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श्रमण-धर्म · १६१
लिए तथा दूसरी शौच जाने के समय पहनने के लिए व चार हाथ की सघाटी समवसरण ( धर्मसभा) मे सारा शरीर ढकने के लिए है, ऐसा टीकाकारों का व्याख्यान है। यहाँ भिक्षुणियो के लिए जिन चार वस्त्रो के धारण का विधान किया गया है उनका 'संघाटी' (साडी अथवा चादर) शब्द से निर्देश किया गया है। टीकाकारों ने भी इनका उपयोग शरीर पर लपेटने अर्थात् ओढने के रूप मे ही बताया है। इससे प्रतीत होता है कि इन चारों वस्त्रो का उपयोग विभिन्न अवसरों पर ओढने के रूप मे करना अभीष्ट है, पहनने के रूप मे नही । अत इन्हे साध्वियों के उत्तरीय वस्त्र अर्थात् साड़ी अथवा चादर के रूप मे समझना चाहिए, अन्तरीय वस्त्र अर्थात् लहगा या धोती के रूप मे नहीं। दूसरी बात यह है कि दो हाथ और यहाँ तक कि चार हाथ लम्बा वस्त्र ऊपर से नीचे तक पूरे शरीर पर धारण भी कैसे किया जा सकता है। अतएव भिक्षुणियों के लिए ऊपर जिन चार वस्त्रो के ग्रहण एव धारण का विधान किया गया है उनमे अन्तरीय वस्त्र का समावेश नही होता, ऐसा समझना चाहिए। भिक्षुओ के विषय मे ऐसा कुछ नही है। वे एक वस्त्र का उपयोग अन्तरीय के रूप मे कर सकते हैं, दो का अन्तरीय व उत्तरीय के रूप में कर सकते हैं, आदि । यहाँ तक कि वे अचेल अर्थात् निर्वस्त्र भी रह सकते हैं। स्त्री-जातिगत सहज मर्यादाओ के कारण साध्वियो के लिए वैसा करना शक्य नही । उन्हें अपने सयम की रक्षा के लिए अमुक साधनो का उपयोग करना ही पड़ता है।
वृहत्कल्प सूत्र के तृतीय उद्देश में यह बतलाया गया है कि