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१५८ : जैन आचार
लोच का अर्थ है अपने अथवा दूसरे के हाथों से मस्तकादि के केशों का अपनयन । व्युत्सृष्टशरीरता का अर्थ है स्नान-अभ्यंगनअंजन-परिमर्दन आदि सर्व सस्कारों का अभाव । प्रतिलेखन का अर्थ है मयूरपिच्छ का ग्रहण । अचेलकत्व निःसंगता अर्थात् अनासक्ति का चिह्न है। लोच सद्भावना का सकेत है। व्युत्सृष्टशरीरता अपरागता का प्रतीक है। प्रतिलेखन दयाप्रतिपालन का चिह्न है । यह चार प्रकार का लिगकल्प चारित्रोपकारक होने के कारण आचरणीय है।
बृहत्कल्प के छठे उद्देश के अन्त मे छः प्रकार की कल्पस्थिति (आचारमर्यादा) बतलाई गई है : १. सामायिकसंयतकल्पस्थिति, २. छेदोपस्थापनीयसंयत-कल्पस्थिति, ३. निर्विशमान-कल्पस्थिति, ४. निविष्टकायिक-कल्पस्थिति, ५. जिन-कल्पस्थिति, ६. स्थविर-कल्पस्थिति । सर्वसावद्ययोगविरतिरूप सामायिक स्वीकार करने वाला सामायिकसंयत कहलाता है। पूर्व पर्याय अर्थात पहले की साधु-अवस्था का छेद अर्थात् नाश ( अथवा कमी) करके सयम की पुन. स्थापना करने योग्य श्रमण छेदोपस्थापनीयसयत कहलाता है । इस कल्पस्थिति मे मुनिजीवन का अध्याय पुन प्रारभ होता है (अथवा पुन. आगे बढता है)। परिहारविशुद्धि-कल्प (तपविशेष ) का सेवन करने वाला श्रमण निर्विशमान कहा जाता है। जिसने परिहारविशुद्धिक तप का सेवन कर लिया हो उसे निविष्टकायिक कहते है। गच्छ से निर्गत अर्थात् श्रमणसंघ का त्याग कर एकाकी सयम की साधना करने वाले साधुविशेष जिन अर्थात् जिनकल्पिक कहलाते