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१३० : जैन आचार
यावत् ग्यारहवी का ग्यारह मास है । यह एक साधारण विधान है । साधक के सामर्थ्य के अनुसार इसमे यथोचित परिवर्तन भी हो सकता है ।
श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा सम्मत उपासक - प्रतिमाओं के क्रम तथा नामों मे नगण्य अन्तर है । श्वेताम्बर - परम्परा मे एकादश उपासक - प्रतिमाओं के नाम क्रमानुसार इस प्रकार मिलते है : १. दर्शन, २ व्रत, ३. सामायिक, ४ पौषध, ५ नियम, ६. ब्रह्मचर्य, ७ सचित्तत्याग, ८ आरम्भत्याग, ९. प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग, १० उद्दिष्टभक्तत्याग, ११. श्रमणभूत । दिगम्बर- परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम इस क्रम से मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रिभुक्तित्याग, ७. ब्रह्मचर्य, ८ आरम्भत्याग, ९. परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग, ११ उद्दिष्टत्याग । उद्दिष्टत्याग के दो भेद होते हैं जिनके लिये क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दो का प्रयोग होता है । ये श्रावक की उत्कृष्ट अवस्थाएँ होती हैं । श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्मत प्रथम चार नामो मे कोई अन्तर नही है । सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर-परम्परा में पाचवा है जबकि श्वेताम्बर - परम्परा मे सातवा है । दिगम्बराभिमत रात्रिभुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पाचवी प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है । ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर परम्परा मे छठा है जबकि दिगम्बर - परम्परा मे सातवां है । दिगम्बरसम्मत अनुमतित्याग श्वेताम्बरसम्मत उद्दिष्टभक्त त्याग के ही अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है क्योकि इस प्रतिमा में श्रावक
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