एक बहुत बड़ा पाप है, दोप है, हिंसा है। यह मनुष्य की मनोवृत्ति को उत्तरोत्तर कलुषित करता है। इससे व्यक्ति मे अशान्ति उत्पन्न होती है, अशुभ भावनाएँ पैदा होती हैं तथा समाज मे सघर्ष बढता है, कलह पनपता है। किसी भी वस्तु का ममत्वमूलक सग्रह परिग्रह कहलाता है । सर्वविरत श्रमण स्वय इस प्रकार का संग्रह कदापि नहीं करता, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १४१ दूसरो से नहीं कराता और करने वालों का समर्थन नही करता। वह पूर्णतया अनासक्त एव अकिंचन होता है। इतना ही नही, वह अपने शरीर पर भी ममत्व नही रखता। सयमनिर्वाह के लिए वह जो कुछ भी अल्पतम उपकरण अपने पास रखता है उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। उनके खो जाने अथवा नष्ट हो जाने पर उसे शोक नही होता तथा प्राप्त होने पर हर्ष नही होता, वह उन्हें केवल संयम-यात्रा के साधन के रूप में काम मे लेता है। जिस प्रकार वह अपने शरीर का अनासक्त भाव से पालन-पोपण करता है उसी प्रकार अपने उपकरणों का भी निर्मम भाव से रक्षण करता है। ममत्व अथवा आसक्ति आन्तरिक ग्रन्थि है। जो साधक इस ग्रन्थि का छेदन करता है वह निग्रन्थ कहलाता है। सर्वविरत भ्रमण इसी प्रकार का निर्ग्रन्थ होता है। ___अपरिग्रहनत की पाँच भावनाएँ ये हैं : १. श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति राग-द्वेषरहितता अर्थात् अनासक्त भाव, २. चक्षुरिन्द्रिय के विषय रूप के प्रति अनासक्त भाव, ३ घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध के प्रति अनासक्त भाव, ४. रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव, ५ स्पर्शनेन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव । रात्रिभोजन-विरमणवत: वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार के मूलगुणाधिकार नामक प्रथम प्रकरण मे सर्वविरत श्रमण के २८ मूल गुणों का वर्णन है. पाच Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ : जैन आचार महानत, पाच समितियाँ, पाच इन्द्रियों का निरोध, छः प्रावश्यक, लोच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त । एकभक्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मुनि सूर्योदय व सूर्यास्त के मध्य मे एक बार भोजन करता है। सूर्यास्त व सूर्योदय के बीच यानी रात्रि मे उसके भोजन का सर्वथा त्याग होता है। दशवकालिक सूत्र के क्षुल्लिकाचार-कथा नामक तृतीय अध्ययन में निर्ग्रन्थो के लिए औद्देशिक भोजन, क्रीत भोजन, आमन्त्रण स्वीकार कर ग्रहण किया हुआ भोजन यावत् रात्रिभोजन का निषेध किया गया है । षड्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन मे पाँच महाव्रतो के साथ रात्रिभोजन-विरमण का भी प्रतिपादन किया गया है एवं उसे छठा व्रत कहा गया है। आचारप्रणिधि नामक आठवे अध्ययन मे स्पष्ट कहा गया है कि रात्रिभोजन हिंसादि दोषो का जनक है। अत निर्ग्रन्थ सूर्य के अस्त होने से लेकर सूर्य का उदय होने तक किसी भी प्रकार के आहारादि की मन से भी इच्छा न करे। इस प्रकार जैन आचार-ग्रन्थों मे सर्वविरत के लिए रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध किया गया है। वह आहार, पानी आदि किसी भी वस्तु का रात्रि मे उपभोग नही करता । जैन आचार-शाख अहिंसानत की सम्पूर्ण साधना के लिए रात्रिभोजन का त्याग अनिवार्य मानता है। घडावश्यक : . • मूलाचार आदि दिगम्बर परम्परा के आचार-ग्रन्थों एवं आवश्यक आदि श्वेताम्बर परम्परा के आचार-ग्रन्थों मे सर्वविरत Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म . १४३ मुनि के लिए षड़ावश्यक अर्थात् छ. आवश्यको का विधान किया गया है। इनके नाम दोनो परम्पराओ मे, एक हैं-अभिन्न है। क्रम की दृष्टि से पांचवें व छठे नाम मे विपर्यय है। दिगम्बर परम्परा। मे इनका क्रम इस प्रकार है . १. सामायिक, २ चतुविशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग। श्वेताम्बर परम्पराभिमत पडावश्यक-क्रम यो है: १ सामायिक, २.,चतुर्विशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५ कायोत्सर्ग, ६ प्रत्याख्यान । ____ जो अवश्य करने योग्य होता है उसे आवश्यक कहते हैं। सामायिक आदि मुनि की प्रतिदिन करने योग्य क्रियाएं हैं अतः इन्हे आवश्यक कहा जाता है। दूसरे शब्दो मे सामायिकादि षडावश्यक निर्ग्रन्थ के नित्यकर्म हैं। इन्हें श्रमण को प्रतिदिन दोनों समय अर्थात् दिन व रात्रि के अन्त मे अवश्य करना होता है। सम को आय करना अर्थात् त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समभाव रखना सामायिक है। जिसकी आत्मा संयम, नियम व तप मे सलीन होती है अर्थात् जो आत्मा को मन, वचन, व काय की पापपूर्ण प्रवत्तियो से हटाकर निरव व्यापार मे प्रवृत्त करता है उसे सामायिक की प्राप्ति होती है। सामायिक मे बाह्य दृष्टि का त्यागकर अन्तष्टि अपनाई जाती है-बहिर्मुखी प्रवृत्ति त्यागकर, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति स्वीकार की जाती है। सामायिक समस्त प्राध्यात्मिक,साधनाओ की आधारशिला है। जब साधक सर्व सावध योग से विरत होता है, छ काय के जीवो के प्रति संयत होता है, मन-वचन-काय को नियन्त्रित करता है, आत्म Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४. जैन आचार स्वरूप मे उपयुक्त होता है, यतनापूर्वक आचरण करता है तव वह सामायिकयुक्त होता है । समभावरूप सामायिक के महान् साधक एव उपदेशक तीर्थंकरो की स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है । तीर्थकर का अर्थ है तीर्थ की स्थापना करने वाला | जिसके द्वारा संसार-सागर तरा जाता है-पार किया जाता है उसे तीर्थ कहते हैं । इस प्रकार का तीर्थ धर्म कहलाता है । जो तीर्थ अर्थात् धर्मका प्रवर्तन करता है वह तीर्थंकर कहलाता है । जैन परम्परा मे इस प्रकार के चौवीस तीर्थंकर माने गये हैं । इन्होने भिन्न-भिन्न समय मे निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवर्तन किया है । भगवान् महावीर निर्ग्रन्थ धर्म के अन्तिम प्रवर्तक हुए हैं । इन्हे चौवीसवाँ तीर्थंकर कहा जाता है । चौबीस तीर्थंकरो का उत्कीतन करना चतुर्विंशतिस्तव है । त्याग, वैराग्य, सयम व साधना के महान् आदर्श एवं सामायिक धर्म के परम पुरस्कर्ता वीतराग तीर्थकरो के उत्कीर्तन से आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है । उनकी स्तुति से साधना का मार्ग प्रशस्त होता है । उनके गुण-कीर्तन से संयम में स्थिरता आती है । उनकी भक्ति से प्रशस्त भावो की वृद्धि होती है । तीर्थंकरो की स्तुति करने से प्रसुप्त आन्तरिक चेतना जाग्रत होती है । केवल स्तुति से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है, ऐसा नही मानना चाहिए । स्तुति तो सोयी हुई आत्मचेतना को जगाने का केवल एक साधन है । तीर्थंकरो की स्तुति मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति नही हो जाती । मुक्ति के लिए भक्ति एवं स्तुति के साथ-साथ संयम एवं साधना भी आवश्यक है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १४५ जिस प्रकार मुनि के लिए तीर्थंकर-स्तव आवश्यक है उसी प्रकार गुरुस्तव भी आवश्यक है । गुरु-स्तव को आवश्यक सूत्र मे वंदन कहा गया है। तीर्थकर के बाद यदि वदन करने योग्य है तो वह गुरु है क्योकि गुरु अहिंसा आदि की उत्कृष्ट आराधना करने के कारण शिष्य के लिए साक्षात् आदर्ग का कार्य करता है। उससे उसे प्रत्यक्ष प्रेरणा प्राप्त होती है। उसके प्रति सम्मान होने पर उसके गुणो के प्रति सम्मान होता है। तीर्थकर के वाद सद्धर्म का उपदेश देने वाला गुरु ही होता है। गुरु ज्ञान व चारित्र दोनो मे वडा होता है अत. वन्दन योग्य है। गुरुदेव को वन्दन करने का अर्थ होता है गुरुदेव का उत्कीर्तन व अभिवादन करना। वाणी से उत्कीर्तन अर्थात् स्तवन किया जाता है तथा शरीर से अभिवादन अर्थात् प्रणाम । गुरु को वन्दन इसलिए किया जाता है कि वह गुणो मे गुरु अर्थात् भारी होता है। गुणहीन व्यक्ति को अवन्दनीय कहा गया है। जो गुणहीन अर्थात् अवद्य को बदन करता है उसके कर्मों की निर्जरा नही होती, उसके सयम का पोषण नहीं होता। इस प्रकार के वन्दन से असयम का अनुमोदन, अनाचार का समर्थन, दोषो का पोषण और पाप-कर्म का बन्धन होता है। इस प्रकार का वन्दन केवल कायक्लेश है। अवंद्य को वन्दन करने मे वन्दन करने वाले एव वन्दन कराने वाले दोनो का पतन होता है । वन्दन आवश्यक का समुचित पालन करने से विनय की प्राप्ति होती है, अहभाव की समाप्ति होती है, उत्कृष्ट आदर्शों का ज्ञान होता है, गुरुजनो का सम्मान होता है, तीर्थंकरो की आज्ञा की अनुपालना और श्रुतधर्म की आराधना होती है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : जैन आचार परिणामत. आत्मशक्ति की वृद्धि-विकास होता है तथा अन्ततोगत्वा सिद्धि प्राप्त होती है-मुक्ति मिलती है । अतः साधक को गुरु-वन्दन के प्रति उदासीनता अथवा प्रमत्तता नही रखनी चाहिए। प्रमादवश शुभ योग से च्युत होकर अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। मन, वचन अथवा काया से कृत, कारित अथवा अनुमोदित पापो की निवृत्ति के लिए आलोचना करना, पश्चात्ताप करना, निन्दा करना, अशुद्धि का त्याग कर शुद्धि प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। यह एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन एवं परिग्रहरूप जिन पापकर्मों का निर्ग्रन्थ श्रमण के लिए प्रतिषेध किया गया है उनका प्रमादवश उपार्जन करने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए। सामायिक, स्वाध्याय आदि जिन शुभ प्रवृत्तियो का सर्वविरत सयमी के लिए विधान किया गया है, उनका आचरण न करने पर भी प्रतिक्रमण करना चाहिए। क्योंकि अकर्तव्य कर्म को करना जैसे पाप है वैसे ही कर्तव्य कर्म को न करना भी पाप ही है। इसी प्रकार मानसिक व वाचिक शुद्धि के लिए भी प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। प्रतिक्रमण भी सामायिक आदि की ही तरह केवल क्रिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उससे वस्तुतः दोष-शुद्धि होनी चाहिए। तभी प्रतिक्रमण करना सार्थक कहा जाएगा। इसी बात को पारिभापिक पदावली मे यो कह सकते हैं कि सक्षम साधक के लिए भाव-प्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य-प्रतिक्रमण Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १४५ नही । उपयोगयुक्त प्रतिक्रमण भाव-प्रतिक्रमण है तथा उपयोगशून्य प्रतिक्रमण द्रव्य-प्रतिक्रमण है। यही बात सामायिकादि अन्य क्रियाओं के विषय मे भी सत्य है। एक बार दोषोंकी शुद्धि करने के बाद बार-बार उन दोषों का सेवन करना तथा उनकी शुद्धि के लिए बार-बार प्रतिक्रमण करना वस्तुत. प्रतिक्रमण नहीं कहा जा सकता । प्रतिक्रमण का उद्देश्य सेवित दोषों की शुद्धि करना तथा उन दोषों की पुनरावृत्ति न करना है। बार-बार दोषों का सेवन करना व बार-बार उनका प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण का परिहास करना है। इससे दोषशुद्धि होने के बजाय दोषवृद्धि ही होती है। काय के उत्सर्ग अर्थात् शरीर के त्याग को कार्योत्सर्ग कहते हैं । यह कैसे ? यहाँ शरीरत्याग का अर्थ है शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग । शारीरिक ममत्व को छोडकर आत्म-स्वरूप मे लीन होने का नाम कायोत्सग है। साधक जब बहिर्मुखवृत्ति का त्याग कर अन्तर्मुखवृत्तिको स्वीकार करता है तब वह अपने शरीर के प्रति भी अनासक्त हो जाता है अर्थात् स्व-शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग कर देता है। इस स्थिति मे उस पर जो कुछ भी सकट आता है, वह समभावपूर्वक सहन करता है। ध्यान की साधना अर्थात् चित्त की एकाग्रता के अभ्यास के लिए कायोत्सर्ग अनिवार्य है। कायोत्सर्ग मे हिलना-डुलना, बोलना-चलना, उठनावैठना आदि वन्द होता है। एक स्थान पर बैठकर निश्चल एवं निस्पन्द मुद्रा मे खडे होकर अथवा निनिमेष दृष्टि से आत्मध्यान मे लगना होता है। सर्वविरत श्रमण प्रतिदिन प्रात. व सायं Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : जैन आचार कायोत्सर्ग द्वारा शरीर व आत्मा के सम्बन्ध में विचार करता है कि यह शरीर अन्य है और में अन्य हूँ। मै चैतन्य हूँ-आत्मा हूँ जब कि यह शरीर जड़ है-भौति है। अपने से भिन्न इस शरीर पर ममत्व रखना अनुचित है। इस प्रकार की उदात्त भावना के अभ्यास के कारण वह कायोत्सर्ग के समय अथवा अन्य प्रसग पर आने वाले सभी प्रकार के उपसर्गों-कष्टो को सम्यक प्रकार से सहन करता है । ऐसा करने पर ही उसका कायोत्सर्ग सफल होता है। कायोत्सर्ग भी द्रव्य व भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। शरीर की चेष्टाओ का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल एवं निस्पन्द स्थिति मे खडे रहना अथवा बैठना द्रव्य-कायोत्सर्ग है। ध्यान अर्थात् आत्मचिन्तन भाव-कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग मे ध्यान का हो विशेष महत्त्व है । शारीरिक स्थिरता ध्यान की निर्विघ्न साधना के लिए आवश्यक है। कायचेष्टा-निरोधरूप द्रव्य-कायोत्सर्ग आत्म-चिन्तनरूप भावकायोत्सर्ग की भूमिका का कार्य करता है। अत. कायोत्सर्ग की सम्यक् सिद्धि के लिए द्रव्य व भाव दोनों रूप आवश्यक है। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। वैसे तो सर्वविरत मुनि के हिंसादि दोपो से युक्त सर्व पदार्थों का त्याग होता ही है किन्तु निर्दोष पदार्थों मे से भी अमुक का त्याग कर अमुक का सेवन करना अनासक्त भाव के सिंचन के लिए आवश्यक है। प्रत्याख्यान आवश्यक इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है । इसके द्वारा मुनि अमुक समय तक के लिए अथवा जीवनभर के लिए अमुक प्रकार के अथवा सब प्रकार के पदार्थों के सेवन का त्याग करता है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १४९ मनोविकारो का नियन्त्रण इससे तृष्णा, लोभ, अशान्ति आदि होता है । तन, मन व वचन अशुभ प्रवृत्तियो से रुककर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं । भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) सूत्र के सातवे शतक के दूसरे उद्देशक मे प्रत्याख्यान के विविध भेदो का वर्णन | इनमे अनागत आदि दस भेद प्रत्याख्यान का स्वरूप समझने के लिए विशेष उपयोगी हैं। इन दस प्रकार के प्रत्याख्यानो के नाम ये हैं : १ अनागत, २ अतिक्रात, ३ कोटियुक्त, ४ नियन्त्रित, ५ सागार, ६. अनागार, ७. कृतपरिमाण, ८. निरवशेष, ९ साकेतिक, १०. कालिक, । पर्व आदि विशिष्ट अवसर पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान अर्थात् त्यागविशेषतपविशेष कारणवशात् पर्व आदि से पहले ही कर लेना अनागत प्रत्याख्यान है । पर्व आदि के व्यतीत हो जाने पर तपविशेष की आराधना करना अतिक्रांत प्रत्याख्यान है । एक तप के समाप्त होते ही दूसरा तप प्रारम्भ कर देना कोटियुक्त प्रत्याख्यान है । रोग आदि की बाधा आने पर भी पूर्वसंकल्पित त्याग निश्चित समय पर करना एव उसे दृढतापूर्वक पूर्ण करना नियन्त्रित प्रत्याख्यान है । त्याग करते समय आगार अर्थात् अपवादविशेष की छूट रख लेना सागार प्रत्याख्यान है । आगार रखे विना त्याग करना अनागार प्रत्याख्यान है । भोज्य पदार्थ आदि को संख्या अथवा मात्रा का निर्धारण करना कृतपरिमाण प्रत्याख्यान है । अशनादि चतुर्विध अर्थात् सम्पूर्ण आहार का त्याग करना निरवशेष प्रत्याख्यान है । इसमे पानी का त्याग भी शामिल है । किसी प्रकार के सकेत के साथ किया जानेवाला त्याग Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० : जैन आचार साकेतिक प्रत्याख्यान कहलाता है, यथा मुट्ठी बांधकर, गाठ बाधकर अथवा अन्य प्रकार से यह प्रत्याख्यान करना कि जब तक मेरी यह मुट्ठी या गाठ बंधी हुई है अथवा अमुक वस्तु अमुक प्रकार से पड़ी हुई है तब तक मैं चतुर्विध आहार, त्रिविध आहार आदि का त्याग करता हूँ। कालविशेष की निश्चित मर्यादा अर्थात् समय की निश्चित अवधि के साथ किया जाने वाला त्याग कालिक प्रत्याख्यान अथवा अद्धा-प्रत्याख्यान कहलाता है। जैन परिभाषा मे अद्धा का अर्थ काल होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के सम्यक्त्व-पराक्रम नामक उनतीसवे अध्ययन मे षडावश्यक का संक्षिप्त फल इस प्रकार बतलाया गया है : सामायिक से सावध योग (पापकर्म) से निवृत्ति होती है। चतुर्विशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि (श्रद्धा-शुद्धि ) होती है। वंदन से नीच गोत्रकम का क्षय होता है, उच्च गोत्रकर्म का बध होता है, सौभाग्य की प्राप्ति होती है, अप्रतिहत आज्ञाफल मिलता है तथा दाक्षिण्यभाव ( कुशलता ) की उपलब्धि होती है। प्रतिक्रमण से व्रतो के दोषरूप छिद्रो का निरोध होता है। परिणामतः आस्रव ( कर्मागमन-द्वार ) बंद होता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन होता है। कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्त-विशुद्धि होती है-अतिचारों की शुद्धि होती है जिससे आत्मा प्रशस्त धर्मध्यान मे रमण करता हुआ परमसुख का अनुभव करता है। प्रत्याख्यान से आस्रव-द्वार वन्द होते हैं तथा इच्छा का निरोध Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १५१ होता है । इच्छा का निरोध होने के कारण साधक वितृष्ण अर्थात् निस्पृह होता हुआ शान्तचित्त होकर विचरता है । सर्वविरत श्रमण के लिए जिनका पालन आवश्यक बताया गया है उन पडावश्यको का आचरण देशविरत श्रावक भी अपनी मर्यादानुसार करता है । इससे उसके व्रतों मे दृढता आती है तथा दोषशुद्धि होती है | श्रावक के लिए प्रतिक्रमण आदि के अलग पाठो की व्यवस्था भी जैन आचारशास्त्र मे की गई है । आदर्श श्रमण : यदि श्रमण जीवन का आदर्श एवं हृदय स्पर्शी चित्र देखना हो तो आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवम अध्ययन पढना चाहिए । इस अध्ययन का नाम उपधानश्रुत है । उपधान शब्द की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार ने बताया है कि तकिया द्रव्यउपधान है जिससे शयन करने मे सुविधा मिलती है; तथा तपस्या भाव - उपधान है जिससे चारित्रपालन मे सहायता मिलती है । जिस प्रकार जल से मलिन वस्त्र शुद्ध होता है उसी प्रकार तपस्या से आत्मा के कर्ममल का नाश होता है । प्रस्तुत अध्ययन मे श्रमण भगवान् महावीर की साधनाकालीन तपस्या का हृदय स्पर्शी वर्णन | महावीर एक आदर्श श्रमण थे । उन्होंने अपने श्रमण - जीवन मे जिस प्रकार की कठोर तपस्या का सेवन किया उस प्रकार की कठोर तपस्या प्रत्येक जैन श्रमण के लिए आचरणीय है । वही श्रमण भगवान् महावीर का सच्चा अनुयायी है जो उपधानश्रुतनिर्दिष्ट तपोमय जीवन जोने का सक्रिय प्रयत्न करता है । उसकी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : जैन आचार साधना तदाधारित होनी चाहिए, उसके समक्ष सदा महावीर का तप.कर्म आदर्श के रूप मे रहना चाहिए। विशुद्ध तपोमय जीवन ही श्रमणधर्म का आदर्श है। यही श्रामण्य है-श्रमण-जीवन का सार है। उपधानश्रुत अध्ययन चार उद्देशो मे विभक्त है। प्रथम उद्देश मे महावीर की चर्या अर्थात् विहार का वर्णन है। द्वितीय मे शयया अर्थात् वसति, तृतीय मे परीषह अर्थात् कष्ट तथा चतुर्थ मे आतक-चिकित्सा का वर्णन किया गया है। इस संपूर्ण वर्णन मे तपस्या का सामान्य रूप से समावेश किया गया है। यह वर्णन इतना सहज, समीचीन एव सरल है कि पाठक अथवा श्रोता का सिर उस महान तपोमूर्ति के सामने स्वत भद्धावनत हो जाता है। जब से महावीर गृहत्याग करके अनगार बनते हैं तभी से उनका विहार प्रारभ होता है। आचाराग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भावना नामक तृतीय चूला मे यह बताया गया है कि महावीर तीस वर्प तक घर मे रहने के बाद अपने माता-पिता की मृत्यु होने पर सब कुछ त्याग कर अनगार बने अर्थात् सर्वविरत श्रमण हुए। जव उन्होने दीक्षा ग्रहण की तब उनके पास केवल एक वस्त्र था । दीक्षा के समय उन्होने सामायिक चारित्र ग्रहण किया अर्थात् सर्व सावध योग का प्रत्याख्यान किया-सब प्रकार की सदोष प्रवृत्तियो का त्याग किया एवं सब प्रकार के उपसर्ग सहन करने की प्रतिज्ञा की। उन्होने इस प्रकार का जीवन जीना प्रारभ किया कि जिसमे कषायजन्य हिंसादि दोपों की तनिक भी संभावना न रहे। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १५३ उपधानश्रुत के प्रथम उद्देश की पहली ही गाथा मे बतलाया गया है कि महावीर प्रव्रज्या ग्रहण कर तुरन्त ही विहार (पदयात्रा) के लिए चल पडे। आगे की गाथाओ मे कहा गया है कि उस समय उन्होने प्रतिज्ञा की कि मेरे पास जो यह एक वस्त्र है इससे मैं अपने शरीर का आच्छादन नहीं करूंगा। इतना ही नही, कुछ समय बाद ( तेरह महीने वाद) उन्होने उस वस्त्र का भी त्याग कर दिया एव सर्वथा अचेल होकर भ्रमण करने लगे । तब फिर दीक्षा के समय महावीर ने अपने पास जो वस्त्र (एक शाटक) रखा वह किसलिए? वह वस्त्र संभवत प्रव्रज्या की तद्देशीय प्रणाली के अनुसार वे अपने कधे पर रखे रहे अथवा उससे पोछने आदि का काम लेते रहे। चाहे कुछ भी हुआ हो, इतना निश्चित है कि महावीर प्रव्रज्या लेने के साथ ही अचेल अर्थात् नग्न हो गए तथा मृत्युपर्यन्त नग्न ही रहे एवं किसी भी रूप में अपने शरीर के लिए वस्त्र का उपयोग नहीं किया। दीक्षा के पूर्व शरीर पर चंदनादि का विलेपन किया गया था, अतः महावीर पर चार मास से भी अधिक समय तक स्थानस्थान पर नाना प्रकार के जीव-जन्तुओ का आक्रमण होता रहा एवं उनके शरीर को विविध प्रकार से कष्ट पहुंचता रहा। वे चलत समय पुरुष-प्रमाण मार्ग का अवलोकन करते एव सावधानी पूर्वक चलते । उन्हे देखकर भयभीत हुए वालक उन्हें मार-मार कर आक्रन्दन करते । मार्ग मे अभिवादन होने पर अथवा मार पड़ने पर वे समान भाव से रहते व किसी से कुछ नही कहते । उन्हें पाख्यान, नृत्य, गीत, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि मे कोई Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : जैन आचार रस नही था । वे असह्य कष्टों को भी शान्ति से सहन करते हुए आगे बढते चलते । उन्होंने दीक्षा लेने के दो वर्ष से भी पहले से ही शीतल (सचित्त) जल का त्याग कर रखा था। उन्होंने यह जान लिया था कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय सचित्त हैं-चेतन हैं, अतः वे इन सब से बचकर विचरण करते। विहार में किसी सचित्त काय की हिंसा न हो, इसका वे पूरा ध्यान रखते । उन्होने स्वयं हिंसा न करने तथा दूसरो से हिंसा न करवाने का व्रत ग्रहण कर रखा था। स्त्रियों को (पुरुषों की अपेक्षा से ) सर्व पापकर्म की जड़ समझ कर उनका उस संयमी ने सर्वथा परित्याग कर रखा था । वे आधाकर्म अर्थात् अपने निमित्त से बने हुए आहारादि का सेवन न करते । जिसमे तनिक भी पाप की संभावना होती वैसा कोई भी कार्य न करते हुए निर्दोष आहारादि का सेवन करते। वे न परवस्त्र का ( पोंछने आदि मे) उपयोग करते, न परपात्र ( भोजनादि के लिए) काम मे लाते। मानापमान का त्याग कर अदीन-मनस्क होकर भिक्षा के लिए जाते एवं अशन और 'पान की मात्रा का पूरा ध्यान रखते हुए रसों मे गृद्ध न होकर जो कुछ मिल जाता, खा लेते । वे न आँखो का प्रमार्जन करते; न शरीर को खुजलाते। रास्ते चलते इधर-उधर बहुत कम देखते। पूछने पर अल्प उत्तर देते व यतनापूर्वक चलते । श्रमण भगवान् महावीर वितरण करते हुए गृह, पण्यशाला (दुकान), पालितस्थान ( कारखाना), पलालपुंज, आगन्तार ( अतिथिगृह), आरामागार, श्मशान, शून्यागार, वृक्षमूल आदि Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १५५ स्थानों मे ठहरते एवं अप्रमत्त होकर रात-दिन ध्यान करते । निद्रा की तनिक भी कामना नही करते । अनिच्छा से थोड़ी नीद आ __ जाने पर खडे होकर आत्मा को जागरूक करते । पुन. निद्रा आने पर बाहर निकल कर मुहूर्त-पर्यन्त चक्रमण कर लेते। उन्हें वसति-स्थानो मे ससपिंप्राणियो, पक्षियो, दुराचारियो, ग्रामरक्षको,शस्त्रधारियों द्वारा अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते । इहलोक व परलोक-संबंधी नाना प्रकार के भय तथा अनुकूल व प्रतिकूल इन्द्रिय-विषय उपस्थित होनेपर वे रति व अरति का अभिभव करके मध्यस्थ होकर सब कुछ सह लेते। ध्यानस्थ महावीर को कोई आकर कुछ पूछता और उत्तर न मिलने पर क्रुद्ध हो जाता। कभी-कभी भगवान् 'मैं भिक्षुक हूँ' एसा उत्तर भी दे देते, किन्तु प्रायः मौन होकर ध्यानमग्न ही रहते । शिशिर ऋतु मे जव अन्य लोग शीतल वायु से कापते, यहाँ तक कि अनगार अर्थात् साधु भी निर्वात स्थान की खोज मे रहते, संघाटी से अपना शरीर ढकते, कोई-कोई तो इंधन भी जला लेते तब भी भगवान् महावीर खुले स्थान मे ही रहकर शीत सहन करते। महावीर को सर्वत्र परीषह सहन करने पड़े। उन्हें विशेष रूप से लाढ देश मे जो कष्ट उठाने पडे वे भयकर थे। उन्होने लाढ देश के वज्रभूमि और शुभ्रभूमि नामक दोनों दुश्चर प्रदेशो मे विचरग किया। यहाँ उन पर अनेक असह्य आपत्तियां आई। यहां के निवासियों ने उन्हे बुरी तरह से मारा-पीटा । यहाँ के कुत्तों ने उन्हें खूब काटा । लोगों ने कुत्तो को भगाने की बजाय 'छू छू' करके महावीर की ओर दौडाया। यहाँ की वज्रभूमि ऐसी थी Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : जैन आचार कि लाठी लेकर चलने वाले श्रमणो को भी कुत्ते काट खाते थे । महावीर ने तो लाठी का भी त्याग कर रखा था, अतः कुत्तों ने उन्हे अत्यधिक परेशान किया । कई बार उन्हे बहुत दूर तक गाँव मिलता ही नही फिर भी वे विहार करते हुए व्याकुल न होते । कई बार गाँव के लोग पहले ही उनके पास आकर उन्हें वहाँ से भाग जाने के लिए कहते । कई बार ऐसा भी होता कि गाँव के लोग उन्हें 'मारो-मारो' की आवाज करके लाठियो, भालों, पत्थरो, मुक्कों से मारते, उनके शरीर पर घाव कर देते, उन पर धूलि फेकते, उन्हे धक्के लगाकर गिरा देते । परीषहों का हृदय से स्वागत करने वाले महान् सयमी श्रमण भगवान् महावीर अपनी काया का मोह छोड़कर इन सब उपद्रवो को वीरतापूर्वक सहन करते एव संयममार्ग मे अधिक दृढतापूर्वक अग्रसर होते । यही महावीर की शूरता थी । वे केवल आने वाले उपसर्गों का स्वागत ही नही करते अपितु कर्मनिर्जरा के निमित्त नये-नये उपसर्गों को आमन्त्रित भी करते । यही उनकी महावीरता थी । 3 I रहते । रोगान्तक हो या न हो, महावीर ने चिकित्सा की कामना कभी नही की । वे हमेशा अवमौदर्य अर्थात् अल्पाहार करते । स्नान, सशुद्धि, अभ्यंगन, प्रक्षालन आदि से सदा दूर इन्द्रियो के विषयो के प्रति उनकी तनिक भी आसक्ति न थी । वे ठंड के दिनो मे छाया मे व गरमी के दिनो मे धूप मे रहकर ध्यान धरते । ओदन, कुल्माप आदि रूक्ष पदार्थों का आहार 1 करते । कई बार आधा महीना अथवा पूरा महीना बिना पानी के ही बिता देते । कभी-कभी दो मास से भी अधिक, यहाँ तक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १५७ 1 कि छः मास तक बिना पानी ही विचरण करते रहते । कभी वासी अन्न मिल जाता तो खा लेते और वह भी दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन मे एक बार । वे अपने आहार के लिए न स्वयं पाप करते, न दूसरो से करवाते और न करने वाले का अनुमोदन ही करते । दूसरो के निमित्त से बने हुए सुविशुद्ध आहार का अनासक्त भाव से सेवन करते । गोचरी अर्थात् आहार की गवेषणा के लिए जाते-आते मार्ग मे किन्ही पशु-पक्षियो को किसी प्रकार कष्ट न हो, इसका पूरा ध्यान रखते । अपने आहार के कारण किसी ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि आदि की वृत्ति का उच्छेद न हो, किसी की प्रीति न हो, किसी को अन्तराय न पहुँचे -- इसकी पूरी सावधानी रखते । रूखा-सूखा जो कुछ मिल जाता, अनासक्तिपूर्वक खा लेते। कुछ प्राप्त न होने की अवस्था मे भी मन मे तनिक भी क्रोध अथवा निराशा न लाते । वे निष्कषाय, अनासक्त एव मूर्च्छारहित थे तथा छद्मस्थ अर्थात् अपूर्ण ज्ञानी होते हुए भी प्रमाद-मुक्त थे । वे स्वत. तत्त्व का अभिगम कर आत्मशुद्धिपूर्वक अभिनिवृत्त हुए एवं यावज्जीवन मोह, माया व ममता का त्याग कर समभाव के आराधक बने । अचेलकत्व व सचेलकत्व : वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार के समयसाराधिकार मे मुनि के लिए चार प्रकार का लिंगकल्प ( आचारचिह्न ) बताया गया • है १. अचेलकत्व, २. लोच, ३ व्युत्सृष्टशरीरता, ४ प्रति लेखन । अचेलकत्व का अर्थ है वस्त्रादि सर्व परिग्रह का परिहार । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : जैन आचार लोच का अर्थ है अपने अथवा दूसरे के हाथों से मस्तकादि के केशों का अपनयन । व्युत्सृष्टशरीरता का अर्थ है स्नान-अभ्यंगनअंजन-परिमर्दन आदि सर्व सस्कारों का अभाव । प्रतिलेखन का अर्थ है मयूरपिच्छ का ग्रहण । अचेलकत्व निःसंगता अर्थात् अनासक्ति का चिह्न है। लोच सद्भावना का सकेत है। व्युत्सृष्टशरीरता अपरागता का प्रतीक है। प्रतिलेखन दयाप्रतिपालन का चिह्न है । यह चार प्रकार का लिगकल्प चारित्रोपकारक होने के कारण आचरणीय है। बृहत्कल्प के छठे उद्देश के अन्त मे छः प्रकार की कल्पस्थिति (आचारमर्यादा) बतलाई गई है : १. सामायिकसंयतकल्पस्थिति, २. छेदोपस्थापनीयसंयत-कल्पस्थिति, ३. निर्विशमान-कल्पस्थिति, ४. निविष्टकायिक-कल्पस्थिति, ५. जिन-कल्पस्थिति, ६. स्थविर-कल्पस्थिति । सर्वसावद्ययोगविरतिरूप सामायिक स्वीकार करने वाला सामायिकसंयत कहलाता है। पूर्व पर्याय अर्थात पहले की साधु-अवस्था का छेद अर्थात् नाश ( अथवा कमी) करके सयम की पुन. स्थापना करने योग्य श्रमण छेदोपस्थापनीयसयत कहलाता है । इस कल्पस्थिति मे मुनिजीवन का अध्याय पुन प्रारभ होता है (अथवा पुन. आगे बढता है)। परिहारविशुद्धि-कल्प (तपविशेष ) का सेवन करने वाला श्रमण निर्विशमान कहा जाता है। जिसने परिहारविशुद्धिक तप का सेवन कर लिया हो उसे निविष्टकायिक कहते है। गच्छ से निर्गत अर्थात् श्रमणसंघ का त्याग कर एकाकी सयम की साधना करने वाले साधुविशेष जिन अर्थात् जिनकल्पिक कहलाते Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १५९ हैं । गच्छप्रतिबद्ध अर्थात् श्रमणसंघ मे रहकर संयम की आराधना करने वाले आचार्य आदि स्थविर अर्थात् स्थविरकल्पिक कहे जाते हैं। यही कारण है कि जिनकल्पिको व स्थविरकल्पिको की 'आचारमर्यादा मे अन्तर है । जिनकल्पिक अचेलकधर्म का आचरण करते हैं जबकि स्थविरकल्पिक सचेलकधर्म का पालन करते हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के धुत नामक छठे अध्ययन मे स्पष्ट बतलाया गया है कि कुछ अनगार ऐसे भी होते हैं जो सयम ग्रहण करने के बाद एकाग्रचित्त होकर सब प्रकार की आसक्ति का त्याग कर एकत्व-भावना का अवलम्बन लेकर मुण्ड होकर अचेल बन जाते हैं अर्थात् वस्त्र का भी त्याग कर देते हैं तथा आहार मे भी क्रमशः कमी करते हुए सर्व कष्टों को सहन कर अपने कर्मों का क्षय करते है। ऐसे मुनियो को वस्त्र फटने की, नये लाने की, सूई-धागा जुटाने की, वस्त्र सीने की कोई चिन्ता नही रहती । वे अपने को लघु अर्थात् हलका (भारमुक्त) तथा सहज तप का भागी मानते हुए सब प्रकार के कष्टों को समभावपूर्वक सहन करते हैं । विमोक्ष नामक आठवे अध्ययन मे अचेलक मुनि के विषय मे कहा गया है कि यदि उसके मन मे यह विचार आए कि मैं नग्नताजन्य शीतादि कष्टो को तो सहन कर सकता है किन्तु लज्जानिवारण करना मेरे लिए शक्य नही, तो उसे कटिवन्धन धारण कर लेना चाहिए । अचेलक अर्थात् नग्न मुनि को सचेलक अर्थात् वस्त्रधारी मुनि के प्रति हीनभाव नही रखना चाहिए। इसी प्रकार सचेलक मुनि को अचेलक मुनि के प्रति Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : जैन आचार तुच्छता की भावना नही रखनी चाहिए। अचेलक व सचेलक मुनियो को एक-दूसरे की निन्दा नही करनी चाहिए । निन्दक मुनि को निर्ग्रन्थधर्म का अनधिकारी कहा गया है। वह संयम का सम्यक्तया पालन नही कर सकता-आत्मसाधना की निर्दोष आराधना नही कर सकता। अचेलक व सचेलक मुनियों को अपनी-अपनी आचार-मर्यादा मे रहकर निर्ग्रन्थ-धर्म का पालन करना चाहिए। वस्त्रमर्यादा: आचाराग मे एकवस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी एवं त्रिवस्त्रधारी निग्रंथो तथा चतुर्वस्त्रधारी निग्रंथियो का उल्लेख है । जो भिक्षु तीन वस्त्र रखने वाला है उसे चौथे वस्त्र की कामना अथवा याचना नही करनी चाहिए। जो वस्त्र उसे कल्प्य हैं उन्ही की कामना एवं याचना करनी चाहिए, अकल्प्य की नही । कल्प्य वस्त्र जैसे भी मिले, बिना किसी प्रकार का सस्कार किये धारण कर लेने चाहिए। उन्हे धोना अथवा रगना नहीं चाहिए । यही वात दो वस्त्रधारी एव एक वस्त्रधारी भिक्षु के विषय मे भी समझनी चाहिए । तरुण भिक्षु के लिए एक वस्त्र धारण करने का विधान है । भिक्षुणी के लिए चार वस्त्र--संघाटियाँ रखने का विधान किया गया है जिनका नाप इस प्रकार है . एक दो हाथ की, दो तीन-तीन हाथ की और एक चार हाथ की (लम्बी)। दो हाथ की संघाटी उपाश्रय मे पहनने के लिए, तीन-तीन हाथ की दो सघाटियो मे से एक भिक्षाचर्या के समय धारण करने के Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म · १६१ लिए तथा दूसरी शौच जाने के समय पहनने के लिए व चार हाथ की सघाटी समवसरण ( धर्मसभा) मे सारा शरीर ढकने के लिए है, ऐसा टीकाकारों का व्याख्यान है। यहाँ भिक्षुणियो के लिए जिन चार वस्त्रो के धारण का विधान किया गया है उनका 'संघाटी' (साडी अथवा चादर) शब्द से निर्देश किया गया है। टीकाकारों ने भी इनका उपयोग शरीर पर लपेटने अर्थात् ओढने के रूप मे ही बताया है। इससे प्रतीत होता है कि इन चारों वस्त्रो का उपयोग विभिन्न अवसरों पर ओढने के रूप मे करना अभीष्ट है, पहनने के रूप मे नही । अत इन्हे साध्वियों के उत्तरीय वस्त्र अर्थात् साड़ी अथवा चादर के रूप मे समझना चाहिए, अन्तरीय वस्त्र अर्थात् लहगा या धोती के