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________________ श्रमण-धर्म : १५७ 1 कि छः मास तक बिना पानी ही विचरण करते रहते । कभी वासी अन्न मिल जाता तो खा लेते और वह भी दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पाँच दिन मे एक बार । वे अपने आहार के लिए न स्वयं पाप करते, न दूसरो से करवाते और न करने वाले का अनुमोदन ही करते । दूसरो के निमित्त से बने हुए सुविशुद्ध आहार का अनासक्त भाव से सेवन करते । गोचरी अर्थात् आहार की गवेषणा के लिए जाते-आते मार्ग मे किन्ही पशु-पक्षियो को किसी प्रकार कष्ट न हो, इसका पूरा ध्यान रखते । अपने आहार के कारण किसी ब्राह्मण, श्रमण, भिखारी, अतिथि आदि की वृत्ति का उच्छेद न हो, किसी की प्रीति न हो, किसी को अन्तराय न पहुँचे -- इसकी पूरी सावधानी रखते । रूखा-सूखा जो कुछ मिल जाता, अनासक्तिपूर्वक खा लेते। कुछ प्राप्त न होने की अवस्था मे भी मन मे तनिक भी क्रोध अथवा निराशा न लाते । वे निष्कषाय, अनासक्त एव मूर्च्छारहित थे तथा छद्मस्थ अर्थात् अपूर्ण ज्ञानी होते हुए भी प्रमाद-मुक्त थे । वे स्वत. तत्त्व का अभिगम कर आत्मशुद्धिपूर्वक अभिनिवृत्त हुए एवं यावज्जीवन मोह, माया व ममता का त्याग कर समभाव के आराधक बने । अचेलकत्व व सचेलकत्व : वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार के समयसाराधिकार मे मुनि के लिए चार प्रकार का लिंगकल्प ( आचारचिह्न ) बताया गया • है १. अचेलकत्व, २. लोच, ३ व्युत्सृष्टशरीरता, ४ प्रति लेखन । अचेलकत्व का अर्थ है वस्त्रादि सर्व परिग्रह का परिहार ।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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