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________________ १५६ : जैन आचार कि लाठी लेकर चलने वाले श्रमणो को भी कुत्ते काट खाते थे । महावीर ने तो लाठी का भी त्याग कर रखा था, अतः कुत्तों ने उन्हे अत्यधिक परेशान किया । कई बार उन्हे बहुत दूर तक गाँव मिलता ही नही फिर भी वे विहार करते हुए व्याकुल न होते । कई बार गाँव के लोग पहले ही उनके पास आकर उन्हें वहाँ से भाग जाने के लिए कहते । कई बार ऐसा भी होता कि गाँव के लोग उन्हें 'मारो-मारो' की आवाज करके लाठियो, भालों, पत्थरो, मुक्कों से मारते, उनके शरीर पर घाव कर देते, उन पर धूलि फेकते, उन्हे धक्के लगाकर गिरा देते । परीषहों का हृदय से स्वागत करने वाले महान् सयमी श्रमण भगवान् महावीर अपनी काया का मोह छोड़कर इन सब उपद्रवो को वीरतापूर्वक सहन करते एव संयममार्ग मे अधिक दृढतापूर्वक अग्रसर होते । यही महावीर की शूरता थी । वे केवल आने वाले उपसर्गों का स्वागत ही नही करते अपितु कर्मनिर्जरा के निमित्त नये-नये उपसर्गों को आमन्त्रित भी करते । यही उनकी महावीरता थी । 3 I रहते । रोगान्तक हो या न हो, महावीर ने चिकित्सा की कामना कभी नही की । वे हमेशा अवमौदर्य अर्थात् अल्पाहार करते । स्नान, सशुद्धि, अभ्यंगन, प्रक्षालन आदि से सदा दूर इन्द्रियो के विषयो के प्रति उनकी तनिक भी आसक्ति न थी । वे ठंड के दिनो मे छाया मे व गरमी के दिनो मे धूप मे रहकर ध्यान धरते । ओदन, कुल्माप आदि रूक्ष पदार्थों का आहार 1 करते । कई बार आधा महीना अथवा पूरा महीना बिना पानी के ही बिता देते । कभी-कभी दो मास से भी अधिक, यहाँ तक
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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