रूप मे नहीं। दूसरी बात यह है कि दो हाथ और यहाँ तक कि चार हाथ लम्बा वस्त्र ऊपर से नीचे तक पूरे शरीर पर धारण भी कैसे किया जा सकता है। अतएव भिक्षुणियों के लिए ऊपर जिन चार वस्त्रो के ग्रहण एव धारण का विधान किया गया है उनमे अन्तरीय वस्त्र का समावेश नही होता, ऐसा समझना चाहिए। भिक्षुओ के विषय मे ऐसा कुछ नही है। वे एक वस्त्र का उपयोग अन्तरीय के रूप मे कर सकते हैं, दो का अन्तरीय व उत्तरीय के रूप में कर सकते हैं, आदि । यहाँ तक कि वे अचेल अर्थात् निर्वस्त्र भी रह सकते हैं। स्त्री-जातिगत सहज मर्यादाओ के कारण साध्वियो के लिए वैसा करना शक्य नही । उन्हें अपने सयम की रक्षा के लिए अमुक साधनो का उपयोग करना ही पड़ता है। वृहत्कल्प सूत्र के तृतीय उद्देश में यह बतलाया गया है कि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : जैन आचार निर्ग्रन्थनि-ग्रन्थियों को कृत्स्न वस्त्र का संग्रह एवं उपयोग नही करना चाहिए | इसी प्रकार उन्हें अभिन्न वस्त्र काम मे नही लेना चाहिए। यहाँ कृत्स्न वस्त्र का अर्थ है रंग आदि से जिसका आकार आकर्षक बनाया गया हो वैसा सुन्दर वस्त्र | अभिन्न वस्त्र का अर्थ है विना फाड़ा पूरा वस्त्र । इस सूत्र मे आचारांगोल्लिखित वस्त्र - मर्यादा का नये ही रूप मे निर्देश किया गया है । इसमे बताया गया है कि नयी दीक्षा लेने वाले साधु को रजोहरण, गोच्छक, प्रतिग्रह अर्थात् पात्र एवं तीन पूरे वस्त्र ( जिनके श्रावश्यक उपकरण बन सके ) लेकर प्रव्रजित होना चाहिए । पूर्व प्रव्रजित साधुको किसी कारण से पुनः दीक्षा ग्रहण करने का प्रसंग उपस्थित होने पर नयी सामग्री न लेते हुए अपनी पुरानी सामग्री के साथ ही दीक्षित होना चाहिए । नवदीक्षित साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रो के ग्रहण का विधान है। शेष बाते साधु के ही समान समझनी चाहिए | साधु के लिए अवग्रहानन्तक अर्थात् गुह्यदेशपि - धानकरूप कच्छा एवं अवग्रहपट्टक अर्थात् गुह्यदेशाच्छादकरूप पट्टा रखना वर्ज्य है । साध्वी को इनका उपयोग करना चाहिए । बृहत्कल्प के द्वितीय उद्देश मे कहा गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के वस्त्रो का उपयोग करना कल्प्य है. जागिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरीटपट्टक । जगम अर्थात् स प्राणी के अवयवो ( बालो ) से निष्पन्न वस्त्र जागिक कहा जाता है । अलसी का वस्त्र भागिक, सन का वस्त्र सानक, कपास का वस्त्र पोतक तथा तिरीट नामक वृक्ष की छाल का वस्त्र तिरीटपट्टक कहलाता है । रजोहरण के Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १६३ लिए निम्नोक्त पांच प्रकार के धागे कल्प्य हैं : औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुजचिप्पक । औणिक अर्थात् ऊन के, औष्ट्रिक अर्थात् ऊंट के वालो के, सानक अर्थात् सन की छाल के, वच्चकचिप्पक अर्थात् तृणविशेप की कुट्टी के और मुंजचिप्पक अर्थात् मूज की कुट्टी के । ___श्रमण-श्रमणी कितने एव किस प्रकार के वस्त्रो का उपयोग कर सकते हैं, इसका विचार करने के बाद यह सोचना आवश्यक है कि उन्हे वस्त्र किस प्रकार प्राप्त करने चाहिए ? वस्त्र की गवेषणा: आचाराग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पाचवे अध्ययन में यह बताया है कि वस्त्र की गवेपणा के लिए अर्ध योजन से अधिक नही जाना चाहिए। वस्त्र की गवेपणा करते समय आहार की गवेषणा के समान पूरी सावधानी रखनी चाहिए। अपने निमित्त खरीदा गया, धोया गया आदि दोषो से युक्त वस्त्र ग्रहण नही करना चाहिए। बहुमूल्य वस्त्र की न याचना करनी चाहिए, न प्राप्त होने पर ग्रहण ही करना चाहिए । हिंसादि दोपों से दूषित वस्त्र की तनिक भी चाह नही करनी चाहिए । निर्दोप एव सादे वस्त्र की कामना, याचना एव ग्रहणता श्रमण-श्रमणियो के लिए कल्प्य है। वस्त्र को धोना तथा रंगना निपिद्ध है । भिक्षु अन्य भिक्षु को दिया हुआ वस्त्र वापिस नही लेते । अत. अन्य के वस्त्र को अपना बना लेने की भावना से किसी श्रमण-श्रमणी को अन्य श्रमण-श्रमणी से वस्त्र नही मागना चाहिए। विहार करते Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : जैन आचार समय वस्त्रो की चोरी के भय से आड़ा टेढा मार्ग न लेते हुए निर्भय व निर्मम होकर विचरण करना चाहिए । साराश यह है कि सर्वविरत श्रमण श्रमणी को वस्त्र पर न किसी प्रकार का ममत्व रखना चाहिए, न वस्त्रनिमित्तक किसी प्रकार की हिंसा करनी करवानी चाहिए और न इस प्रकार की हिंसा का किसी रूप मे समर्थन ही करना चाहिए। वस्त्र की गवेपणा करते समय तथा वस्त्र का उपयोग करते हुए इन सब वातो का पूरा ध्यान रखना चाहिए | - पात्र की गवेषणा व उपयोग : आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के छठे अध्ययन मे वतलाया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो को अलाबु, काष्ठ व मिट्टी के पात्र रखना कल्प्य है तथा धातु के पात्र रखना अकल्प्य है। उन्हें बहुमूल्य वस्त्र की तरह वहुमूल्य पात्र भी नही रखने चाहिए । तरुण साधु के लिए केवल एक पात्र रखने का विधान है । पात्र की गवेपणा व उपयोग इस ढंग से विहित है कि उसमे किसी प्रकार की हिंसा न हो । बृहत्कल्पसूत्र के प्रथम उद्देश मे निर्ग्रन्थियो के लिए घटीमात्रक अर्थात् घड़ा रखने एव उसका उपयोग करने का विधान है जब कि निर्ग्रन्थो के लिए वैसा करने का निपेध है । व्यवहार सूत्र के आठवे उद्देश मे वृद्ध साधु के लिए जो उपकरण कल्प्य वताये गये हैं उनमे भाड अर्थात् घड़ा तथा मात्रिका अर्थात् पेशाव का वरतन भी समाविष्ट है । वस्त्र की गवेषणा की तरह पात्र की गवेषणा के लिए भी अर्ध Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १६५ योजन से अधिक दूर नहीं जाना चाहिए । अपने निमित्त खरीदा गया पात्र ग्रहण नही करना चाहिए। वर्णयुक्त पात्र को विवर्ण नहीं करना चाहिए और न विवर्ण पात्र को वर्णयुक्त ही करना चाहिए । इसी प्रकार सुरभिगन्ध पात्र को दुरभिगन्ध एवं दुरभिगन्ध पात्र को सुर्राभगन्ध नही बनाना चाहिए। आहार : आवश्यक सूत्र मे मुनि के ग्रहण करने योग्य चौदह प्रकार के पदार्थों का उल्लेख है . १ अशन, २. पान, ३. खादिम, ४. स्वादिम, ५ वस्त्र, ६ पात्र, ७ कम्बल, ८ पादप्रोछन, ६. पीठ, १० फलक, ११. शय्या, १२ सस्तारक, १३. औपध १४ भेषज । रोटी, चावल आदि सामान्य खाद्य पदार्थ अशन कहलाते हैं । जल, दूध आदि पेय पदार्थ पान के नाम से प्रसिद्ध हैं । मिष्ठान्न, मेवा आदि सुस्वादु पदार्थ खादिम कहे जाते हैं। लौंग, सुपारी आदि सुवासित पदार्थों का समावेश स्वादिम मे होता है । वस्त्र का अर्थ है पहनने योग्य कपड़े। पात्र का अर्थ है लकड़ी, मिट्टी एव तुम्बे के बरतन । ऊन आदि का बना हुआ चादर कम्बल कहलाता है। रजोहरण को पादपोंछन कहते हैं। वैठने योग्य चौकी को पीठ कहते है। सोने योग्य पट्ट को फलक कहते हैं । ठहरने का मकान आदि शय्या कहलाता है। बिछाने का घास आदि सस्तारक कहलाता है। एक ही वस्तु से बनी हुई दवाई औषध तथा अनेक वस्तुओ के मिश्रण से बनी हुई दबाई भेषज कहलाती है। इन चौदह प्रकार के पदार्थों में से Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : जैन आचार प्रारभ के चार एवं अन्त के दो - ये छः खाने-पीने के काम मे आते हैं अतः इन्हे आहार के अन्तर्गत समाविष्ट किया जा सकता है । इन पदार्थों मे तत्कालीन स्मृतिमूलक स्वाध्याय की पद्धति के कारण पुस्तकादि का समावेश नही किया गया है । ये पदार्थ स्थविरकल्पिक अर्थात् सचेलक साधुओ की दृष्टि से है । जिनकल्पित अर्थात् अचेलक साधुओ की दृष्टि से वस्त्रादि अकल्प्य पदार्थों की कमी कर लेनी चाहिए । आहार क्यों ? उत्तराध्ययन सूत्र के सामाचारी नामक छब्बीसवे अध्ययन मे आहार ग्रहण करने के छ कारण बतलाये गये है. १. वेदना अर्थात् क्षुधा की शान्ति के लिए, २. वैयावृत्य अर्थात् आचार्यादि की सेवा के लिए, ३ ईर्यापथ अर्थात् मार्ग मे गमनागमन की निर्दोष प्रवृत्ति के लिए, ४ संयम अर्थात् मुनिधर्म की रक्षा के लिए, ५ प्राणप्रत्यय अर्थात् जीवनरक्षा के लिए, ६ धर्मचिन्ता अर्थात् स्वाध्यायादि के लिए। इनमे से किसी भी कारण की उपस्थिति मे मुनि को आहार की गवेपणा करनी चाहिए । इन कारणो मे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, मुख्य एवं केन्द्रीय कारण सयम-रक्षा का अर्थात् मुनिव्रत की सुरक्षा का है । मुनि के लिए आहार इसीलिए ग्रहणीय बताया गया है कि इससे उसके व्रतपालन मे आवश्यक सहायता मिलती है । जब आहार का यह प्रयोजन समाप्त हो जाता है अर्थात् आहार सयम की साधना मे किसी प्रकार की सहायता नही कर सकता तव मुनि आहार का Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १६७ परित्याग कर समाधिमरण को प्राप्त होता है। यही बात मुनि की अन्य सामग्री के विपय मे भी है। मुनि का आहार-विहार संयम के लिए है । मुनि संयमार्थ ही शरीर धारण करता है। जव उसका शरीर इस उद्देश्य की पूर्ति करने में असमर्थता का अनुभव करने लगता है तब वह आहारादि का परित्याग कर समभावपूर्वक शरीर से मुक्ति प्राप्त करता है। चूंकि वह क्षुधा परीषह को सहन नही कर सकता अर्थात् भूख के कष्ट की उपस्थिति मे व्रतो की आराधना नही कर सकता अतएव आहारादि ग्रहण करता है । जहाँ तक उसके लिए बुभुक्षितावस्था मे व्रताराधना शक्य होती है वहाँ तक वह पाहार ग्रहण नही करता। सशक्त शरीर के रहते हुए आहारादि का त्याग कर अथवा अन्य प्रकार से मृत्यु प्राप्त करना जैन आचारशास्त्र में सर्वथा निषिद्ध है । इस प्रकार की मृत्यु कषायमूलक होने के कारण महान् कर्मवन्ध का कारण बनती है। उपयुक्त समय पर समभावपूर्वक प्राप्त की जाने वाली मृत्यु ही जैन आचारशास्त्र मे उपादेय मानी गई है । इस प्रकार की मृत्यु से आराधक अपने लक्ष्य के समीप पहुँचता है अर्थात् कर्मों से छुटकारा पाता है । आहार क्यों नहीं? जिस प्रकार आहार ग्रहण करने के उपर्युक्त छ. कारण बताये गये हैं उसी प्रकार आहार छोडने के भी निम्नोक्त छः कारण गिनाये गये हैं : १. आतक अर्थात् भयकर रोग उत्पन्न होने पर, २. उपसर्ग अर्थात् आकस्मिक संकट आने पर, ३. ब्रह्म Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : जैन आचार चर्य अर्थात् शील की रक्षा के लिए, ४. प्राणिदया अर्थात् जीवों की रक्षा के लिए, ५ तप अर्थात् तपस्या के लिए, ६. सलेखना अर्थात् समाधिमरण के लिए । इन कारणों के मूल में भी व्रताराधना ही रही हुई है। भयकर रोग उत्पन्न होने पर अमुक प्रकार के आहार का त्याग आवश्यक हो जाता है क्योकि वैसा न करने पर शरीर स्वस्थ नही हो सकता और शारीरिक स्वास्थ्य के अभाव मे व्रतो की आराधना नही हो सकती। पाकस्मिक सकट आने पर भी प्राहारत्याग आवश्यक हो जाता है क्योकि वैसा न करने पर प्रतिकूल परिस्थिति के कारण कभीकभी मुनिव्रत खतरे में पड़ जाता है। जिस आहार से गीलवत का भंग होने का भय हो वह आहार भी मुनि के लिए त्याज्य है क्योकि ऐसे आहार से बत-विराधना होती है। जीववध का भय होने पर भी मुनि को आहार का त्याग कर देना चाहिए क्योकि प्राणिदया मुनि का मुख्य धर्म है । तप की आराधना के लिए भी मुनि आहार का त्याग करता है क्योकि विवेकपूर्ण तपस्या से सयम की सुरक्षा होती है । मृत्यु का समय उपस्थित होने पर भी मुनि आहारत्यागपूर्वक मारणान्तिकी सलेखना अर्थात् सथारा करता है एव समाधियुक्त अर्थात् समभावपूर्वक मरण का वरण करता है । ऐसी मृत्यु मुनि के लिए अभीष्ट है । इस प्रकार मुनि का आहारत्याग भी आहारग्रहण के ही समान वतरक्षा के लिए ही है-सयमरक्षा के निमित्त ही है। विशुद्ध आहार: भिक्षु-भिक्षुणी को ऐसी कोई वस्तु स्वीकार करना कल्प्य Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १६९ नही जिसमे उसके निमित्त किसी प्रकार की हिंसा हुई हो अथवा होने की सभावना हो । आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन में आहारविपयक विविध प्रकार की हिंसा की सभावनाओ का विचार किया गया है। उसमे बतलाया गया है कि जिसमे प्राण होने की तनिक भी शका अथवा संभावना हो वैसा आहार भिक्षु या भिक्षुणी ग्रहण न करे । कदाचित् गलती से सचित्त आहार पात्र मे आ भी जाय तो उसका यतनापूर्वक परित्याग करे। जव सचित्त और अचित्त का पृथक्करण शक्य न हो तब समग्न आहार का त्याग कर दे। जिसके पूर्ण रूप से अचित्त होने का निश्चय हो वही वस्तु ग्रहण करे एवं उपयोग मे ले । ___यदि गृहस्थ ने मुनि के निमित्त हिंसा कर के आहार तैयार किया हो अथवा किसी से छीन कर, उधार लेकर, चोरी करके या अन्य अवैध उपाय से प्राप्त किया हो तो उसे ग्रहण नही करना चाहिए। किसी अन्य को दानादि के रूप मे देने के लिए बनाया हुया आहार भी ग्रहण करना निषिद्ध है। उत्सवादि अवसरों पर जब तक अन्य याचको को दान देना समाप्त न हो जाय तव तक श्रमण-श्रमणी को भिक्षा नही लेनी चाहिए । जहां सखडि अर्थात् सामूहिक भोजन-भोज होता हो वहाँ श्रमण-श्रमणी को आहारार्थ नही जाना चाहिए। ऐसे स्थानो पर भिक्षार्थ जाने पर अनेक दोष लगते है जिससे सयम की विराधना होती है। रसोई वन रही हो अथवा कोई अन्य कार्य हो रहा हो तो Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : जैन आचार भिक्षु भिक्षुणी को गृहपति के घर मे प्रवेश न करते हुए एकान्त में खडे रहना चाहिए एवं उस कार्य की समाप्ति होने पर अन्दर जाना चाहिए । गृहस्थ के घर का द्वार बिना अनुमति के व बिना यतना के खोलना निषिद्ध है । अन्य भिक्षार्थी यदि पहले से ही गृहस्थ के घर मे गये हुए हो तो उनके निकलने पर ही अन्दर जाना कल्प्य है । भोजन करते हुए यदि कोई सचित्त जलादि से हाथ साफ कर भिक्षा दे तो नही लेना चाहिए। सचित्त शिलापट्ट पर पीसी हुई अथवा कूटी हुई वस्तु त्याज्य है । इसी प्रकार अग्नि पर रखा हुआ पदार्थ भी अग्राह्य है । किसी ऊंचे स्थान पर रखी हुई वस्तु को भी सदोष समझ कर नही लेना चाहिए | किसी भी दातव्य पदार्थ का सम्पर्क यदि पृथ्वी कायिक अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एव त्रसकायिक जीवो से हो तो वह त्याज्य है। चावल का घोवन आदि जब तक अचित्त न हो जाय, अग्राह्य है । कच्ची वस्तु भी सचित्त होने के कारण अकल्प्य है । तात्पर्य यह है कि कोई भी पदार्थ जब तक अचित्त न हो जाय, नही लेना चाहिए । , जिस ग्राम, नगर आदि मे श्रमण श्रमणी के परिचित सम्बन्धी आदि रहते हो वहाँ अपरिचितो के यहाँ से आहारादि लेना चाहिए । आहारादि ग्रहण करते समय उन्हें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि दाता ने उनके निमित्त किसी भी प्रकार का उपक्रम न पहले किया हो और न बाद मे करने की संभावना हो । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १७१ आहार का उपयोग : मुनि को सुगन्धित एवं दुर्गन्धयुक्त आहार का समभावपूर्वक उपयोग करना चाहिए । यदि पात्र मे आवश्यकता से अधिक आहार आ गया हो तो साथी सयतियो को पूछे विना उसका । त्याग नही करना चाहिए। उन्हे आवश्यकता होने पर सहर्प दे देना चाहिए। यदि दूसरो का आहार लेना हो तो उनकी अनुमतिपूर्वक ही लेना चाहिए। यदि आहार साधारण हो अर्थात् पूरे समुदाय के लिए हो तो उसका सविभाग अपनी इच्छानुसार न करते हुए साथियो से पूछ कर उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए करना चाहिए। प्राप्त सामग्री को निश्छल भाव से आचायदि को दिखाना चाहिए। जिसमे खाने की सामग्री अल्प तथा फेकने की सामग्री अधिक हो ऐसी वस्तु स्वीकार नही करनी चाहिए । मना करने पर भी यदि ऐसी कोई वस्तु पात्र मे आ ही जाय तो सार भाग खाकर शेष भाग को निर्दोष स्थान देखकर फेक देना चाहिए । शक्कर मांगने पर यदि दाता ने गलती से नमक दे दिया हो तो निर्दोष होने पर उसका यथोचित उपयोग कर लेना चाहिए । अधिक होने पर साथियो को दे देना चाहिए । फिर भी वच जाय तो उसका अचित्त स्थान पर परित्याग कर देना चाहिए । रोगी के लिए आहार यदि इस शर्त पर दिया गया हो कि उसके उपयोग मे न आने की स्थिति मे वापिस कर दिया जाय तो रोगी के अस्वीकृत करने पर उस आहार को तदनुसार लौटा देना चाहिए। इस प्रकार के आहार को अपनी लोलुपता के कारण बीच मे ही खाजाना ठीक नही । