SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार : १३५ उद्दिष्ट भक्त ग्रहण न करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता। श्वेताम्बराभिमत श्रमणभूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है क्योकि इन दोनों मे श्रावक का आचरण भिक्षुवत् होता है। क्षुल्लक व ऐलक श्रमण के ही समान होते हैं। प्रतिक्रमण जीतकल्प सूत्र में जिन दस प्रकार के प्रायश्चित्तो का विधान किया गया है उनमे प्रतिक्रमण भी एक है। प्रतिक्रमण अर्थात् वापसी । यहाँ वापसी का अर्थ है शुभयोग से अशुभयोग मे गये हुए अपने आपको पुनः शुभयोग मे लाना । साधक प्रमादवश शुभयोग से च्युत होकर अशुभयोग में पहुंच जाता है । इस प्रकार अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभयोग को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। जिस प्रकार श्रमण के लिये व्रतो मे दोष लगने पर प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त आवश्यक माना गया है उसी प्रकार श्रावक के लिये भी अतिचारों की शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण की आवश्यकता स्वीकार की गई है। श्रावक स्थूल प्राणातिपात-विरमण आदि जिन व्रतों को स्वीकार करता है उनमे बन्ध, वध आदि अनेक अतिचाररूप दोष लगने की सम्भावना रहती है। इन दोषों का सम्यक निरीक्षण कर आलोचनापूर्वक पश्चात्ताप करना चाहिये एव भविष्य मे उनकी पुनरावृत्ति न हो, इसका ध्यान रखना चाहिये। इस प्रकार श्रावक अशुभयोग से निवृत्त होकर विशुद्धभाव से उत्तरोत्तर शुभयोग मे प्रवृत्त होता
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy