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११०: जैन आचार
स्त्रियो के पोषण, हिंसक प्राणियो के पालन, समाजविरोधी तत्त्वों के सरक्षण आदि का कार्य । श्रावक के लिए इन सब प्रकार के व्यवसायो व इनसे मिलते-जुलते अन्य प्रकार के कार्यों का निषेध इसलिए किया गया है कि इनके गर्भ मे महती हिसा रही हुई है । इस प्रकार के हिंसापूर्ण कृत्यो से करुणासम्पन्न श्रावक अपनी आजीविका कैसे चला सकता है। इन सब व्यवसायो का त्याग करने पर गृहस्थ का जीवन कितना सरल, सादगीपूर्ण एवं सात्त्विक हो जाता है, इसकी कल्पना करना आज के युग के मनुष्य के लिए अति कठिन है । उसके लिए कुछ ही ऐसे लघु उद्योग एवं छोटेमोटे सात्त्विक व्यवसाय रह जाते हैं जिनके द्वारा वह बिना किसी आडम्बर के सीधा-सादा जीवन जी सकता है । उसका जीवन कितना पवित्र एवं प्रेरणाप्रद होगा, यह गाँधीजी के जीवन की एक झलक से समझा जा सकता है। गाँधीजी की अहिंसक समाज की कल्पना कुछ-कुछ इसी ढंग की है । उपर्युक्त १५ कर्मादानो मे से कुछ कर्म ऐसे भी हैं जिन्हे यदि विवेकपूर्वक एव विशिष्ट साधनों की सहायता से किया जाय तो स्थूल हिंसा का उपार्जन नही होता । व्यवसाय कोई भी हो, यदि उसमे दो बाते दृष्टिगोचर हो तो वह श्रावक के लिए आचरणीय है । पहली बात यह है कि उसमे स्थूल हिंसा अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा न होती हो अथवा कम-सेकम होती हो। दूसरी बात यह है कि उसके द्वारा किसी व्यक्ति वर्ग अथवा समाज का शोषण न होता हो अथवा कम-से-कम होता हो । इस प्रकार का शोषण प्रत्यक्षत हिंसा भले ही न हो किन्तु परोचते हिंसा ही है । इस प्रकार की हिंसा कभी-कभी साधारण