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________________ श्रमण-धर्म : १५९ हैं । गच्छप्रतिबद्ध अर्थात् श्रमणसंघ मे रहकर संयम की आराधना करने वाले आचार्य आदि स्थविर अर्थात् स्थविरकल्पिक कहे जाते हैं। यही कारण है कि जिनकल्पिको व स्थविरकल्पिको की 'आचारमर्यादा मे अन्तर है । जिनकल्पिक अचेलकधर्म का आचरण करते हैं जबकि स्थविरकल्पिक सचेलकधर्म का पालन करते हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के धुत नामक छठे अध्ययन मे स्पष्ट बतलाया गया है कि कुछ अनगार ऐसे भी होते हैं जो सयम ग्रहण करने के बाद एकाग्रचित्त होकर सब प्रकार की आसक्ति का त्याग कर एकत्व-भावना का अवलम्बन लेकर मुण्ड होकर अचेल बन जाते हैं अर्थात् वस्त्र का भी त्याग कर देते हैं तथा आहार मे भी क्रमशः कमी करते हुए सर्व कष्टों को सहन कर अपने कर्मों का क्षय करते है। ऐसे मुनियो को वस्त्र फटने की, नये लाने की, सूई-धागा जुटाने की, वस्त्र सीने की कोई चिन्ता नही रहती । वे अपने को लघु अर्थात् हलका (भारमुक्त) तथा सहज तप का भागी मानते हुए सब प्रकार के कष्टों को समभावपूर्वक सहन करते हैं । विमोक्ष नामक आठवे अध्ययन मे अचेलक मुनि के विषय मे कहा गया है कि यदि उसके मन मे यह विचार आए कि मैं नग्नताजन्य शीतादि कष्टो को तो सहन कर सकता है किन्तु लज्जानिवारण करना मेरे लिए शक्य नही, तो उसे कटिवन्धन धारण कर लेना चाहिए । अचेलक अर्थात् नग्न मुनि को सचेलक अर्थात् वस्त्रधारी मुनि के प्रति हीनभाव नही रखना चाहिए। इसी प्रकार सचेलक मुनि को अचेलक मुनि के प्रति
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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