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जैन
आचार
निर्ग्रन्थनि-ग्रन्थियों को कृत्स्न वस्त्र का संग्रह एवं उपयोग नही करना चाहिए | इसी प्रकार उन्हें अभिन्न वस्त्र काम मे नही लेना चाहिए। यहाँ कृत्स्न वस्त्र का अर्थ है रंग आदि से जिसका आकार आकर्षक बनाया गया हो वैसा सुन्दर वस्त्र | अभिन्न वस्त्र का अर्थ है विना फाड़ा पूरा वस्त्र । इस सूत्र मे आचारांगोल्लिखित वस्त्र - मर्यादा का नये ही रूप मे निर्देश किया गया है । इसमे बताया गया है कि नयी दीक्षा लेने वाले साधु को रजोहरण, गोच्छक, प्रतिग्रह अर्थात् पात्र एवं तीन पूरे वस्त्र ( जिनके श्रावश्यक उपकरण बन सके ) लेकर प्रव्रजित होना चाहिए । पूर्व प्रव्रजित साधुको किसी कारण से पुनः दीक्षा ग्रहण करने का प्रसंग उपस्थित होने पर नयी सामग्री न लेते हुए अपनी पुरानी सामग्री के साथ ही दीक्षित होना चाहिए । नवदीक्षित साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रो के ग्रहण का विधान है। शेष बाते साधु के ही समान समझनी चाहिए | साधु के लिए अवग्रहानन्तक अर्थात् गुह्यदेशपि - धानकरूप कच्छा एवं अवग्रहपट्टक अर्थात् गुह्यदेशाच्छादकरूप पट्टा रखना वर्ज्य है । साध्वी को इनका उपयोग करना चाहिए ।
बृहत्कल्प के द्वितीय उद्देश मे कहा गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पांच प्रकार के वस्त्रो का उपयोग करना कल्प्य है. जागिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरीटपट्टक । जगम अर्थात् स प्राणी के अवयवो ( बालो ) से निष्पन्न वस्त्र जागिक कहा जाता है । अलसी का वस्त्र भागिक, सन का वस्त्र सानक, कपास का वस्त्र पोतक तथा तिरीट नामक वृक्ष की छाल का वस्त्र तिरीटपट्टक कहलाता है । रजोहरण के