________________
१३२ : जैन आचार
जाता है। यही प्रतिक्रमण की सार्थकता है। प्रतिक्रमण का प्रयोजन साधक के जीवन से प्रमादभाव को दूर करना है। अनान, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेप आदि प्रमाद के ही रूप हैं। प्रमाद साधक-जीवन का एक भयंकर रोग है जो साधना को सडागला कर नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। प्रतिक्रमण इस रोग को नष्ट करने की एक अद्भुत औषधि है। साधक को इस ढंग से प्रतिक्रमणरूप औषधि का सेवन करते रहना चाहिए कि प्रमादरूप रोग जीवन मे तनिक भी पनपने न पाए।