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : जैन आचार आहार-सम्बन्धी दोप. पिण्डनियुक्ति आदि मे पाहारसम्बन्धी ४७ दोषो का उल्लेख है। इनमे से आधाकर्म आदि १६ दोष उद्गम-दोष तथा धात्री आदि १६ दोष उत्पादन-दोप कहे जाते हैं। ये ३२ दोप गवेपणा से सम्बन्धित है। शकित आदि १० दोप ग्रहणपणाविपयक है । सयोजना आदि शेप ५ दोपों का सम्बन्ध ग्रासैपणा से है। आहार की खोज करते समय गृहस्थ के निमित्त से लगने वाले दोप उद्गम-दोष तथा साधु की खुद की ओर से लगने वाले दोष उत्पादन-दोप कहलाते हैं । आहार लेते समय गृहस्थ तथा साधु दोनो के निमित्त से लगने वाले दोष ग्रहणैषणा के दोप कहलाते हैं । आहार खाते समय साधु की ही ओर से लगने वाले दोष ग्रासैषणा के दोष कहलाते हैं। ___गवेषणा के उद्गम-दोष-निम्नोक्त १६ दोष आहार की गवेषणा के उद्गम-दोष हैं : १. आधाकर्म-विशेष साधु के उद्देश्य से आहार बनाना, २ औद्देशिक-सामान्य भिक्षुओ के उद्देश्य से आहार बनाना, ३ पूतिकर्म-शुद्ध आहार को अशुद्ध आहार से मिश्रित करना, ४ मिश्रजात-अपने लिए व साधु के लिए मिलाकर आहार बनाना, ५ स्थापना-साधु के लिए कोई खाद्य पदार्थ अलग रख देना, ६. प्राभृतिका-साधु के निमित्त से अपना भोजन का कार्यक्रम बदल देना, ७. प्रादुष्करण-अन्धकार दूर करने के लिए दीपक आदि का प्रयोग कर आहार देना, ८ क्रीत -साधु के लिए आहार खरीद कर लाना, ९. प्रामित्य-साधु के लिए आहार उधार लाना, १०. परिवर्तित-साधु के लिए Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १७३ आहार की अदला-बदली करना, ११ अभिहुत-साधु के लिए आहार दूर से लाना, १२ उद्भिन्न-साधु के लिए वंद बरतन का मुंह तोड कर घी आदि देना, १३. मालापहृत-ऊंचे स्थान पर चढकर आहार उतार कर देना, १४. आच्छेद्य-किसी से छीन कर आहार देना, १५. अनिसृष्ट-साझे की वस्तु साझी की अनुमति के विना देना, १६ अध्यवपूरक-अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन मे साधु के लिए थोडी मात्रा बढ़ा लेना। गवेषणा के उत्पादन-दोष-निम्नलिखित १६ दोष आहार की गवेषणा के उत्पादन-दोष हैं १ धात्री-धाय की भाति गृहस्थ के वालको की किसी प्रकार की सेवा करके आहार लेना, २. दूती-दूत के समान संदेश पहुंचाकर आहार लेना, ३ निमित्त शुभाशुभ फल वताकर आहार लेना, ४. आजीव-अपनी जाति, कुल आदि बतलाकर आहार लेना, ५. वनीपक--भिखमगे की तरह दीनता दिखा कर आहार लेना, ६ चिकित्सा-औषधि आदि का प्रयोग वताकर आहार लेना, ७. क्रोध-गुस्सा करके अथवा शापादि का भय दिखाकर आहार लेना, ८. मान-अभिमानपूर्वक आहार लेना, ९ माया--कपटपूर्वक आहार लेना, १०. लोभ-लालचवश आहार लेना, ११. पूर्वपश्चात्संस्तवआहार लेने के पहले अथवा वाद मे दाता की प्रशसा करना, १२. विद्या--जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग करके आहार लेना, १३ मन्त्र-मत्र-तत्र का प्रयोग करके आहार लेना, १४ चूर्ण-चूर्ण आदि ( वशीकरण ) का प्रयोग करके आहार लेना, १५. योग-योगविद्या का प्रदर्शन करके Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : जैन आचार आहार लेना, १६ मूलकर्म-गर्भस्तम्भ अर्थात् गर्भ रोकने आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना। ग्रहणेषणा के दोष-आहार की ग्रहणपणा के निम्नोक्त १० दोप हैं . १. शकित–प्राधाकर्म आदि दोषों की शका होने पर आहार लेना, २. म्रक्षित-सचित्त का ससर्ग होनेपर आहार लेना, ३ निक्षिप्त-सचित्त पर रखा हुआ आहार लेना, ४. पिहित-सचित्त से ढका हुआ आहार लेना, ५ सहृत-सचित्त पदार्थ से संपृक्त पात्र से अर्थात् अकल्पनीय वस्तु को निकालने __ के बाद उसी बरतन से देने पर आहार लेना, ६. दायक गर्भिणी आदि अनधिकारी दाता से आहार लेना, ७. उन्मिश्रसचित्त से मिश्रित आहार लेना, ८. अपरिणत-अधूरा पका आहार लेना, ९. लिप्त-साधु के निमित्त से घृत आदि से लिप्त होने वाले पात्र या हाथ से आहार लेना, १० छर्दित-नीचे गिरता हुअा या विखरता हुआ आहार लेना। ग्रासैघणा के दोष-निम्नोक्त ५ दोष ग्रासैषणा के हैं : १ सयोजना-स्वादवर्धन की दृष्टि से खाद्य पदार्थों को परस्पर मिलाना, २ अप्रमाण-मात्रा से अधिक खाना, ३. अंगारस्वादिष्ट भोजन को प्रशसा करते हुए खाना, ४ धूम-नीरस भोजन को निन्दा करते हुए खाना, ५ अकारण-सयमरक्षा के निमित्त भोजन न करते हुए बलवृद्धि आदि के लिए भोजन करना। अनगार-धर्मामृत के पाचवे अध्याय मे पिण्डविशुद्धि अर्थात् आहारशुद्धि का विचार करते हुए निम्नोक्त ४६ पिण्डदोपो का Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १७५ प्रतिपादन किया गया है : १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादनदोप, १० शकितादिदोष व ४ अगारादिदोष । एकभक्त मूलाचार के मूलगुणाधिकार नामक प्रथम अध्ययन मे निर्ग्रन्थ (अचेलक) के जिन २८ मूलगुणो का वर्णन किया गया है उनमे स्थितिभोजन व एकभक्त नामक दो आहारसम्बन्धी गुणो का भी समावेश है। स्थितिभोजन का अर्थ है निर्दोष भूमि पर विना सहारे खड़े रहकर अजलिपुट (पाणिपात्र-स्वहस्तपात्र) मे आहार करना। एकभक्त का अर्थ है सूर्योदय व सूर्यास्त के बीच केवल एक बार आहार करना । इस प्रकार मूलाचार मे मुनि के लिए एकभक्त अर्थात् दिन मे एक बार भोजन करने का विधान है और वह भी खडे-खडे अपने हाथो मे हो खाने का। दशवैकालिक के महाचारकथा नामक छठे अध्ययन मे श्रमण को एकभक्त भोजन करने वाला कहा गया है : एगभत्त च भोअणं । यद्यपि टीकाकारों ने 'एगभत्त' का अर्थ दिवाभोजन के रूप में किया है किन्तु शब्दरचना, सदर्भ एव श्रमणाचार के हार्द को देखते हुए यह अर्थ उपयुक्त प्रतीत नही होता। एगभत्तएकभक्त का अर्थ वही होना चाहिए जो मूलाचार के लेखक एवं टीकाकारो ने किया है। दिन मे अनेक बार भोजन करने वाले मुनि की अपेक्षा एक बार भोजन करने वाला मुनि श्रमणधर्म का विशेप निर्विघ्नतया एवं निष्ठापूर्वक पालन कर सकता है। अनेक बार अाहार करने वाले मुनियो का अधिकाश उपयोगी समय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : जैन आचार आहार-पानी की गवेपणा में ही व्यतीत हो जाता है। इसे समय का सदुपयोग नही कह सकते। विशेष परिस्थिति में विवशतावश वैसा करना पड़े तो कोई हर्ज नही। सामान्यतया दिन मे एक बार भोजन करना ही मुनि के लिए श्रेयस्कर है। उत्तराध्ययन के छब्बीसवे अध्ययन (सामाचारी) मे भी इसी सिद्धान्त का समर्थन है। जिनके पास पात्र होते हैं वे भोजन के लिए उनका उपयोग करते हैं । जो पात्र नही रखते अर्थात् पाणिपात्र-करपात्र होते है वे खड़े-खडे अपने हाथो मे ही आहार करते हैं। विहार अर्थात् गमनागमन : निन्थ मुनि वर्षा ऋतु मे एक स्थान पर रहते हैं तथा शेप । ऋतुओ मे पदयात्रा करते हुए स्थान-स्थान पर घूमते रहते हैं। उनकी यह पदयात्रा किस प्रकार निर्दोष एव संयमानुकूल हो, इसका जैन आचार-ग्रथो मे सूक्ष्मतापूर्वक विचार किया गया है। विचरने की अहिंसक विधि कैसी होती है, इस पर जैन आचारशास्त्र मे पर्याप्त ऊहापोह किया गया है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के तृतीय अध्ययन मे इस विषय का सुन्दर विवेचन उपलब्ध है। उसमे यह बतलाया गया है कि भिक्षु या भिक्षुणी को जब यह मालूम हो जाय कि वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है एव वर्षा के कारण विविध प्रकार के जीवकायो की सृष्टि हो चुकी है तथा मार्गों मे अकुरादि उत्पन्न होने के कारण गमनागमन दुष्कर हो गया है तब वह किसी निर्दोष स्थान पर वर्षावास अर्थात् चात्तुर्मास करके ठहर जाय । जहा स्वाध्याय आदि की अनुकूलता Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १७७ न हो वहाँ न रहे । जब चातुर्मास पूर्ण हो जाय तथा मार्ग जीवजन्तओं से साफ हो जाय तव वह सयमपूर्वक विहार प्रारम्भ करदे । चलते हुए किसी प्राणी की हिंसा न हो, इसका पूरा ध्यान रखे। जीव-जन्तुविहीन मार्ग लम्बा हो तो भी उसी का अवलम्वन ले। वह ऐसा मार्ग ग्रहण न करे जिससे जाने पर सयमरक्षा मे किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित होने की आशंका हो अथवा आगे के नामादि का पता न लगे। नौकाविहार: आवश्यकता होने पर नाव का उपयोग करने की अनुमति प्रदान करते हुए कहा गया है कि मुनि को यदि यह मालूम हो कि नाव उसी के निमित्त चलाई जारही है अथवा उसके लिए उसमे किसी प्रकार का सस्कार किया जारहा है तो वह उसका उपयोग न करे। यदि गृहस्थ अपने लिए नाव चला रहा हो तो मुनि उसकी अनुमति लेकर यतनापूर्वक एक ओर बैठकर उस नाव द्वारा पानी पार कर सकता है। नाव मे यदि कोई कुछ कार्य करने को कहे तो वह न करे । नाव वाले उससे किसी प्रकार का सहयोग न मिलने पर यदि क्रुद्ध होकर उसे पानी मे फेंक देने को तैयार हो जाय तो वह अपने आप ही उतर जाय एव समभावपूर्वक तैर कर बाहर निकल जाय । यदि वे उसे पानी मे डाल ही दें तो भी निराकुलता-पूर्वक तैरते हुए पानी पार कर जाय । तैरते समय किसी प्रकार का आनन्द न लेते हुए सहज भाव से तैरे। बाहर निकलने के बाद शरीर व वस्त्रो को अपने आप ही सूखने दे। तदनन्तर विहार करे। १२ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ : जैन आचार पदयात्रा: ग्रामानुग्राम विचरण करते मुनि किसी के साथ अनावश्यक बाते न करे-गप न मारे किन्तु सावधानीपूर्वक चले। पैर से पार करने योग्य पानी होने पर उसे चलकर पार करे । पानी मे चलते समय किसी प्रकार का आनन्द न लेते हुए सहज गति से पानी पार करे । पानी से बाहर निकल कर कीचड़युक्त गीले पैर से जमीन पर न चले किन्तु पैर सूखने पर ही साफ पैर से चलना प्रारम्भ करे। मार्ग मे किसी के द्वारा पकड़े जाने पर अथवा परेशान किये जाने पर व्याकुल न हो। रास्ते मे आने वाले चैत्य, स्तूप आदि को कुतूहलपूर्वक न देखे । चलते समय आचार्य आदि गुरुजनों का अविनय न हो, इसका पूरा ध्यान रखे । मार्ग मे व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियो को देखकर व्याकुल न हो, उन्मार्ग ग्रहण न करे और न कही छिपने की ही कोशिश करे अपितु निर्भय होकर परिस्थिति का सामना करते हुए आगे बढता जाय । इसी प्रकार चोर-लुटेरों से भी न घबराये । लुटेरों से लूट लिये जाने पर दया की भीख न मांगते हुए धर्मोपदेशपूर्वक अपनी वस्तु वापिस मांगे। न मिलने पर किसी प्रकार का दुःख न करते हुए अपना मार्ग ग्रहण करे तथा किसी के सामने उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार की शिकायत न करे । सव कष्टो को समभावपूर्वक सहन करना ही सच्चा संयम है-सयमी का मार्ग है-मुनिधर्म है। वसति अर्थात् उपाश्रय : जैन आचार-ग्रथों मे वसति के लिए शय्या शब्द का प्रयोग Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १७९ किया गया है । आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चुला के द्वितीय अध्ययन का नाम शय्यैपणा है जिसमे संयत के निवासयोग्य स्थान अर्थात् वसति की गवेषणा का विचार किया गया है । नियुक्तिकार एवं चूर्णिकार ने शय्यैषणा अध्ययन का व्याख्यान करते हुए शय्या शब्द का अर्थ वसति किया है । वैसे शय्या का अर्थ विछौना होता है । जहाँ विछौना विछाया जासके ऐसे उपाश्रय आदि वसतिस्थान भी शय्या के सम्बन्ध के कारण शय्या कहे जाते हैं । वसति स्थान के गवेषण एवं उपयोग के विषय मे सामान्य नियम यही है कि जिस स्थान के लिए त्यागी के निमित्त से किसी प्रकार की हिंसा हुई हो, होती हो अथवा होने वाली हो वह स्थान श्रमण श्रमणी स्वीकार न करें । जिस स्थान मे किसी प्रकार के विशेष जीव-जन्तु दिखाई दें वहाँ संयत ध्यान, स्वाध्याय, सस्तारक ( बिछौना) आदि न करे । जो स्थान साधारण जीव-जन्तुओं वाला हो उसे प्रमार्जन करके काम मे ले । जो मकान एक या अनेक त्यागियो को लक्ष्य करके बनाया गया हो, खरीदा गया हो अथवा ग्रन्य ढंग से प्राप्त किया गया हो उसे सदोष समझकर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी उपयोग मे न ले । यदि किसी मकान मे सयमी के निमित्त किसी प्रकार का सस्कार किया गया हो तो उसे भी वह स्वीकार न करे । जहाँ तक बन सके, श्रमण श्रमणी ऊंचे मकान मे न रहे । कारणवशात् ऊँचे मकान मे रहना पड़े तो ऊपर से हाथ-मुँह आदि न धोवे । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : जैन आचार जिस मकान में स्त्री, वालक अथवा पशु का निवास हो उनमें श्रमण न रहे क्योकि ऐसा स्थान सहज ही संयम का विराधक बन सकता है | श्रमणी के लिए पुरुपवाला स्थान निषिद्ध है । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के साथ भी निवास नही करना चाहिए क्योकि गृहस्थ तो शुचि- सामाचारयुक्त अर्थात् स्नानादि करने वाले होते हैं जब कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ स्नानादि शौचक्रियाएँ नही करते । इस भेद के कारण गृहस्य को अपने कार्यक्रम मे व्युत्क्रम करना पड़ सकता है । दूसरी बात यह है कि गृहस्थ अपने यहाँ ठहरे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के निमित्त अनेक प्रकार के आरम्भ समारम्भ मे प्रवृत्त हो सकता है और परिणामतः सयम की विराधना हो सकती है। रात्रि के समय चोरी आदि हो जाने पर वहाँ ठहरे हुए संयमी पर किसी प्रकार का आरोप आ सकता है। कोई-कोई गृहस्थ अपने मकान बड़े इसलिए बनाते हैं कि अवसर आने पर वे भिक्षुप्रो के काम मे आसके । श्रमण श्रमणियों को ऐसे मकानो में नही ठहरना चाहिए । यदि कोई गृहस्थ अपना बना-बनाया मकान श्रमणादि के लिए खाली कर अपने लिए दूसरा मकान बनाने का सोचता है तो साधु-साध्वियों को उसमे ठहरना अकल्प्य है । श्रमण श्रमणी उस घर मे न रहे जिसमे गृहस्थ रहता हो, पानी आदि रखा जाता हो, गृहस्थ के घर मे से होकर रास्ता जाता हो, लोग परस्पर कलह करते हों, स्नान करते हो, मालिश आदि करते हों । चित्रयुक्त स्थान भी त्यागियो के लिए त्याज्य है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १८१ __ जो स्थान हिसादि दोषो से रहित हो तथा जहाँ रहकर सयम की सम्यकतया आराधना की जासके वही स्थान निग्रन्थ-निर्गन्थियो के लिए कल्प्य है । इस प्रकार के स्थान मे ठहरने के पूर्व स्वामी की निष्कपट भाव से अनुमति लेना अनिवार्य है । स्वामी की अनिच्छा अथवा निषेध होने की स्थिति मे वह स्थान नही लेना चाहिए अथवा छोड देना चाहिए । संस्तारक आदि अन्य सामग्री के विषय मे भी यही नियम है। संयमी को किसी भी स्थान मे ठहरने के पूर्व मलमूत्र के त्याग का विचार अवश्य कर लेना चाहिए। एतद्विषयक स्थान पहले से ही यथावत् देख लेना चाहिए ताकि बाद में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। पूरी सावधानी रखते हुए भी सम या विषम जैसा भी स्थान आदि मिले, समभावपूर्वक उपयोग मे लेना चाहिए । संयम की किसी प्रकार से विराधना न हो, इसका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। निग्रन्थ-निर्गन्थियो के एक स्थान पर रहने के समय का दो दृष्टियों से विचार किया गया है। वर्षाऋतु मे वे एक स्थान पर चतुर्मासपर्यन्त रहते हैं। शेष आठ महीनो मे उन्हे एक स्थान पर एक साथ एक मास से अधिक रहना अकल्प्य है। बृहत्कल्प सूत्र के प्रथम उद्देश मे एतद्विषयक स्पष्ट विधान किया गया है। उसमे यह भी बतलाया गया है कि यदि ग्राम, नगर आदि अन्दर व बाहर के भागो मे बंटे हुए हों तो दोनो मे अलग-अलग अधिकतम समय तक रहा जा सकता है। अन्दर रहते समय भिक्षाचर्या आदि अन्दर एव बाहर रहते समय बाहर ही करना चाहिए । निर्ग्रन्थियों Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : जैन आचार के लिए एक मास के स्थान पर दो मास की मर्यादा रखी गई है। एक परिक्षेप (चहारदीवारी) एव एक द्वार वाले ग्रामादि मे निग्रन्थ-निर्गन्थियों को एक ही समय नहीं रहना चाहिए । जिस वसति के आस-पास दुकानें हो, जो गली के किनारे पर हो, जहाँ अनेक रास्ते मिलते हो वहाँ निर्ग्रन्थियों को रहना अकल्प्य है। निर्ग्रन्थ इस प्रकार के स्थानों मे यतनापूर्वक रह सकते हैं। निर्ग्रन्थियों को विना दरवाजे के खुले उपाश्रय मे नही रहना चाहिए । द्वारयुक्त उपाश्रय न मिलने की स्थिति मे अपवादरूप से परदा लगा कर रहा जा सकता है। निग्रन्थो को विना दरवाजे के उपाश्रय मे रहना कल्प्य है। बृहत्कल्प के द्वितीय उद्देश मे यह बतलाया गया है कि निग्रंन्थियो को आगमनगृह (धर्मशाला आदि), विकृतगृह (अनावृत स्थान), वृक्षमूल (पेड का तना), अभ्रावकाश (खुला आकाश) आदि मे रहना अकल्प्य है। निर्ग्रन्थ इन स्थानो मे यतनापूर्वक रह सकते हैं। तृतीय उद्देश में कहा गया है कि निम्रन्थों को निर्गन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना आदि कुछ भी नही करना चाहिए । इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों के लिए भी निर्ग्रन्थों के उपाश्रय मे बैठना आदि निषिद्ध है। श्रमण-श्रमणियो को किसी के घर के भीतर अथवा दो घरों के बीच मे बैठना, सोना, देर तक खडे रहना आदि अकल्प्य है। किसी रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि के गिर पड़ने पर बैठने आदि मे कोई हर्ज नही। