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श्रमण-धर्म : १५५
स्थानों मे ठहरते एवं अप्रमत्त होकर रात-दिन ध्यान करते । निद्रा
की तनिक भी कामना नही करते । अनिच्छा से थोड़ी नीद आ __ जाने पर खडे होकर आत्मा को जागरूक करते । पुन. निद्रा आने
पर बाहर निकल कर मुहूर्त-पर्यन्त चक्रमण कर लेते। उन्हें वसति-स्थानो मे ससपिंप्राणियो, पक्षियो, दुराचारियो, ग्रामरक्षको,शस्त्रधारियों द्वारा अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते । इहलोक व परलोक-संबंधी नाना प्रकार के भय तथा अनुकूल व प्रतिकूल इन्द्रिय-विषय उपस्थित होनेपर वे रति व अरति का अभिभव करके मध्यस्थ होकर सब कुछ सह लेते। ध्यानस्थ महावीर को कोई आकर कुछ पूछता और उत्तर न मिलने पर क्रुद्ध हो जाता। कभी-कभी भगवान् 'मैं भिक्षुक हूँ' एसा उत्तर भी दे देते, किन्तु प्रायः मौन होकर ध्यानमग्न ही रहते । शिशिर ऋतु मे जव अन्य लोग शीतल वायु से कापते, यहाँ तक कि अनगार अर्थात् साधु भी निर्वात स्थान की खोज मे रहते, संघाटी से अपना शरीर ढकते, कोई-कोई तो इंधन भी जला लेते तब भी भगवान् महावीर खुले स्थान मे ही रहकर शीत सहन करते।
महावीर को सर्वत्र परीषह सहन करने पड़े। उन्हें विशेष रूप से लाढ देश मे जो कष्ट उठाने पडे वे भयकर थे। उन्होने लाढ देश के वज्रभूमि और शुभ्रभूमि नामक दोनों दुश्चर प्रदेशो मे विचरग किया। यहाँ उन पर अनेक असह्य आपत्तियां आई। यहां के निवासियों ने उन्हे बुरी तरह से मारा-पीटा । यहाँ के कुत्तों ने उन्हें खूब काटा । लोगों ने कुत्तो को भगाने की बजाय 'छू छू' करके महावीर की ओर दौडाया। यहाँ की वज्रभूमि ऐसी थी