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१६० : जैन आचार
तुच्छता की भावना नही रखनी चाहिए। अचेलक व सचेलक मुनियो को एक-दूसरे की निन्दा नही करनी चाहिए । निन्दक मुनि को निर्ग्रन्थधर्म का अनधिकारी कहा गया है। वह संयम का सम्यक्तया पालन नही कर सकता-आत्मसाधना की निर्दोष आराधना नही कर सकता। अचेलक व सचेलक मुनियों को अपनी-अपनी आचार-मर्यादा मे रहकर निर्ग्रन्थ-धर्म का पालन करना चाहिए।
वस्त्रमर्यादा:
आचाराग मे एकवस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी एवं त्रिवस्त्रधारी निग्रंथो तथा चतुर्वस्त्रधारी निग्रंथियो का उल्लेख है । जो भिक्षु तीन वस्त्र रखने वाला है उसे चौथे वस्त्र की कामना अथवा याचना नही करनी चाहिए। जो वस्त्र उसे कल्प्य हैं उन्ही की कामना एवं याचना करनी चाहिए, अकल्प्य की नही । कल्प्य वस्त्र जैसे भी मिले, बिना किसी प्रकार का सस्कार किये धारण कर लेने चाहिए। उन्हे धोना अथवा रगना नहीं चाहिए । यही वात दो वस्त्रधारी एव एक वस्त्रधारी भिक्षु के विषय मे भी समझनी चाहिए । तरुण भिक्षु के लिए एक वस्त्र धारण करने का विधान है । भिक्षुणी के लिए चार वस्त्र--संघाटियाँ रखने का विधान किया गया है जिनका नाप इस प्रकार है . एक दो हाथ की, दो तीन-तीन हाथ की और एक चार हाथ की (लम्बी)। दो हाथ की संघाटी उपाश्रय मे पहनने के लिए, तीन-तीन हाथ की दो सघाटियो मे से एक भिक्षाचर्या के समय धारण करने के