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म · १८३ जव श्रमण- श्रमणियों को अपना वसति-स्थान छोड़ कर अन्यत्र विहार करना हो तो प्रातिहारिक अर्थात् वापस देने योग्य उपकरण स्वामी को सौंपे विना प्रस्थान नही करना चाहिए। इतना ही नहीं, शय्यातर अर्थात् मकानमा लिक के शय्या-संस्तारक को अपने लिए जमाये हुए रूप मे ही न छोडते हुए यथोचित रूप से व्यवस्थित करने के बाद स्थान छोड़ना चाहिए। जिस दिन कोई श्रमण अथवा श्रमणियाँ वसति, संस्तारक आदि का त्याग करें उसी दिन अन्य श्रमण अथवा श्रमणियां वहाँ आकर ठहर जायं तो भी उस दिन के लिए उस स्थान आदि पर पहले के श्रमण-श्रमणियों का ही अवग्रह अर्थात् अधिकार बना रहता है। दूसरे शब्दों में एक श्रमण-वर्ग के अधिकार की वस्तु पर दूसरा श्रमण-वर्ग तव तक अपना अधिकार न समझे जव तक कि उसका त्याग किये एक दिन व्यतीत न हो जाय । श्रमण-श्रमणियों को किसी स्थान पर रहते हुए चारों ओर सवा योजन अर्थात् पाँच कोस की मर्यादा रखना कल्प्य है। यह मर्यादा किसी प्रयोजन से कही जाने-आने के लिए समझनी चाहिए । इस सामान्य मर्यादा मे कार्यविशेष अथवा परिस्थितिविशेष की दृष्टि से आवश्यक परिवर्तन भी किया जा सकता है । सामाचारी: सामाचारी अथवा समाचारी का अर्थ है सम्यक् चर्या । श्रमण की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ? इस प्रश्न का जैन आचारशास्त्र में व्यवस्थित उत्तर दिया गया है। यह उत्तर दो रूपो मे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन आचार • है सामान्य दिनचर्या व पर्युपणाकल्प । उत्तराध्ययन आदि मे मुनि की सामान्य दिनचर्या पर प्रकाश डाला गया है तथा कल्पसूत्र आदि मे पर्युषणाकल्प अर्थात् वर्षावास (चातुर्मास ) से सम्व - न्धित विशिष्ट चर्या का वर्णन किया गया है । सामान्य चर्या : उत्तराध्ययन सूत्र के छब्वीसवे अध्ययन के प्रारम्भ मे श्रमण की सामान्य चर्यारूप सामाचारी के दस प्रकार बतलाये गये है : १. आवश्यकी, २ नैपेधिकी, ३ आपृच्छना, ४. प्रतिपृच्छना, ५. छन्दना, ६ इच्छाकार, ७. मिथ्याकार, ८. तथाकार अथवा तथ्येतिकार, ६. अभ्युत्थान, १०. उपसपदा । किसी आवश्यक कार्य के निमित्त उपाश्रय से बाहर जाते समय 'मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूँ' यो कहना चाहिए । यह आवश्यकी सामाचारी है। बाहर से वापस आकर 'अब मुझे बाहर नही जाना है' यों कहना चाहिए । यह नैपेधिकी सामाचारी है। किसी भी कार्य को करने के पूर्व गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि से पूछना चाहिए कि क्या मैं यह कार्य कर लू ? इसे आप - च्छना कहते हैं । गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि ने जिस कार्य के लिए पहले मना कर दिया हो उस कार्य के लिए आवश्यकता होने पर पुनः पूछना कि क्या अब मैं यह कार्य कर लू, प्रतिपृच्छना है । लाये हुए आहारादि के लिए अपने साथी श्रमणो को आमंत्रित कर धन्य होना छंदना है । परस्पर एक-दूसरे की इच्छा जानकर अनुकूल व्यवहार करना इच्छाकार कहलाता है । प्रमाद के कारण Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १८५ होने वाली अपनी त्रुटियों के लिए पश्चात्ताप कर उन्हें मिथ्या अर्थात् निष्फल बनाना मिथ्याकार कहलाता है। गुरु अथवा ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा स्वीकार कर उनके कथन का 'तहत्ति' ( आपका कथन यथार्थ है ) कहकर आदर करना तथाकार अथवा तथ्येतिकार कहलाता है । उठने, बैठने आदि मे अपने से बडो के प्रति भक्ति एवं विनय का व्यवहार करना अभ्युत्थान है। भगवती ( व्याख्याप्रज्ञप्ति ) सूत्र ( शतक २५) में अभ्युत्थान के स्थान पर निमन्त्रणा शब्द है। निमन्त्रणा का अर्थ है आहारादि लाने के लिए जाते समय साथी श्रमणों को भी साथ आने के लिए निमत्रित करना अथवा उनसे यह पूछना कि क्या आपके लिए भी कुछ लेता आऊँ ? ज्ञानादि की प्राप्ति के लिए योग्य गुरु का आश्रय ग्रहण करना उपसंपदा है। इसके लिए श्रमण अपने गच्छ का त्याग कर अन्य गच्छ का आश्रय भी ले सकता है। मुनि को दिवस को चार भागो मे विभक्त कर अपनी दिनचर्या सम्पन्न करनी चाहिए। उसे दिवस के प्रथम प्रहर मे मुख्यतः स्वाध्याय, द्वितीय मे ध्यान, तृतीय मे भिक्षाचर्या तथा चतुर्थ मे फिर स्वाध्याय करना चाहिए । इसी प्रकार रात्रि के चार भागों मे से प्रथम मे स्वाध्याय, द्वितीय मे ध्यान, तृतीय मे निद्रा एवं चतुर्थ मे पुनः स्वाध्याय करना चाहिए। इस प्रकार दिन-रात के आठ पहर मे से चार पहर स्वाध्याय के लिए, दो पहर ध्यान के लिए, एक पहर भोजन के लिए तथा एक पहर सोने के लिए है। इससे प्रतीत होता है कि श्रमण की दिनचर्या में अध्ययन का सर्वाधिक महत्त्व है । इसके बाद ध्यान को महत्त्व दिया गया है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : जैन आचार खाने-पीने के लिए दिन में एक बार एक पहर का समय दिया गया है। इसी प्रकार सोने के लिए भी रात के समय केवल एक पहर दिया गया है। स्वाध्याय अथवा अध्ययन मे निम्नोक्त पाँच क्रियाओ का समावेश किया जाता है : वाचना; पच्छना, परिवर्तना (पुनरावर्तन ), अनुप्रेक्षा ( चिन्तन ) और धर्मकथा। श्रमण की इस संक्षिप्त दिनचर्या का विवेचन करते हुए उत्तराध्ययनकार ने बतलाया है कि दिवस के प्रथम प्रहर के प्रारम्भ के चतुर्थ भाग मे वस्त्र-पात्रादिका प्रतिलेखन ( निरीक्षण) करने के बाद गुरु को नमस्कार कर सर्व दु खमुक्ति के लिए स्वाध्याय करना चाहिए। इसी प्रकार दिवस के अन्तिम प्रहर के अन्त के चतुर्थ भाग मे स्वाध्याय से निवृत्त होकर गुरु को वंदन करने के बाद वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखन करना चाहिए । प्रतिलेखन करते समय परस्पर वार्तालाप नही करना चाहिए और न किसी अन्य से ही किसी प्रकार की बातचीत करनी चाहिए अपितु अपने कार्य मे पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। तृतीय प्रहर में क्षुधा-वेदना की शान्ति आदि के लिए आहार-पानी की गवेषणा करनी चाहिए। आहार-पानी लेने जाते समय भिक्षु को पात्र आदि का अच्छी तरह प्रमार्जन कर लेना चाहिए। भिक्षा के लिए अधिक-से-अधिक आधा योजन (दो कोस) तक जाना चाहिए। चतुर्थ प्रहर के अंत में स्वाध्याय से निवृत्त होने पर एव वस्त्रपात्रादि की प्रतिलेखना कर लेने पर मल-मूत्र का त्याग करने की भूमि का अवलोकन करने के बाद कायोत्सर्ग (प्रतिक्रमण अथवा आवश्यक ) करना चाहिए । कायोत्सर्ग मे दिवससम्बन्धी अति Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म. १८७ चारों दोषो की चिन्तना एवं आलोचना करनी चाहिए। तदनन्तर रात्रिकालीन स्वाध्याय आदि मे लग जाना चाहिए। रात्रि के चतुर्थ प्रहर मे इस ढंग से स्वाध्याय करना चाहिए कि अपनी आवाज से गृहस्थ जग न जायं । चतुर्थ प्रहर का चतुर्थ भाग शेष रहने पर पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिए एव रात्रिसम्बन्धी अतिचारों की चिन्तना व आलोचना करनी चाहिए । पर्युपणाकल्प कल्पसूत्र (पर्युषणाकल्प ) के सामाचारी नामक अंतिम प्रकरण मे यह उल्लेख है कि श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षा ऋतु का वीस रातसहित एक महीना वीतने पर अर्थात् आषाढ मास के अन्त मे चातुर्मास लगने के वाद पचास दिन व्यतीत होने पर वर्षावास किया । इस प्रकरण मे यह भी उल्लेख है कि इस समय से पूर्व भी वर्षावास कल्प्य है किन्तु इस समय का उल्लघन करना कल्प्य नही । इस प्रकार जैन आचारशास्त्र के अनुसार मुनियों का वर्षावास चातुर्मास लगने से लेकर पचास दिन बीतने तक कभी भी प्रारंभ हो सकता है अर्थात् आषाढ शुक्ला चतुर्दशी से लेकर भाद्रपद शुक्ला पचमी तक किसी भी दिन शुरू हो सकता है । सामान्यतया चातुर्मास प्रारंभ होते ही जीव-जन्तुओ की उत्पत्ति को ध्यान मे रखते हुए मुनि को वर्षावास कर लेना चाहिए । परिस्थितिविशेष की दृष्टि से उसे पचास दिन का समय और दिया गया है । इस समय तक उसे वर्षावास अवश्य कर लेना चाहिए । वर्षावास मे स्थित निर्ग्रन्थ-निग्रन्थियो को भी चारों ओर - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ : जैन आचार सवा योजन अर्थात् पाच कोस तक की अवग्रह-मर्यादा-गमनागमन की क्षेत्र-सीमा रखना कल्प्य है। हृष्टपुष्ट, आरोग्ययुक्त एवं बलवान् निम्रन्थ-निग्रन्थियो को दूध, दही, मक्खन, घी, तेल आदि रसविकृतियाँ बार-बार नही लेनी चाहिए । __ नित्यभोजी भिक्षु को गोचरकाल मे ( गोचरी के समय ) आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर एक बार जाना कल्प्य है। आचार्य आदि की सेवा के निमित्त अधिक बार भी जाया जा सकता है। चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास करने वाले भिक्षु को उपवास के बाद प्रातःकाल गोचरी के लिए निकल कर हो सके तो उस समय मिलने वाले आहार-पानी से ही उस दिन काम चला लेना चाहिए। वैसा शक्य न होने पर गोचरकाल मे आहार-पानी के लिए गृहपति के घर की ओर एक बार और जाया जा सकता है। इसी प्रकार षष्ठभक्त अर्थात् दो उपवास करने वाले भिक्षु को गोचरी के समय आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर दो बार और जाना कल्प्य है। अष्टमभक्त अर्थात् तीन उपवास करने वाला भिक्षु गोचरी के समय आहार-पानी के लिए गृहपति के घर की ओर तीन बार और जा सकता है। विकृष्टभक्त अर्थात् अष्टमभक्त से अधिक तप करने वाले भिक्षु के लिए एतद्विषयक कोई निर्धारित सख्या अथवा समय नहीं है। वह अपनी सुविधानुसार किसी भी समय एव कितनी ही बार आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर जा सकता है। उसे इस विषय मे पूर्ण स्वतन्त्रता है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १८९ नित्यभोजी भिक्षु को सब प्रकार का निर्दोष पानी लेना कल्प्य है । चतुर्थभक्त करने वाले भिक्षु को निम्नोक्त तीन प्रकार का पानी ग्रहण करना कल्प्य है : उत्स्वेदिम अर्थात् पिसे हुए अनाज का पानी, संस्वेदिम अर्थात् उबले हुए पत्तों का पानी और तंदुलोदक अर्थात् चावल का पानी । षष्ठभक्त करने वाले भिक्षु के लिए निम्नोक्त तीन प्रकार का पानी विहित है : तिलो - दक अर्थात् तिल का पानी, तुपोदक अर्थात् तुष का पानी और यवोदक अर्थात् जौ का पानी । अष्टमभक्त करने वाले भिक्षु के लिए निम्नोक्त तीन प्रकार का पानी विहित है . आयाम अर्थात् पके हुए चावल का पानी, सौवीर अर्थात् काजी और शुद्धविकट अर्थात् गरम पानी । विकृष्टभक्त करने वाले भिक्षु को केवल गरम पानी ग्रहण करना कल्प्य है । पाणिपात्र अर्थात् दिगम्बर भिक्षु को तनिक भी पानी वरसता हो तो भोजन के लिए अथवा पानी के लिए नही निकलना चाहिए । पात्रधारी भिक्षु अधिक वर्षा मे आहार- पानी के लिए -बाहर नही जा सकता । अल्प वर्षा होती हो तो एक वस्त्र और ओढकर आहार- पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर जा सकता है । भिक्षा के लिए बाहर गया हुआ मुनि वर्षा आ जाने की स्थिति मे वृक्ष आदि के नीचे ठहर सकता है एवं आवश्यकता होने पर वहाँ आहार- पानी का उपभोग भी कर सकता है । उसे खा-पीकर पात्रादि साफ कर सूर्य रहते हुए अपने उपाश्रय मे चले जाना चाहिये क्योकि वहाँ रह कर रात्रि व्यतीत करना अकल्प्य है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० : जैन आचार मुनि को अपने शरीर से पानी टपकने की स्थिति मे अथवा अपना शरीर गीला होने की अवस्था में आहार पानी का उपभोग नही करना चाहिये । जब उसे यह मालूम हो कि अव मेरा शरीर सूख गया है तव आहार पानी का उपभोग करना चाहिए । पर्युषणा के बाद अर्थात् वर्षा ऋतु के पचास दिन व्यतीत होने पर निर्ग्रन्य-निग्रन्थी के सिर पर गोलोमप्रमाण अर्थात् गाय के बाल जितने केश भी नहीं रहने चाहिए । कैंची से अपना मुण्डन करने वाले को आधे महीने से मुंड होना चाहिए, उस्तरे से अपना मुण्डन करने वाले को एक महीने से तथा लोच से मुड होने वाले को अर्थात् हाथो से बाल उखाड कर अपना मुडन करने वाले को छ. महीने से मुण्ड होना चाहिए । स्थविर ( वृद्ध ) वार्षिक लोच कर सकता है । श्रमण-श्रमणियों को पर्युपणा के बाद अधिकरणयुक्त अर्थात् क्लेशकारी वाणी बोलना अकल्प्य है । पर्युषणा के दिन उन्हे परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए एवं उपशमभाव की वृद्धि करनी चाहिए क्योकि जो उपशमभाव रखता है वही आराधक होता है | श्रमणत्व का सार उपशम ही है अत. जो उपशमभाव नही रखता वह विराधक कहा जाता है | भिक्षु प्रतिमाएँ : प्रतिमा का अर्थ होता है तपविशेष । दशाश्रुतस्कघ के षष्ठ उद्देश मे एकादश उपासक - प्रतिमाओ का तथा सप्तम उद्देश मे Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १९१ द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओ का वर्णन है। उपासक-प्रतिमाएं श्रावक के लिए है जबकि भिक्षु-प्रतिमाएं श्रमण के लिए हैं। द्वादश भिक्षुप्रतिमाओं के नाम इस प्रकार हैं : १. मासिकी, २. द्विमासिकी, ३. त्रिमासिकी, ४. चतुर्मासिकी, ५ पंचमासिकी, ६ पट्मासिकी, ७. सप्तमासिकी, ८. प्रथम सप्त-अहोरात्रिकी, ९. द्वितीय सप्तअहोरात्रिकी, १०. तृतीय सप्त-अहोरात्रिकी, ११. अहोरात्रिको, १२. रात्रिकी। मासिकी प्रतिमाधारी अर्थात् एक महीने तक तपविशेप की आराधना करने वाले मुनि को किसी भी संकट से नही घबराना चाहिए। उसे प्रत्येक प्रकार के परीषह को क्षमापूर्वक सहन करना चाहिए। किसी भी उपसर्ग की उपस्थिति मे दीनता का प्रदर्शन नही करना चाहिए। इस प्रतिमा मे मुनि को एक दत्ति अन्न की एवं एक दत्ति जल की लेना विहित है। यहाँ दत्ति का अर्थ है दीयमान अन्न या जल की एक अखण्डित धारा । यह पदार्थ के एक अंश-हिस्से-टुकडे के रूप मे होती है। मासिकी प्रतिमा-स्थित मुनि को अज्ञात कुल से एक व्यक्ति के लिए बने हुए भोजन मे से ही आहार ग्रहण करना कल्प्य है। गर्भवती के लिए, बालक वाली के लिए, वालक को दूध पिलाने वाली के लिए बना हुआ भोजन लेना अकल्प्य है। जिसके दोनो पैर देहली के भीतर अथवा बाहर हो उससे वह आहार नहीं लेता। जो एक पैर देहली के भीतर एव एक देहली के बाहर रखकर भिक्षा देता है उसी से वह ग्रहण करता है । यह उसका अभिग्रह अर्थात् प्रतिज्ञाविशेष है। मासिकी प्रतिमाधारी श्रमण जहाँ उसे कोई जानता हो वहाँ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ : जैन आचार एक रात एवं जहाँ उसे कोई भी नही जानता हो वहां दो रात रह सकता है । इससे अधिक रहने पर उतने ही दिन का छेद ( दीक्षा - पर्याय मे कटौती ) अथवा तपरूप प्रायश्चित्त लगता है । मासिकी प्रतिमा प्रतिपन्न निर्ग्रन्थ को चार प्रकार की भाषा कल्प्य है : आहारादि की याचना करने की, मार्गादि पूछने की, स्थानादि के लिए अनुमति लेने की तथा प्रश्नो के उत्तर देने की । इस प्रकार के अनगार के उपाश्रय मे यदि कोई आग लगा दे तो भी वह बाहर नही निकलता । यदि कोई उसे पकड़ कर बाहर खीचने का प्रयत्न करे तो वह हठ न करते हुए यतनापूर्वक बाहर निकल आता है । यदि उसके पैर मे कांटा, कंकड या कील आदि लग जाय अथवा आँख में धूलि आदि गिर जाय तो उसकी परवाह न करते हुए समभावपूर्वक विचरण करता रहता है । यदि उसके सामने मदोन्मत्त हाथी, घोडा, बैल, भैस, सूअर, कुत्ता, बाघ अथवा अन्य क्रूर प्राणी प्रा जाय तो उससे भयभीत होकर वह एक कदम भी पीछे नही हटता । यदि कोई भोला-भाला जीव उसके सामने आजाय और डरने लगे तो वह कुछ पीछे हट जाता है । वह ठंड के भय से शीतल स्थान से उठ कर उष्ण स्थान पर अथवा गरमी के डर से उष्ण स्थान से उठ कर शीतल स्थान पर नही जाता अपितु जिस समय जहाँ होता है उस समय वही रह कर शीतोष्ण परीषह सहन करता है । द्विमासिकी प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार भी इसी प्रकार व्युत्सृष्टकाय अर्थात् शरीर के मोह से रहित होता है । वह केवल दो दत्तिया अन्न की तथा दो दत्तियाँ जल की ग्रहण करता है । त्रिमासिकी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म . १९३ प्रतिमा मे अन्न-जल की तीन दत्तियां, चतुर्मासिकी प्रतिमा में चार दत्तिया, पचमासिकी प्रतिमा मे पाच दत्तिया, पटमासिकी प्रतिमा मे छ दत्तिया तथा सप्तमासिकी प्रतिमा मे सात दत्तियां विहित है। __ प्रथम सप्त-अहोरात्रिकी प्रतिमा-प्रतिपन्न भिक्षु निर्जल चतुर्थ • भक्त (उपवास) करते हुए ग्रामादि के बाहर उत्तानासन ( लेटे हुए आकाश की ओर मुख रख कर-चित्त लेट कर ), पाश्र्वासन ( एक पार्श्व के आधार पर लेटकर ) अथवा निषद्यासन (समपादपूर्वक बैठ कर) से कायोत्सर्ग-ध्यान करता है। वहा वह देव, मनुष्य या तिर्यञ्चसम्बन्धी उपसर्ग उत्पन्न होने पर ध्यान से स्खलित नही होता। द्वितीय सप्त-अहोरात्रिकी प्रतिमा मे दण्डासन, लकुटासन अथवा उत्कुटुकासन पर ध्यान किया जाता है। तृतीय सप्त-अहोरात्रिकी प्रतिमा मे ध्यान के लिए गोदोहनिकासन, वीरासन अथवा आम्रकुब्जासन का अवलम्बन लिया जाता है। शेष सव नियम प्रथम सप्त-अहोरात्रिकी प्रतिमा के ही समान हैं। अहोरात्रिकी प्रतिमा निर्जल षष्ठ भक्त ( दो उपवास ) पूर्वक होती है। इस प्रतिमा मे स्थित मुनि ग्रामादि के वाहर (खडा) रह कर दोनो पैरों को कुछ संकुचित कर तथा दोनों भुजाओ को ( जानुपर्यन्त ) लम्बी कर कायोत्सर्ग करता है। रात्रिकी प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार निर्जल अष्ट भक्त ( तीन , उपवास) पूर्वक ग्रामादि के बाहर खड़ा रह कर शरीर को ..