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१५४ : जैन आचार
रस नही था । वे असह्य कष्टों को भी शान्ति से सहन करते हुए आगे बढते चलते । उन्होंने दीक्षा लेने के दो वर्ष से भी पहले से ही शीतल (सचित्त) जल का त्याग कर रखा था। उन्होंने यह जान लिया था कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय सचित्त हैं-चेतन हैं, अतः वे इन सब से बचकर विचरण करते। विहार में किसी सचित्त काय की हिंसा न हो, इसका वे पूरा ध्यान रखते । उन्होने स्वयं हिंसा न करने तथा दूसरो से हिंसा न करवाने का व्रत ग्रहण कर रखा था। स्त्रियों को (पुरुषों की अपेक्षा से ) सर्व पापकर्म की जड़ समझ कर उनका उस संयमी ने सर्वथा परित्याग कर रखा था । वे आधाकर्म अर्थात् अपने निमित्त से बने हुए आहारादि का सेवन न करते । जिसमे तनिक भी पाप की संभावना होती वैसा कोई भी कार्य न करते हुए निर्दोष आहारादि का सेवन करते। वे न परवस्त्र का ( पोंछने आदि मे) उपयोग करते, न परपात्र ( भोजनादि के लिए) काम मे लाते। मानापमान का त्याग कर अदीन-मनस्क होकर भिक्षा के लिए जाते एवं अशन और 'पान की मात्रा का पूरा ध्यान रखते हुए रसों मे गृद्ध न होकर जो कुछ मिल जाता, खा लेते । वे न आँखो का प्रमार्जन करते; न शरीर को खुजलाते। रास्ते चलते इधर-उधर बहुत कम देखते। पूछने पर अल्प उत्तर देते व यतनापूर्वक चलते ।
श्रमण भगवान् महावीर वितरण करते हुए गृह, पण्यशाला (दुकान), पालितस्थान ( कारखाना), पलालपुंज, आगन्तार ( अतिथिगृह), आरामागार, श्मशान, शून्यागार, वृक्षमूल आदि