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श्रावकाचार : १२९
नही रखी जाती। वेष, भाण्डोपकरण एवं आचरण श्रमण के ही समान होता है । श्रमणभूत श्रावक मुनिवेप मे अनगारवत् आचार-धर्म का पालन करता हुआ जीवनयापन करता है। सम्बन्धियो व जाति के लोगो के साथ यत्किंचित् स्नेहबन्धन होने के कारण उन्ही के यहाँ से अर्थात् परिचित घरो से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा लेते समय वह इस बात का ध्यान रखता है कि दाता के यहाँ उसके पहुंचने के पूर्व जो वस्तु बन चुकी होती है वही वह ग्रहण करता है, अन्य नही । यदि उसके पहुंचने के पूर्व चावल पक चुके हो और दाल न पकी हो तो वह चावल ले लेगा, दाल नही। इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो और चावल न पके हो तो वह दाल ले लेगा, चावल नही । पहुँचने के पूर्व दोनो चीजे बन चुकी हो तो दोनो ले सकता है और एक भी न बनी हो तो एक भी नहीं ले सकता ।
प्रतिमाएं गुणस्थानो की तरह आत्मिक विकास के बढते हुए अथवा चढते हुए सोपान हैं अत उत्तर-उत्तर प्रतिमाओ मे पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वत समाविष्ट होते जाते हैं। जब श्रावक ग्यारहवी अर्थात् अन्तिम प्रतिमा की आराधना करता है तब उसमे प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की समस्त प्रतिमाओ के गुण रहते हैं। इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार चाहे वह मुनिधर्म को दीक्षा ग्रहण कर सकता है, चाहे उसी प्रतिमा को धारण किये रह सकता है। इन प्रतिमाओ मे से कुछ के लिए अधिकतम कालमर्यादा भी वतलाई गई है। उदाहरण के लिए पांचवी प्रतिमा का अधिकतम काल पाच मास, छठी का छः मास,