थोडा-सा आगे की ओर झुकाकर एक पुद्गल (नासिका, नख Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ : जैन आचार आदि किसी एक अंगोपाग ) पर दृष्टि स्थित कर निर्निमेष नेत्रों, निश्चल अंगों, सकुचित पैरो एवं प्रलम्बित वाहुयो से ध्यानस्थ होता है तथा पूर्ववत् समस्त उपसर्गों को सहन करता है । इन प्रतिमाओ के नामो से स्पष्ट है कि प्रथम प्रतिमा एक मास की, द्वितीय दो मास की यावत् सातवी प्रतिमा सात मास की होती है । आठवी, नवी व दसवी प्रतिमाओं का समय सातसात दिनरात का है । ग्यारहवी प्रतिमा एक दिनरात की तथा बारहवी प्रतिमा एक रात की होती है । प्रथम सात प्रतिमाओं मे टीकाकार पूर्व - पूर्व की प्रतिमाओ का समय भी मिलाते जाते हैं । दूसरे शब्दों मे टीकाकारो के मत से प्रथम सात प्रतिमाएँ एक-एक मास की ही होती हैं । ऐसा मानने पर आठ मास के भीतर ही द्वादश प्रतिमाएं समाप्त हो जाती हैं । यदि मूल सूत्र के अनुसार प्रथम प्रतिमा एक मास की यावत् सप्तम प्रतिमा अलग से सात मास की मानी जाय तो प्रथम सात प्रतिमाओं के लिए दो वर्ष चार महीने तथा अतिम पांच प्रतिमाओ के लिए बाईस दिन व एक रात का समय लगता है । इस प्रकार द्वादश प्रतिमाएँ दो वर्ष, चार मास, बाईस दिवस व एक रात्रि मे समाप्त हो पाती हैं । इस अवधि मे वर्षा ऋतु के दिनो मे विहार के सामान्य नियम का पालन नही किया जाता अर्थात् एक या दो दिन के अन्तर से ग्रामानुग्राम विहार न किया जाकर चार मास पर्यन्त एक ही स्थान पर रहा जाता है । व्यवहार सूत्र के दसवे उद्देश मे यवमध्य - प्रतिमा एवं वज्रमध्य- प्रतिमा का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार अन्यत्र भद्र Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म : १९५ प्रतिमा, महाभद्र-प्रतिमा, सुभद्र-प्रतिमा, सर्वतोमहाभद्र-प्रतिमा, सप्तपिण्डैषणा-प्रतिमा, सप्तपानैषणा-प्रतिमा आदि विविध भिक्षुप्रतिमाओं का वर्णन उपलब्ध होता है। इनमे तप के विविध रूपों का प्रतिपादन किया गया है। तप से कर्मनिर्जरा होती है अतः मुनि के लिए तप आचरणीय है। समाधिमरण अथवा पंडितमरण : मरण दो प्रकार का होता है : बालमरण और पडितमरण । अज्ञानियो का मरण बालमरण एवं ज्ञानियों का मरण पडितमरण कहा जाता है। जो विषयों मे आसक्त होते हैं एवं मृत्यु से भयभीत रहते हैं वे अज्ञानी बालमरण से मरते हैं। जो विषयों मे अनासक्त होते हैं यथा मृत्यु से निर्भय रहते है वे ज्ञानी पडितमरण से मरते हैं। चूंकि पडितमरण मे संयमी का चित्त समाधियुक्त होता है अर्थात् सयमी के चित्त मे स्थिरता एवं समभाव की विद्यमानता होती है अतः पंडितमरण को समाधिमरण भी कहते हैं। जब भिक्षु या भिक्षुणी को यह प्रतीति हो जाय कि मेरा शरीर तप आदि के कारण अत्यन्त कृश हो गया है अथवा रोग आदि कारणों से अत्यन्त दुर्बल हो गया है अथवा अन्य किसी आकस्मिक कारण से मृत्यु समीप आगई है एवं सयम का निर्वाह असभव हो गया है तब वह क्रमशः आहार का सकोच करता हुआ कपाय को कृश करे, शरीर को समाहित करे एव शान्त चित्त से शरीर का परित्याग करे। इसी का नाम समाधिमरण Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ : जैन आचार अथवा पंडितमरण है। चूकि इस प्रकार के मरण मे शरीर एवं कपाय को कृश किया जाता है-कुरेदा जाता है अतः इसे संलेखना भी कहते है। सलेखना में निर्जीव एकान्तस्थान में तृणशय्या (संस्तारक) विछा कर अाहारादि का परित्याग किया जाता है अत: इसे सथारा (सस्तारक) भी कहते हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवे अध्ययन मे समाधिमरण स्वीकार करने वाले को वुद्ध व ब्राह्मण कहा गया है एव इस मरण को महावीरोपदिष्ट वताया गया है। समाधिमरण ग्रहण करने वाले की माध्यस्थ्यवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह संयमी न जीवित रहने की आकांक्षा रखता है, न मृत्यु की प्रार्थना करता है। वह जीवन और मरण मे आसक्तिरहित होता है-समभाव रखता है। इस अवस्था मे यदि कोई हिंसक प्राणी उसके शरीर का मास व रक्त खा जाय तो भी वह उस प्राणी का हनन नही करता और न उसे अपने शरीर से दूर ही करता है। वह यह समझता है कि ये प्राणी उसके नश्वर शरीर का ही नाश करते है, अमर आत्मा का नहीं। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्र म ण - संघ गच्छ, कुल, गण व संघ प्राचार्य उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर, गणी गणावच्छेदक व रत्नाधिक निर्ग्रन्थी-सघ वैयावृत्य दीक्षा प्रायश्चित्त Page #212 --------------------------------------------------------------------------  Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ जैन आचारशास्त्र मे स्थविरकल्पिक मुनि के लिए व्रतपालन की भिन्न व्यवस्था की गई है एवं जिनकल्पिक मुनि के लिए भिन्न । जिनकल्पिक मुनि का आचार अति कठोर तपोमय होता है अत. उसे विशेष प्रकार के संगठन अथवा सामूहिक मर्यादाओं मे न वाँध कर एकाकी विचरने की अनुमति दी गई है। वह एकावहारी एवं एकान्तविहारी होकर ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। स्थविरकल्पिक के विषय में यह बात नही है। वह एकाकी रह कर संयम का पालन समुचित रूप से नहीं कर सकता। उसकी मानसिक भूमिका अथवा आध्यात्मिक भूमिका इतनी विकसित नही होती कि वह अकेला रह कर सर्वविरत श्रमणधर्म का पालन कर सके। इसलिए स्थविरकल्पिकों के लिए संघव्यवस्था की गई है। सघ से पृथक होकर विचरण करने वाले स्थविरकल्पिको के विपय मे आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पचम अध्ययन मे स्पष्ट कहा गया है कि एकचारी बहुक्रोधी, बहुमानी, बहुमायी एवं वहुलोभी होते हैं। वे 'हम तो धर्म मे उद्यत हैं' ऐसा अपलाप करते हैं। वस्तुत. उनका दुराचरण कोई देख न ले इसलिए वे एकाकी विचरते हैं। वे अपने अजान एव प्रमाद के कारण धर्म को नही जानते । व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश मे एकलविहारी साधु के विषय मे कहा गया है कि कोई साधु गण का त्याग कर अकेला ही विचरे और बाद Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० : जैन आचार मे पुन. गण में सम्मिलित होना चाहे तो उसे आलोचना आदि (प्रायश्चित्त) करवाकर प्रथम दीक्षा का छेद अर्थात् भंग कर नई दीक्षा अंगीकार करवानी चाहिए। जो नियम सामान्य एकलविहारी निग्रन्थ के लिए है वही एकलविहारी गणावच्छेदक, उपाध्याय, आचार्य आदि के लिए भी है। गच्छ, कुल, गण व संघ : श्रमण-सघ के मूल दो विभाग है : साधुवर्ग व साध्वीवर्ग। सख्या की विशालता को दृष्टि में रखते हुए इन वर्गों को अनेक उपविभागो मे विभक्त किया जाता है। जितने साधुनो व साध्वियो की सुविधापूर्वक देख-रेख व व्यवस्था की जा सके उतने साधु-साध्वियो के समूह को गच्छ कहा जाता है। इस प्रकार के गच्छ के नायक को गच्छाचार्य कहते है। गच्छ के साधुओ अथवा साध्वियो की संख्या बडी होने पर उनका विभिन्न वर्गों मे विभाजन किया जा सकता है । इस प्रकार के वर्ग मे कम से कम कितने साधु हो, इसका विधान करते हुए व्यवहार सूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि हेमन्त तथा ग्रीष्म ऋतु मे आचार्य एव उपाध्याय के साथ कम से कम एक अन्य साधु रहना चाहिए । अन्य वर्गनायक, जिसे जैन परिभापा मे गणावच्छेदक कहते हैं, के साथ हेमन्त एवं ग्रीष्म ऋतु मे कम से कम दो अन्य साधु रहने चाहिए । वाऋतु मे आचार्य एवं उपाध्याय के साथ दो तथा गणावच्छेदक के साथ तीन अन्य साधुओ का रहना अनिवार्य है। पंचम उद्देश मे साध्वियो की Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ : २०१ अल्पतम संख्या का विधान करते हुए कहा गया है कि प्रवर्तिनी (प्रधान आर्या) को हेमन्त एव ग्रीष्म ऋतु मे कम से कम दो तथा वर्षाऋतु मे कम से कम तीन अन्य साध्वियो के साथ रहना चाहिए। गणावच्छेदिनी के साथ वर्षाकाल मे कम से कम चार तथा अन्य समय मे कम से कम तीन साध्वियां रहनी चाहिए। गच्छ के विभिन्न वर्गों के साधु-साध्वी गच्छाचार्य की आजा के अनुसार ही विचरण करते हैं। इस प्रकार के अनेक गच्छो के समूह को कुल कहते हैं। कुल के नायक को कुलाचार्य कहा जाता है । अनेक कुलो के समूह को गण तथा अनेक गणो के समुदाय को सघ कहते हैं । गणनायक गणाचार्य अथवा गणधर तथा सघनायक सधाचार्य अथवा प्रधानाचार्य कहलाता है। आचार्य: - श्रमण-श्रमणियो मे आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उसके वाद उपाध्याय, गणी आदि का स्थान आता है। व्यवहार सूत्र के ततीय देश मे आचार्य-पद की योग्यताओ का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है कि जो कम से कम पाच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार मे कुशल है, प्रवचन मे प्रवीण है यावत् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प अर्थात् बृहत्कल्प एव व्यवहार सूत्रो का ज्ञाता है उसे आचार्य एव उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण यदि आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण एव असंक्लिष्टमना है तथा कम से कम स्थानांग व समवायाग सत्रो का ज्ञाता है तो उसे आचार्य Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ : जैन आचार उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक आदि को पदवी प्रदान की जा सकती है | ये सामान्य नियम हैं । अपवाद के तौर पर तो विशेष कारणवशात् सयम से भ्रष्ट हो पुन. श्रमणाचार अंगीकार करने वाले निर्ग्रन्थ को एक दिन की दीक्षापर्याय वाला होने पर भी आचार्यादि पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है । इस प्रकार का निर्ग्रन्थ संस्कारो की दृष्टि से सामान्यतया प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत एवं बहुमत कुल का होना आवश्यक है । इतना ही नही, उसमे खुद मे प्रतीति, धैर्य, समभाव प्रादि स्वकुलोपलव्ध गुणो का होना जरूरी है। सूत्रों का ज्ञान तो आवश्यक है ही । इस प्रकार का निर्ग्रन्थ कुलसम्पन्न एवं गुणसम्पन्न होने के कारण अपने दायित्व का सम्यक्तया निर्वाह कर सकता है । मैथुन सेवन करने वाले श्रमण को आचार्य आदि की पदवी प्रदान करने का निषेध करते हुए कहा गया है कि जो गच्छ से अलग हुए बिना अर्थात् गच्छ मे रहते हुए ही मैथुन मे आसक्त हो उसे जीवनपर्यन्त आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी एवं गणावच्छेदक की पदवी देना निषिद्ध है । गच्छ का त्याग कर मैथुन सेवन करने वाले को पुनः दीक्षित हो गच्छ मे सम्मि लित होने के बाद तीन वर्ष तक आचार्यादि की पदवी प्रदान करना निषिद्ध है । तीन वर्ष व्यतीत होने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शान्त हो, कषायादि का अभाव हो तो उसे आचार्य आदि के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है । श्रमण-श्रमणियो के लिए यह आवश्यक है कि वे आचार्य Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ : २०३ आदि पूज्य पुरुषों की अनुपस्थिति में विचरण न करें और न कही रहे हो। व्यवहार सूत्र के चतुर्थ उद्देश में बताया गया है कि ग्रामानुग्राम विचरते हुए यदि अपने गण के आचार्य की मृत्यु हो जाय तो अन्य गण के आचार्य को प्रधान के रूप मे अंगीकार कर रागद्वेषरहित होकर विचरण करना चाहिए । यदि उस समय कोई योग्य आचार्य न मिल सके तो अपने मे से किसी। योग्य साधु को प्राचार्य की पदवी प्रदान कर उसकी आज्ञा के । अनुसार आचरण करना चाहिए । इस प्रकार के योग्य साधु का । भी अभाव हो तो जहाँ तक अपने अमुक सार्मिक साधु न मिल जाय वहाँ तक मार्ग मे एक रात्रि से अधिक न ठहरते हुए लगातार विहार करते रहना चाहिए। रोगादि विशेष कारणो से कहो अधिक ठहरना पड जाय तो कोई हानि नही। वर्षाऋतु के दिनो मे आचार्य का अवसान होने पर भी इसी प्रकार आचरण करना चाहिए। इस प्रकार की विशेष परिस्थिति मे वर्षाकाल मे भी विहार विहित है।। निर्गन्थियों के विषय मे व्यवहार सत्र के सप्तम उद्देश मे । बताया गया है कि तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाले निग्रन्थ को तीस वर्ण की दीक्षापर्याय वाली निर्ग्रन्थी उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। इसी प्रकार पाच वर्ष को दीक्षापर्याय वाले निग्रन्थ को साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली निन्थी आचार्य अथवा उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित कर सकती है। तात्पर्य यह है कि साधु-साध्वियो को बिना आचार्यादि के नियन्त्रण के स्वच्छन्तापूर्वक नही रहना चाहिए । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : जैन आचार अपने जीवन के अन्तिम समय में आचार्य विविध पदो पर नियुक्तियाँ कर सकता है । एतद्विपयक विशिष्ट विधान करते हुए व्यवहार सूत्र के चतुर्थ उद्देश मे कहा गया है कि यदि आचार्य अधिक बीमार हो और उसके जीने की विशेष आशा न हो तो उसे अपने पास के साधुओं को बुलाकर कहना चाहिए कि मेरी आयु पूर्ण होने पर अमुक साधु को अमुक पद प्रदान करे | आचार्य की मृत्यु के वाद यदि वह साधु प्रयोग्य प्रतीत न हो तो उसे उस पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। अयोग्य प्रतीत होने पर किसी अन्य योग्य साधु को वह पद प्रदान करना चाहिए । अन्य योग्य साधु के अभाव मे आचार्य के सुझाव के अनुसार किसी भी साधु को अस्थायी रूप से कोई भी पद प्रदान किया जा सकता है । अन्य योग्य साधु के तैयार हो जाने पर अस्थायी पदाधिकारी को अपने पद से अलग हो जाना चाहिए । आचार्य का सामान्य कार्य अपने अधीनस्थ साधु-साध्वीवर्ग की सब तरह की देख-रेख रखना है । वह उनका मुख्य अधिकारी होता है । उसका विशेष कार्य साधु-साध्वियो को उच्च कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है— उच्च अध्यापन करना है । आचार्य के बाद उपाध्याय का स्थान है और उसके बाद प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक, रात्निक अथवा रत्नाधिक आदि का । उपाध्याय उपाध्याय का मुख्य कार्यं साधु-साध्वियो को प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है । व्यवहार सूत्र के Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ • २०५ तृतीय उद्देश मे उपाध्याय-पद की योग्यताओ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार में कुशल है, सयम मे सुस्थित है, प्रवचन मे प्रवीण है, प्रायश्चित्त प्रदान करने में समर्थ है. गच्छ के लिए क्षेत्रादि का निर्गय करने मे निष्णात है, निर्दोष आहारादि की गवेषणा में निपुण है, सक्लिष्ट परिणामो-भावो से अस्पष्ट है, ‘चारित्रवान् है, वहुश्रुत है वह उपाध्याय-पद पर प्रतिष्ठित करने योग्य है। प्रवर्तक, स्थविर, गणो, गणावच्छेदक व रत्नाधिक : प्रवर्तक का मुख्य कर्तव्य साधु-साध्वियों को श्रमणाचार की प्रवृत्ति मे प्रवृत्त करना एव तद्विषयक शिक्षा देना है। प्रवर्तक श्रमण-सघ का प्राचाराधिकारी होता है। वह आचार व विचार दोनो मे कुशल होता है। ___ स्थविर (वृद्ध) तीन प्रकार के कहे गये है जाति-स्थविर, सूत्र-स्थविर और प्रव्रज्या-स्थविर । साठ वर्ष की आयु होने पर श्रमण जाति-स्थविर होता है । स्थानागादि सूत्रो का ज्ञाता साधु सूत्र-स्थविर कहलाता है। दीक्षा ग्रहण करने के वीस वर्ष बाद अर्थात् वीस वर्ष की दीक्षापर्याय होजाने पर निग्रन्थ प्रव्रज्यास्थविर कहलाने लगता है। स्थविर का मुख्य दायित्व श्रमणसघ मे प्रविष्ट होने वाले निग्रन्थ-निर्गन्थियों को श्रमणधर्मोपयोगी 'प्रारभिक शिक्षा प्रदान करना है। गणी का मुख्य कार्य अपने गंण को सूत्रार्थ देना अर्थात् Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ : जैन आचार शास्त्र पढाना है । गणी को वाचनाचार्य अथवा गणधर भी कहा जाता है। गणावच्छेदक अमुक गच्छ अथवा वर्ग का नायक होता है। उस वर्ग के समस्त साधुओ का नियन्त्रण उसके हाथ मे होता है। श्रमण-संघ के विशिष्ट ज्ञानाचारसम्पन्न निग्रन्थ रात्निक अथवा रत्नाधिक कहलाते हैं। ये महानुभाव विविध अनुकूलप्रतिकूल प्रसंगों पर आचार्यादि की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि दिगम्बर ग्रंथों मे भी श्रमण-संघ के विशिष्ट पुरुषो अथवा अधिकारियों के नाम लगभग इसी रूप मे मिलते हैं। उनमे आचार्य, उपाध्याय, गणधर, स्थविर, प्रवर्तक, रात्निक आदि नाम उपलब्ध होते हैं । निर्ग्रन्थी-संघ निम्रन्थ-सघ की ही भांति निर्गन्थी-संघ भी आचार्य एवं उपाध्याय के ही अधीन होता है। ऐसा होते हुए भी उसके लिए भिन्न व्यवस्था करना अनिवार्य है क्योकि उसका संगठन स्वतन्त्र ही होता है। निर्ग्रन्थियो को निर्ग्रन्थो के साथ बैठने, उठने, पाने, जाने, खाने, पीने, रहने, फिरने आदि की मनाही है। निर्गन्थियों को अपने ही वर्ग मे रहकर संयम की आराधना करनी होती है । यही कारण है कि निर्ग्रन्थी-सघ मे भी विशिष्ट पदाधिकारियों की नियुक्तियां की जाती हैं। इस प्रकार की नियुक्तियाँ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ : २०७ मुख्यत: निम्नोक्त चार पदों से सम्बन्धित होती है प्रतिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी। पूरे श्रमण-सघ मे आचार्य का जो स्थान है वही स्थान निर्ग्रन्थी-सघ मे प्रवर्तिनी का है । उसकी योग्यताएं भी आचार्य आदि के ही समकक्ष है अर्थात् आठ वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाली साध्वी प्राचारकुशल, प्रवचनप्रवीण तथा असंक्लिष्ट चित्त वाली एवं स्थानांग-समवायांग की ज्ञाता होने पर प्रतिनी के पद पर प्रतिष्ठित की जा सकती है । प्रवर्तिनी को महत्तरा के रूप मे भी पहचाना जाता है । आचार्य-उपाध्याय के अधीन होने के कारण उसे महत्तमा नही कहा जाता । कही-कही प्रधानतम साध्वी के लिए गणिनी शब्द का भी प्रयोग हआ है। साध्वी-संघ में गणावच्छेदिनी का वही स्थान है जो श्रमण-संघ मे उपाध्याय का है। इसीलिए गणावच्छेदिनी को उपाध्याया के रूप में भी पहचाना जाता है। श्रमण-संघ मे जो स्थान स्थविर का है वही स्थान साध्वीसघ मे अभिषेका का है। इसीलिए उसे स्थविरा भी कहा जाता है। प्रतिहारी रात्निक अथवा रत्नाधिक श्रमण के समकक्ष मानी जा सकती है। प्रतिहारी निन्थी को प्रतिश्रयपाली, द्वारपाली अथवा संक्षेप में पाली के रूप मे भी पहचाना जाता है । निग्रन्थी-सघ की पदाधिकारिणियां भी निर्गन्थ पदाधिकारियो के ही समान ज्ञानाचारसम्पन्न होती हैं। मूलाचार के सामाचार नामक चतुर्थ अधिकार में संघ के श्रमण-श्रमणियों के पारस्परिक व्यवहार का विचार करते हुए कहा गया है कि तरुण श्रमण को तरुण श्रमणी के साथ संभाषण Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ • जैन आचार आदि नही करना चाहिए, श्रमणो को श्रमणियों के साथ नही ठहरना चाहिए, श्रमणियो को आचार्य से पांच हाथ दूर, उपाध्याय से छ हाथ दूर तथा अन्य साधुओ से सात हाथ दूर बैठ कर वंदना करनी चाहिए। श्रमणियो को पारस्परिक संरक्षण की भावना से तीन, पाच अथवा सात की संख्या मे भिक्षा के लिए जाना चाहिए। ' वैयावृत्य : वैयावृत्य अर्थात् सेवा के विषय मे स्थविरकल्पिकों के लिए सामान्य नियम यही है कि साधु साध्वी से एव साध्वी साधु से किसी प्रकार का काम न ले। अपवाद के रूप मे साधु-साध्वी परस्पर सेवा-सुश्रूषा कर सकते है। सर्पदंश आदि विषम परिस्थिति मे आवश्यकतानुसार कोई भी स्त्री अथवा पुरुप साधुसाध्वी की औषधोपचाररूप सेवा कर सकता है। जिनकल्पिको को त्यागी अथवा गृहस्थ किसी से किसी भी प्रकार की सेवा लेना अथवा करना अकल्प्य है। निग्रन्थ-निर्गन्थियो के लिए सामान्यतया दस प्रकार की सेवा आचरणीय बताई गई है : १. आचार्य की सेवा, २ उपाध्याय की सेवा, ३ स्थविर की सेवा, ४. तपस्वी की सेवा, ५ शैक्ष अर्थात् छात्र की सेवा, ६ ग्लान अर्थात् रोगी की सेवा, ७ सार्मिक की सेवा, ८ कुल की सेवा, ६ गण की सेवा, १०. सघ की सेवा । इस प्रकार की सेवा से महानिर्जरा का लाभ होता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-संघ . २०९ दीक्षा: प्रव्रज्या अथवा दीक्षा के विषय मे सामान्य नियम यही है कि साधु स्त्री को तथा साध्वी पुरुप को दीक्षित न करे । यदि किसी ऐसे स्थान पर स्त्री को वैराग्य हुआ हो जहाँ आसपास मे साध्वी न हो तो साधु उसे इस शर्त पर दीक्षा दे सकता है कि दीक्षा देने के बाद उसे यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर दे । इसी शर्त पर साध्वी भी पूरुप को दीक्षा प्रदान कर सकती है। तात्पर्य इतना ही है कि दीक्षा के नाम पर किसी प्रकार से साधु स्त्रीसग के दोष का भागी न बने और साध्वी पुरुषसग के दोप से दूर रहे । इसे ध्यान में रखते हुए दोक्षा देने की औपचारिक विधि किसी भी योग्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी द्वारा सम्पन्न की जा सकती है। दीक्षित होने के बाद साधु का निर्ग्रन्थ-वर्ग मे एव साध्वी का निर्ग्रन्थी-वर्ग मे सम्मिलित होना आवश्यक है। निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो को नियमानुसार किसी भी अवस्था मे आठ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओ को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। दीक्षा के लिए विचारों की परिपक्वता भी आवश्यक है । अपरिपक्व आयु, अपरिपक्व विचार एव अपरिपक्व वैराग्य दीक्षा के पवित्र उद्देश्य की संप्राप्ति मे बाधक सिद्ध होते है । पडक, क्लीव आदि अयोग्य पुरुपो को भी दीक्षा नही देनी चाहिए। प्रायश्चित्त: प्रायश्चित्त का अर्थ है व्रत मे लगने वाले दोषो के लिए समुचित दण्ड । श्रमण-सघ की व्यवस्था सुचारु रूप से चले, इसके Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० : जैन आचार लिए दण्डव्यवस्था आवश्यक है। किसी भी व्यवस्था के लिए चार बातों का विचार आवश्यक माना जाता है: १. उत्सर्ग, २. अपवाद, ३. दोष, ४. प्रायश्चित्त । किसी विषय का सामान्य अथवा मुख्य विधान उत्सर्ग कहलाता है। विशेष अथवा गौण विधान का नाम अपवाद है। उत्सर्ग अथवा अपवाद का भंग दोप कहलाता है। दोष से सम्बन्धित दण्ड को प्रायश्चित्त कहते है। प्रायश्चित्त से लगे हुए दोषों की शुद्धि होने के साथ ही साथ नये दोषों की भी कमी होती जाती है। यही प्रायश्चित्त की उपयोगिता है। यदि प्रायश्चित्त से न तो लगे हुए दोषों की शुद्धि हो और न नये दोषो की कमी तो वह निरर्थक है-निरुपयोगी है। जीतकल्प सूत्र मे निर्ग्रन्थ-निग्रंथियों के लिए दस प्रकार के प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है : १ आलोचना, २ प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक । इन दस प्रकारो में से अन्तिम दो प्रकार चतुर्दशपूर्वधर (प्रथम भद्रबाहु ) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया-व्यवहार बंद हो गया। मूलाचार के पंचाचार नामक पंचम अधिकार मे भी प्रायश्चित्त के दस ही प्रकार बताये गये हैं। उनमे अन्तिम दो के सिवाय सव नाम वही हैं जो जीतकल्प मे हैं । अन्तिम दो प्रकार परिहार व श्रद्धान के रूप मे हैं। सभवत. अन्तिम दो प्रायश्चित्तो का व्यवहार बंद हो जाने के कारण यह अन्तर हो गया हो।। आहारादिग्रहण, वहिनिर्गम, मलोत्सर्ग आदि प्रवृत्तियो मे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संघ : २११ लगने वाले दोषो को शुद्धि के लिए आलोचनारूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । आलोचना का अर्थ है सखेद अपराधस्वीकारोक्ति । प्रमाद, आशातना, अविनय, हास्य, विकथा, कन्दर्प आदि दोषो को शुद्धि के लिए प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । प्रतिक्रमण का अर्थ है दुष्कृत को मिथ्या करना अर्थात् किये हुए अपराधो से पीछे हटना | अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भार्पण, दुश्चेष्टा आदि अनेक अपराध आलोचना व प्रतिक्रमण उभय के योग्य 1 अशुद्ध आहार आदि का त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है । विवेक का अर्थ है अशुद्ध भक्तादि का विचारपूर्वक परिहार । गमनागमन, श्रुत, स्वप्न आदि से सम्बन्धित दोषो की शुद्धि - के लिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायोत्सर्ग किया जाता । कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की ममता का त्याग । ज्ञानातिचार आदि विभिन्न अपराधो की शुद्धि के लिए एकाशन, उपवास, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि तपस्याओ का सेवन - किया जाता है । इसी का नाम तप प्रायश्चित्त है । छेद का अर्थ है दीक्षापर्याय मे कमी । इस प्रायश्चित्त मे विभिन्न अपराधो के लिए दीक्षावस्था मे विभिन्न समय की कमी कर दी जाती है । इस कमी से अपराधी श्रमण का स्थान संघ मे अपेक्षाकृत नीचा हो जाता है । जो तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा तप के लिए सर्वथा अयोग्य है, जिसकी तप पर तनिक Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ : जैन आचार भी श्रद्धा नही है अथवा जिसका तप से दमन करना अति कठिन है उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है। पचेन्द्रियघात, मैथुनप्रतिसेवन आदि अपराधो के लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान है। मूल का अर्थ है अपराधी की पूर्व प्रव्रज्या को भूलत समाप्त कर उसे पुनदोक्षित करना अर्थात् नई दीक्षा देना। तीव्र क्रोधादि से प्ररुष्ट चित्त वाले घोर परिणामी श्रमण के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है। अनवस्थाप्य का अर्थ है अपराधी को तुरन्त नई दीक्षान देकर अमुक प्रकार की तपस्या करने के बाद ही पुनः दीक्षित करना । पाराचिक प्रायश्चित्त देने का अर्थ है अपराधी को हमेशा के लिए संव से बाहर निकाल देना । तीर्थंकर, प्रवचन, आचार्य, गणधर आदि की अभिनिवेशवश पुनः- पुन. आशातना करने वाला पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। उसे श्रमणसघ से स्थायीरूप से बहिष्कृत कर दिया जाता है। किसी भी अवस्था में उसे पुनः प्रव्रज्या प्रदान नहीं की जाती। बृहत्कल्प के चतुर्थ उद्देश मे दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है तथा सार्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य एवं मुष्टिप्रहार के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गयी है। निशीथ सूत्र मे चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लधुमास Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-सव : २१३ अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन अर्थात् अर्ध-उपवास समझना चाहिए। इस प्रकार गुरुमासिक आदि तप-प्रायश्चित्त के ही भेद हैं। अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली मे डालना, पुष्पादि सूचना, पात्र आदि दूसरो से साफ करवाना, सदोप आहार का उपयोग करना आदि क्रियाएं गुरुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं । दारुदण्ड का पादप्रोछन बनाना, पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा पश्चात् दाता की। प्रशसा करना, निष्कारण परिचित घरो मे प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ की सगति करना, शय्यातर अर्थात् अपने ठहरने के मकान के मालिक के यहाँ का आहार-पानी ग्रहण करना आदि क्रियाएं लघुमासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। स्त्री अथवा पुरुष से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, स्तन आदि हाथ मे पकड़ कर हिलाना अथवा मसलना, पशु-पक्षी को स्त्रीरूप अथवा पुरुषरूप मानकर उनका आलिंगन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेल होकर सचेल के साथ रहना अथवा सचेल होकर अचेल के साथ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ : जैन आचार रहना अथवा अचेल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएं गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। प्रत्याख्यान का बार-बार भग करना, गृहस्थ के वस्त्र, पात्र, शय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर मे ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, अर्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानो मे टट्टी-पेशाब डाल कर गंदगी करना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार मे प्रवेश करना, समान आचारवाले निर्गन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की 'सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल मे स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा योग्य को शास्त्र न पढाना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना अथवा उससे पढना आदि क्रियाएं लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। निशीथ सूत्र के अन्तिम उद्देश मे सकपट आलोचना के लिए निष्कपट आलोचना से एकमासिकी अतिरिक्त प्रायश्चित्त का विधान किया गया है तथा प्रायश्चित्त करते हुए पुन: दोष लगने पर विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है। व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश मे भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। कही-कही ऐसा भी देखने मे आता है कि एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त नियत किये गये हैं। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-सघ : २१५ इसका कारण परिस्थिति की भिन्नता, अपराधी की भावना एवं अपराध की तीव्रता-मंदता है। ऊपर से समान दिखाई देने वाले दोप में परिस्थिति की विशेषता एव अपराधी के आशय के अनुरूप तारतम्य होना स्वाभाविक है। इसी तारतम्य के अनुसार अपराध की तीव्रता-मदता का निर्णय कर तदनुरूप दण्ड-व्यवस्था की जाती है। अतः एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त देने में किसी प्रकार का विरोध नही है। ___सामान्यतया प्रायश्चित्त प्रदान करने का अधिकार आचार्य को होता है। परिस्थितिविशेष को ध्यान में रखते हुए अन्य अधिकारी भी इस अधिकार का उपयोग कर सकते हैं। अपराधविशेष अथवा अपराधीविशेष को दृष्टि में रखते हए सम्पूर्ण संघ भी एतद्विषयक आवश्यक कार्यवाही कर सकता है। इस प्रकार प्रायश्चित्त देने का अथवा प्रायश्चित्त के निर्णय का कार्य परिस्थिति, अपराध एवं अपराधी को दृष्टि में रखते हुए आचार्य, अन्य कोई पदाधिकारी अथवा सकल श्रमण-सघ सम्पन्न करता है। Page #230 --------------------------------------------------------------------------  Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूची अनगार-धर्मामृत (स्वोपज्ञ टीकासहित), आशाधर, माणिक__ चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, बम्बई, १९१९. अनुप्रेक्षा ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 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Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग अगादान अगार • अंगारकर्म अगारादिदोप अगोछा अतरगृह अतराय अकारण अकिंचन अखेद अघाती अचित्त ਕਰੇਲ अचेलक अचेलकत्व अचौर्य अजिन अज्ञानमरण प्रणुव्रत अणुव्रती अ अनुक्रमणिका अतिचार अतिथिस विभाग अतिभार अदतघावन अदत्तादान अदत्तादान - विरमण १२,४० ६६ ७१,७८, १७४ १०६ १७५ १०७ ६४ १८,७८ १७४ १४१ ४१ १८ १७० १५३ १५६,१६६ ७०,७२,१४२, १५७ ९५ ७८ १२२ ३३,७५,७७,८५,११३ ८३ J ५९ ७१, १४२ १३८ १३९ अद्वेष ३१ अधिकरण ६३ अधोदिशा - परिमाण अतिक्रमण १०५ १७३ ७२ अध्यवपूरक अध्र ुव अध्वगमन अनंगक्रीडा अनगार-वर्मामृत अनगार-भावना अनर्थदड अनर्थदड- विरमण अनवस्थाप्य अनागामी · ८९ - ११७ अनासक्त अनिवार्यतावाद अनिवृत्ति गुणस्थान ७० १११ १११ ६४,७०,२१०, २१२ ३९ १४१ १६ ३६ ६३ εε ७७ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ : जैन आचार ११७ ११७ १७४ . ११७. ११७ मनिवृत्ति-बादर-गुणस्थान ३६ अपुनरावृत्ति-स्थान मनिवृत्ति-बादर-सपराय ३६ अपूर्वकरण अनिष्ट-सयोग १११ अपेक्षावाद अनिसृष्ट १७३ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित अनीश्वरवाद १५ उच्चारप्रस्त्रवणभूमि अनुकंपा ६२ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित मनुप्रेक्षा १९,७८,१८६ शय्यासस्तारक अप्रमत्त-संयत मनुभाग-वध १७ अप्रमाण अनुमतित्याग ७५, १३० अप्रमाणित-दुष्प्रमाणित . अनेकांतवाद ८, २३ उच्चारप्रस्त्रवणभूमि अन्नपाननिरोध अप्रमार्जित-दुष्प्रमाणित अन्निकापुत्र शय्यासस्तारक अन्यत्व अवहुवादी अन्योन्यक्रिया ५७ अवाघाकाल अपक्वाहार १०७ अभिषेका अपध्यानाचरण अभिहत अपराजितसूरि ७३ अत्यान अपरिगृहीता-गमन ९९ अभावकाश अपरिग्रह १३, २१ अमृपावाद अपरिग्रहवाद अमैथुन अपरिग्रह्मत १४१ बयोगि-केवली परिणत १७४ अरहा सपवाद २१० अपश्चिम-मारणान्तिक अरिष्टनेमि गल्लेगना १२० नलावू ७२ २०७ १११ १५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवग्रह अवग्रहपट्टक अवग्रहप्रतिमा अवग्रहानतक अवस्था अवस्थित करण अविज्ञप्ति अविरत - सम्यग्दृष्टि अवेद्यसंवेद्य अशन अशरण अशिक्षित अशुभत्व अश्विनी अष्टमभक्त अष्टाग असतोजनपोषणताकर्म असमाधिस्थान अस्तेय अस्तेयव्रत अस्थि अस्नान अस्र अस्वाध्याय अहिंसा अहिंसावाद ६३, १८३ अहिंसाव्रत १६२ अहोरात्रिकी ५६ १६२ ३८ आगारी ११५ आखेट १३ आचार ३३ आचारचूडा ४४ आचारचूलिका १६५ आचारदशा ७२ आचार-प्रकल्प ६५ आचार - प्रणिधि ७२ आचाराग ७६ आचारान १८८, १८६ आचार्य १३ १०६ १३,२२,१५ आगमनगृह ६२ आच्छेद्य आजीव १३९ आतक ७८ अचेलक्य ७८ ६८ ८,१३,२१ १५ आत्मघात ७१,१४२ - आत्मवाद अनुक्रमणिका : २२३ ८६ १६१ आत्मविकास आत्महत्या आत्मा आधाकर्म आ १८२ ८३ ७६ ५ ५२ ५२ ६२ પૂર્ ५०. ५१,७०,७३, ५२ ६५,७१,२००, २०१; २०२,२०३,२०४,२१५ ७३ १७३ १७३ १६७ १२१ २० १२ १२२ २० १७२ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ : जैन आचार १३, ४२ ho आनन्द ५८,१२४ आसक्ति २३, १४१ आनप्राणपर्याप्ति ७२ आसन आनयनप्रयोग ११६ आसिका ७१ मानुपूर्वी १६ मानव १७, १६, ७२ आपणगृह आहार ६३,६८,७३,१६५,१६६ आपृच्छना १८४ आहारपर्याप्ति ७२ आपृच्छा ७१ आहारशुद्धि ७८, १७४ आभरण १०७ आयतिस्थान ६३ इद्रमहोत्सव ६८ आयाम १८९ इद्रियपर्याप्ति ७२ आयु १८ इच्छाकार ७१, १८४ आरम्भत्याग ७५ इच्छानियन्त्रण १०१ आरम्भत्यागप्रतिमा १२७ इच्छा-परिमाण १०१ आराधक १९० इच्छा-मर्यादा १०१ मार्तध्यान १११ इच्छा-स्वातन्त्र्य आयक्षेत्र इत्वरिक-परिगृहीता-गमन आर्या ७१ इष्टवियोग आयिका-संगति ७३ इहलोकाशसाप्रयोग मालोचना ६९, ७०, ७३, २१०, २११, २१४ ईया यावंती ५२, ५४ ईर्यापथ आवश्यक ६१, ७०, १४२, १८६ ईश्वर नावश्चित १८४ जागातना ६२ उच्चारमन्त्रवण ७३, ७६, ८४ उच्चारभमि এখন १० उज्क्षनगुद्धि १६ ई ह Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरगुण उत्तरमीमासा उत्पादन उत्पादनदोप उत्सर्ग उत्स्वेदिम उदय उदुम्बर उद्गम उद्गम-दोप उद्दिष्टत्याग उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा उद्भिन्न उद्योग उन्मिश्र उपकरण उपधान उपधानश्रुत उपनिषद् उपभोग उपयोग उपवास ७१ ७८, १७२, १७५ २१० उपाध्याय १८९ उपाध्याया १७ उपानत् ७६ ७१ ७८, १७२, १७५ ७५ उपभोगपरिभोग- परिमाण उपभोगपरिभोगातिरिक्त ८५ ८ उपशान्त-कषाय उपशान्त मोह १२८ १७३ १०८ १७४ ६८, १६४ ५६, ६९, १५१ ५२, ५५, १५१ १०६ १०६ ११२ २० उपसपत् उपसंपदा उपसर्ग उपाधि २१२ ३६ - ३६ उपाश्रय उपासक अनुक्रमणिका : २२५ ७१ १८४ १६७ ७३ ७१ २०७ १०७, २००, २०२, २०३, २०४ ६३, ६४, १७८ उपासकदशाग उपासक - प्रतिमा उभय ऋषभ ऊर्ध्वदिशा- परिमाण अतिक्रमण एकचारी एकत्व एकभक्त एकल-विहारी एकवस्त्रधारी ३३, ५८, ८३ ५८, ८५ ६२, १२४ ७०, २१०, २११ एकात विहारी एकाशन ऊ ऋ ए १०५ ६३ १६६ ७२ ७१, १४२, १७५ ६५, १६६ १६० १९९ २१३ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ; जैन आचार एपण ७१ ११,१५ D ऐरावती ऐलक १३,१४ १३० कर्म कर्मकाडी कर्मपथ कर्मबंध कर्ममुक्ति कर्मवाद कर्मादान ओघदृष्टि ओदन ११,१६ १४ १०८ १०७ कल्प ६३ ६४,१५८ १७२ औदारिक औद्देशिक औणिक औपध औष्ट्रिक कल्पसूत्र कल्पस्थिति कषाय कषायविजय . काजी व ८ ६ mr १८६ al काता . x V कंद कंदर्प कवल फुड FREE कुटकोलिक कच ७५ कातादष्टि ११२ कामदेव १६५ कामभोग-तीव्राभिलाषा ९९ ७८ कामभोगाशंसाप्रयोग कायदुष्प्रणिधान ७८ कायोत्सर्ग ६१,७२,१४३,१४७, १८६,२११ १६२ ७१ कार्मण कालातिक्रमण ७४ १६४ कुप्य २१ कुप्य-परिमाण-अनिक्रमण १०४ कारण १६ ११९ ऋचित् करणानुयोग फरपाय काष्ठ १७६ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका : २२७ ६४ ६५ कोगिका २००,२०१ कुलाचार्य २०१ गंगा कुशील ६९ गच्छ ६५, ६६, २०० कूटतोल-कूटमान ६६ गच्छाचार्य २०० कूट-लेखकरण ९४ गच्छाधिपति केश १९० गजसुकुमार ७४ केगवाणिज्य १०९ गण २००, २०१ ६४ गणघर २०१ कोत्कुच्य ११२ गणाचार्य २०१ क्रीत १७२ गणावच्छेदक २००, २०२, क्रोध १७३ २०४, २०५ क्लोव गणावच्छेदिनी २०७ क्षत्रिय गणिनी २०७ सपण गणिसंपदा क्षमायाचना गणो २०२, २०५ क्षितिशयन ७१,१४२ गवेपणा १७२, १७३ क्षीण कपाय ३७ गोत ६८ घोण-मोह ३७ गुणगत ७५, ७७, ८५ क्षुल्लग १३० १०४, ११३ शुल्लिकाचार-गाया गुणस्थान २६, ३०, ३८,७२ १०३ गुणो संगमानु-परिमाण-अतिक्रमण १०४ गुदा विद्धि १०५ गुप्ति ११. गुरुचातुर्मालिक ६६, २१२.२१४ १० ५६ ६,२६२,१३ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ : जैन आचार । गृद्धि १०६ ६३ २१ ७१ १७३ २३ परणानुयोग गृहस्थ गृहस्थ-धर्म ८५ चर्या ८३, ८४ गृहस्थाश्रम १० चातुर्मान गृहो चार गोच्छक १६२ पारित १६, २६ गोत्र १८ पारिश-मोहनीय ग्रन्थि १४१ चारियाचार ग्रंथिभेद ३३, ४२ चितन ३१, १८६ ग्रहणेषणा १७२, १७४ चिकित्सा ग्रासपणा १७४ चित्तसमाधिस्थान ग्रीष्म २००, २०१ चित्रकर्म चिलातपुत्र घटीमात्रक चिलिमिलिका १६४ घडा १६४ चुलनीपिता घाती चुल्लशतक १७३ चोरी चदन ७१ चतुर्दशपूर्वधर २१० छदना चतुर्थभक्त १८४ १८८ १७४ चतुर्मासिकी १६१ छविच्छेद ८६ चतुर्वस्त्रधारी १६० छेद ६१,७०,२१०,२११ चतुर्विशतिस्तव ६१, १४३, १४४ छेदसूत्र चतुर्विशस्तव ७२ छेदोपस्थापनोयसंयतकल्पस्थिति ६४, चतुष्पद १५८ १८ घृत १०७ चूर्ण १०७ छदन छदित Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका : २२९ ४२ ७१ ६६ ७६ तर्क तदुलोदक १८६ जल १०७ तत्प्रतिरूपक-त्र्यवहार जागिक १६२ तथाकार जिज्ञासा ७१,१८४ तथ्येतिकार १८४ जिनकल्पस्थिति ६४,१५८ तप ७०,१६८,२१०,२११ जिनकल्पिक १६६,१६६,२०८ । तपआचार जिनदासगणि तपशुद्धि जिनपूजा तपस्या जिनप्रतिमानिर्माण जिनप्रतिमास्थापन तस्करप्रयोग ७६ तारा বিনমঃমসি ६६ जिनभवन निर्माण तारादृष्टि जिनाभिषेक ७६ तालप्रलब जीतकल्प ६६,७३,१३१,२१० तिरीटपट्टक १६२ तियंगदिगा-परिमाण-अतिक्रमण१०५ जीतन्यवहार तिलोदक । १८६ जीविताशमाप्रयोग तुच्छोपपिनक्षण १०७ तुपोदक १६ जैन ८,१५,२८ तृतीय गुप्त-अहोगमिकी १६१ १४ १०७ सातपुत्र तंजम १६ ११.२० निमामियो जानादि निरी ७६ १२३ मन अनाचार तेल मान माना १८ पाया Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० · जैन आधार 6 G Wn n 0 0 n n 0 6 C ७६ दडगास्य ६६ दुष्पा पार १०७ दंतवाणिज्य १०६ दुती १७३ दातीर १६३ दृष्टि २१,४० दर्शन देवगुप्त दर्गन-प्रतिमा १२६ देगविग्न दगंन-मोहनीय ३१ देगविरत-मम्यग्दृष्टि दर्गनाचार देगविरति दर्गनावरणीय देशमंयती दगविधकल्प देशनयमो दशवकालिक देशावकाशिक दगायतस्कंघ देहममत्वत्याग दाता दोष १७२, २१० दान दानफल द्रव्यकर्म दायक १७४ द्रव्यानुयोग दावाग्निदानकर्म १०६ द्रुमपुष्पित दिगवर ८५, १३०, १४२, १८६ द्वादशानुप्रेक्षा दिनचर्या १८३ द्वारपाली दिवाभोजन १७५ हिचतुष्पद-परिमाणदिशापरिमाण १०५ अतिक्रमण १०४ दीक्षा द्वितीय सप्त-अहोरात्रिकी १९१ दोप दीप्रा द्विमासिको दीप्रादृष्टि ४३ द्विवस्त्रधारी दुर्जनसगति ध ६४ धधा १०८ यूत ७६ ७६ __ . १५ २०७ १०६ ०७ द्विपद १०३ दुष्ट Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका : २३१ घत १८ धर्मकथा १०३ नमस्कार ७३ धनधान्यपरिमाण नाम अतिक्रमण १०४ नाव १७७ धर्म ५, ६, १६, ७२, ७६, ७८ निक्षिप्त १७४ १८६ नित्यभोजी १८८,१८६ धचिता १६६ निदान १११ धर्मघोष ७४ निद्रा १८५ धर्मध्यान १११ निमित्त १७३ वर्मप्रज्ञप्ति १२४ नियतिवाद धर्मशास्त्र ६ नियम १३,४१ धर्मानुसारी ३६ नियमप्रतिमा १२७ धातु १६४ निरोध ७०,१४२ वात्री १७३ निर्गुण ब्रह्मस्थिति धान्य १०३ निग्रंथ १४१ धारणा १३,४५ निर्गलिंग ५२,५५ निग्रंथो-सघ २०६ धूप १०७ निर्जरा १८,१६,७२ धूप-दोप निलांछनकर्म धूम ७१,७८,१७४ १५, ३८ ध्यान ११,१३,४६,७३,१११, निर्विशमानकल्पस्थिति ६४,१५८ १४८,१८५ व्यानशुद्धि ७२ निविष्टकायिककल्पस्थिति ६४,१५८ निवृत्ति-गुणस्थान निशीथ ५६,६६,२१२ नदिनीपिता ५६ निपीधिका नख ७८ निषेधिका ७१ mr 9 धूत १०७ १०६ निर्वाण त Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०३२ जैन आधार निपट १ . निष्ठा ६६ नेमिचंद्र नैतिकता नपेधिको नैष्ठिक नौकाविहार न्याय-वैशेपिक ७५ १०२ 16 U ६५ परलो १४ परलोकाताश्योग १२३ पविवारफरण ६९ परव्यपदा 1१६ ५ परा ४० १८४ परावृष्टि ७६,८४ परिग्रह २२, १०२, १४० १७७ परिग्रहत्याग १३ परिग्रहत्यागप्रतिमा १२८ परिग्रहपरिमिति परिग्रहविरमण ७६ परिचारक ७० परिणमनशील परित्यागशुद्धि ७२ १२०,१६५ परिभोग १०६ परिवर्तना १८६ ६३ परिवर्तित परिहारकल्प १७६,१७८ परीषहजय १६, ७८ ६५ परोपकार पर्याप्ति ५७ पर्युपणा ६२, १६० ७६ पर्युपणाकल्प ६२, १८४, १८७ पल ७८ १६ पाक्षिक ७६, ८४ १६ पाणिपात्र १७६, १८६ १०७ १७२ पचमासिकी पंचमी पचाचार पटक पडितमरण पक्वान्न पक्ष पट्टा पदयात्रा पदवी पदवीधारी परक्रिया परदारसेवन परमात्मपद परमात्मा परमेश्वर १६२ ६४ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातंजल योगसूत्र पात्र पात्रधारी पात्रैषणा पादप्रोछन पान पानी पापकर्मोपदेश पापस्थानक ६६ पाराचिक ६४, ७०२१०, २१२ पार्श्व ६३ पाली पिढदोष पिडविशुद्धि पिंडशुद्धि पिंडपणा पिच्छिका पिहित पीठ पुद्गलप्रक्षेप पुनरावर्तन पुनर्जन्म पुलाकभक्त पुस्तक पूजा ३६ १६२, १६४, १६५ १८६ ५६ १६५ १६५ १०७ पोतक १११ प्तिकर्म २०७ ७८, १७४ ७८, १७४ पूय पूर्वपश्चात्सस्तव पूर्वमोमासा पृच्छना पृष्ट पेय पौद्गलिक पौराणिक पोषव पौषधप्रतिमा पौषधोपवास पौषधोपवास अनुक्रमणिका : २३३ ७० ५६, ६० ७२, ७३ १७४ १६५ ११६ प्रतिग्रह १८६ प्रतिपत्ति १५ प्रतिपृच्छना सम्यगननुपालनता प्रकृति- बघ प्रतिक्रमण ६४ १६६ ७६ १७२ प्रतिश्रयपाली ७८ १७३ ८ १८६ १४ १०७ १६२ २१ १५ ७५ १२७ ११६ ११७ १७, १८ ६१, ७०, ७२, १३१, १४३, १४६, १८६, २१०, २११ १६२ ४६ १८८ प्रतिपृच्छा ७१ प्रतिमा ७५,८३,८४,१२४, १६० प्रतिलेखन ७२,७३,१५७, १८६ २०७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : न जाणार प्रतिहा पत्यान्पान ६८०२, १८३, प्रत्यार प्रथम नप्न अहोरात्रको प्रथमानुयोग प्रवेश-वध प्रधानाचार्य प्रमत्त प्रमत्त-नयत प्रमाण प्रमादाचरण प्रभा प्रभादृष्टि प्रयोग प्रवर्तक प्रवर्तिनी प्रवृत्ति प्रव्रज्या प्रभातवाहिता प्राणप्रत्यय प्राणातिपात विरमण प्राणायाम प्राणिदया प्रातिहारिक प्रादुष्करण प्राभृतिका 3c1 ८८ १३, ८४ १९१ ७४ ? 3 २०१ S/ ३४ ७१, ७८ १११ ८० ४६ १४ २०२, २०४, २०५ २०१, २०७ ४७ प्रद प्रायश्चित प्रेमपत्र प्रेपयोग १३, परित्यागपतिमा फट फरक फूल वघ बा वलादृष्टि वादर-नम्पराय बालदीक्षा बालमरण ६४, ६५,२०६ बीज 1 ६६,६९, 77 • २१०, $2 ६५ १२६ ४७ १ ६ १३७ वोघ ४३ वोधि १६८ वौद्ध १८३ १७२ १७२ ब्रह्मचर्यप्रतिमा वृहत्कल्प वृहत्प्रत्याख्यान ब्रह्मचर्य फ व १ やれ ७८, १०७ ૨૬૫ 3ܘܐ १७,१६,८३ ८० ४२ ३६ ३६ १२२,१९५ ७८ ६३,७३ ७० २० ७२ ८, ३८ १३, ५२, ७५, १३६, १६७ १२७ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्यव्रत ब्रह्मचर्याश्रम ब्रह्मापाय ब्राह्मण भक्ति भगवती आराधना भद्र भद्रप्रतिमा भद्रबाहु भागिक भाउ भाटककर्म भाव - कर्म भावना भापाजात भाषापर्याप्ति भिक्षा भिक्षाचर्या भिक्षाशुद्धि भिक्षु भिक्षुणी भिक्षुप्रतिमा भूतमहोत्सव भ भूमिका भेपज १४० १० ६४ १०, ५६ ११ ७३ ६९ १९५ ६२,७४, २१० ७२ १८६ १८५ ७२ ५६, १३५, १६० १६० ६२, ६६, १९० ६८ भोक्ता ३८ १६५ मजन मत्र मंत्र-तत्र मज्झिमनिकाय १६२ ममत्व १६४ मयूरपिच्छ १०९ मरण १५ मरणाशसा प्रयोग ३१, ५७, ७३, १३७ ५६ मद्य मधु मन पर्याप्ति मनोदुष्प्रणिधान अनुक्रमणिका : २३५ २१ मल महत्तमा महत्तरा महाचारकथा महानिशीथ महापरिज्ञा महाभद्र - प्रतिमा महायान महावीर महावीर चरित म १०७ १७३ ६८, ६१ ३९ ७५, ७६ ७५ ७२ ११५ १४१ १५८ ७३, १९५ १२३ ७८ २०७ २०७ ६० ५६,६३,१५१, ५२, ५५ १६५ ८ १८७ ६२ महाव्रत ३४,७०,७३,१३५,१४२ महाशतक ५९ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ : जैन भाचार ११६ १७३ १२० मही माग मात्मयं मानिका मधुरक मान माया मार्गणास्थान मालापहृत मासकल्प मामगुरु मासलघु मामिकी मिट्टी मित्रा मित्रादृष्टि मिथ्याकार मिथ्यात्व मिथ्यादृष्टि मिश्रजात मिश्रदृष्टि मीमामा मुजचिप्पक मुक्ति मुखवास मुष्टिप्रहार ६४ मा २२ ७५,७६ मूल ८०,७८,२१०,२१२ मनकाम १.४ १६४ गूलगुण ७०,८५,१४१ १०७ मलाचार १७३ मूलाराधना मृतविमलनिक मृतमंम्भार मृत्यु मपा-उपदेश ६६,२१२ मृपावाद ६६,२१३ मृपावादी १६१ मेघावी मैथुन ६४,६७,१३९ ४० मैथुनेच्छा ७५,२१३ मैथुनविरमण ७१,१८४ मोक्ष १५,१८, ६ ३६ मोह ३१ मोहनीय १७२ मोनोय-स्थान मोहशक्ति ७,१३,४६ मौखर्य ११२ १६३ प्रक्षित १५,३८ १०७ यत्रपीडनकर्म ६४ यक्षमहोत्सव m Mur m ३२ १७४ य ० . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ अनुक्रमणिका : २३७ यक्षसेन ६६ राज्यादिविरुद्ध-कर्म यथासविभाग ११७ रात्निक २०४ यम १३, ४१ रात्रिकी यमुना ६४ रात्रिभक्त यवमध्य-प्रतिमा ६६, १६४ रात्रिभुक्तित्याग ७५, १३० यवोदक १८६ रात्रिभोजन यशोवर्धन ६९ रात्रि-भोजन-विरमण १४१ युवाचार्य ६५ रूप योग ८,११,१३,१६, ३६, १७३ रूपानुपात योगदर्शन १३ रोगचिंता १११ योगदृष्टि ३६, ४० रोहिणी योगदृष्टिसमुच्चय ४० रौद्रध्यान ५७ ७६ १११ योगवासिष्ठ ६६, २१२ ६६, २१२ ६६, २१२, २१३ १०६ १५५ ६७ योगविद्या लघुचातुर्मासिक योनि लघुमास लघुमासिक रक्षा लाक्षावाणिज्य रजोहर ६३, १६२, लाढ रतिवाक्य लिंग रत्नकरडक-श्रावकाचार ७४ लिंगकल्प रत्नाधिक २०४, २०५ लिंगशुद्धि लिप्त रसवाणिज्य १०६ रसविकृति १८८ लेश्या रहस्य-अभ्याख्यान ६४ लोक राज्यव्यवस्था ६५ लोकविजय ७२, १५७ ७२ रविगुप्त १७४ १०७ लेप ५२, ५३ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ : जैन आचार ५६ लोन ६०, ७२ ११५ १.५ वचन १०७ २४ १८२ १८८, १८६ १५५ लोकगार ५२, ५४ यमपणा ७०, ७२, ७३, वारपाधि १४२, १५७, १६० वारप्रणिधान लोभ १७३ वाचना वाद्ययन वंदन वानप्रस्थाश्रम ६१, १४५ वाहन वदना ७२, १४३ विय लादेग वच्चकचिप्पक विहातगृह वजभूमि विभक्त वनमध्य-प्रतिमा ६६, १६४ विगय वट्टकेराचार्य विचार वध विज्ञप्ति वनकर्म १०६ विदेह-मुक्ति वनीपक १७३ विद्या विनय वर्पा १८६ विनयनमाधि वर्षाऋतु २००, २०१ विमुक्ति वर्षावास १७६, १८७ विमोक्ष वसति ७३, १७८ विराधक वसतिशुद्धि ७२ विविक्तचर्या वसुनदि-श्रावकाचार विवेक वंसुनदी ७०, ७५ विशाखगणि १०३ विपवाणिज्य वस्त्र ६३, ६४, १०७, १५३, विसाहगणि १६२, १६३, १६५ विहार ७० ८६ १७३ वर्ण ५२, ५५ १९० ७०, २१०, २११ बस्तु १०६ ७३, १७६ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका : २३९ विहारशुद्धि वीर्य वीर्याचार वृक्षमूल वृद्धवादी वेदनीय वेदात वेद्यसवेद्य वेश्या वैदिक वैयावृत्य वैराज्य वैश्य गाक ७२ शवलदोप ६२ २० शब्द शब्दानुपात १८२ शय्यंभव शय्या १६५, १७८ १८ राय्यातर १८३ ८, १२, १३ शय्यासन १०७ शय्या-सस्तारक ७६ शय्यैषणा ८, ३८ शरीरपर्याप्ति ७३, १६६, २०८ शल्य ६३ शस्त्रपरिज्ञा ५२, ५३ १०७ १०८ शाटक १५३ ६४, ६६, ७३, ७४ शिश्नाव्रत ७५, ७७, ८५, ११३ ७६, ७७ शिक्षित १०८ शिवकोटि ७०, २१०, २११ शिवार्य ७२ शीतोष्णीय ५२, ५३ ५६, ७५, ७६,८३ शोल ७७, १३६ १२६ शीलगुण ७० शुक्लध्यान १११ शुद्धिविकट १८६ ७८, १७२, १७४ शुभ्रभूमि १७५ शुश्रूपा १०९ शूद्र ७३ व्यवसाय व्यवहार व्यसन व्यापार व्युत्सर्ग व्युत्सृष्टशरीर व्रत व्रतप्रतिमा व्रतशुद्धि ७३ शकित शकितादिदोष शकटकम Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० : जैन श्रद्धा श्रमण श्रमण-धर्म आचार श्रमणभगवान् श्रमण-मंघ श्रमणाचार श्रमणी श्रमणोपासक ६, ३१ _३४,७१,१३५,१५१ श्रवण श्राद्ध श्रामण्यपूर्विक श्रावक श्रावकवर्म श्रावकाचार श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति श्वेताम्बर पट्- जीवनिकाय पद्मामिकी पडावश्यक पष्टभवन संक्षेपप्रत्ययान मंदि संघ संपाचार्य ३३,५८,७७,८३ ७५,८३ ७५,८३ प १३५ ५६ १६६ ७६,७७ ७१ ८३ ४३ ८३ ५९ स ७२ ८५, १३०, १४३ ६० १६१ ७०,७८,१४२ १८८, १८६ ७० १६६ २००,२०१ २०१ संघाटी संथारा संन्यासाश्रम सबंधी संभोगी सयम सयुक्ताधिकरण संयोजन सयोजना संलेखना सवर सविभाग संसार संस्तारक संस्वेदिम मंहृत सकपट सकलादेश मचित्त सचित्तत्याग मचित्तत्यागप्रतिमा मचित्तनिक्षेप नचित्तपिवान १६० ११९,१९६ १० १७० मचित्त- प्रतिवद्धाहार मचित्ताहार ६५ १६६ ११२ ७१,७८ ३९,१७२,१७४ १६८,१६६ ७२ १२०, १६५,१६६ १८९ १७४ ६५ २४ १७० ७५ १६,७२ १७१ १२७ ११६ ११६ १०७ १०७ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ सभिक्षु अनुक्रमणिका : २४१ सचेलक १५६,१६६ सरयू सचेलकत्व १५७ सरोह्रदतडागशोषणताकर्म १०६ सत्य १३,९२ सर्पदंश २०८ सत्यव्रत सर्व अदत्तादान-विरमण १३५ सदेह-मुक्ति सर्वतोमहाभद्र-प्रतिमा १६५ मद्दालपुत्र सर्वपरिग्रह-विरमण १३५,१४० सनिमंत्रणा ७१ सर्वप्राणातिपात-विरमण १३५,१३६ सप्तपानैषणा-प्रतिमा १९५ सर्वमृषावाद-विरमण १३५ सप्तपिंडैपणा-प्रतिमा १६५ सर्वमैथुन-विरमण १३५,१३६ सप्तमासिकी १६१ सर्वविरत सकदागामी ३६ सर्वविरति ३४ ६० सल्लेखना ७३,७५,७७,११६ समतभद्र ७४ सहसा-अभ्याख्यान समयसार ७० साख्य समवसरण ६४ सास्य-योग समाचारी १८३ सागार समाधि १३,४७,७३ सागारधर्म ७६ समाविमरण ७५,१२०,१९५ सागार-वर्मामृत ७६,८४ ममिति १९,७०,१४२ सागारिकनिश्रा सम्यक्चारित्र ७४,७८ ७६,८४ सम्यक्तप ७८ साधन ८३,८४ सम्यक्त्व ३६,५२,५४,७७ साधु सम्यक्-मिथ्यादृष्टि ३२ साधुवर्ग २०० सम्यग्जान ७४,७७ साधुमस्था सम्यग्दर्शन ७४,७७ साध्वी सयोगि केवली ३७ साध्वीवर्ग २०० ६४ ww साधक ६५,७१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ : जैन साध्वीसस्या सानक सापेक्षवाद सामाचार सामाचारी सामायिक आचार १६२,१६३ २३ ७० ६३, १८३, १८४ ६१,७२,७५,७७, ११३,१४३ १२६ सामायिक प्रतिमा सामायिकसंयत कल्प- स्थिति ६४, १५८ सालिहीपिता ५९ ३१ ३१ ६६ १५ २० १९५ सामादन सम्यग्दृष्टि सास्वादन- सम्यग्दृष्टि मिट्टमेन सिद्धि सुन्व सुभद्र- प्रतिमा सुरादेव सुवर्ण सुमट सूक्ष्मवीय सूक्ष्म-नपदराव सूत्र नृत् दिना सेवा सोनापन ७८ १०३ ६६ ४५. ३६ १०७ सौवीर स्कदमहोत्सव स्तेनापहृत स्तन्य स्थविर २०८ (2) स्थविरकल्पस्थिति स्थविरकल्पिक स्थविरा स्थविरावली स्थूल अदत्तादान- विरमण ५८ स्थूल प्राणातिपात विरमण स्थान स्थापना स्थिति-वध स्थितिभोजन स्थिरा स्थिरादृष्टि १६०,२०२,२०४,२०५ स्मृति स्मृत्य करण स्मृत्यन्तर्धा स्वात् ६४ स्याहार स्वदार स्वदार-मतीप स्थूल मृपावाद - विरमण स्फोटककर्म १८६ ६८ ९६ ६४ ६४,१५८ १६६,२०८ २०७ ६३ ५६ १७२ १७ ७१,१४२, १७५ ४० ४४ ६५ ૮૬ ६२ १०९ ८, १३ ११५ १०५ २३ २३ २४ ६७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतुव्रामणिका : 243 97 111 स्वदेह-परिमाण स्वपति-मत्रभेद स्वपति-सतोप स्वरूपमिद्धि स्वादिम स्वाध्याय स्वाध्यायभूमि 21 हस्ताम 64,66,67 4 हस्तरेखा 68 हिमाप्रदान 38 हिमा-विरति 86 165 हिरण्य 103 68,185,186 हिरण्यसुवर्ण-परिमाण-अतिक्रमण 104 हीनयान हेतुवाद 40,69 हेमत 200,201 hna हरिभद्र