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१४० : जैन आचार
बिल्ली से हमेशा डर रहता है उसी प्रकार संयमी श्रमण को स्त्री के शरीर एवं संयत श्रमणी को पुरुप की काया से सदा भय रहता है । वे स्त्री-पुरुष के रूप, रंग, चित्र आदि देखना तथा गीत आदि सुनना भी पाप समझते हैं। यदि उस ओर दृष्टि चली भी जाय तो वे तुरन्त सावधान होकर अपनी दृष्टि को खीच लेते हैं। वे बाल, युवा एव वृद्ध सभी प्रकार के नर-नारियो से दूर रहते हैं। इतना ही नही, वे किसी भी प्रकार के कामोत्तेजक अथवा इन्द्रियाकर्षक पदार्थ से अपना सम्बन्ध नही जोडते ।
ब्रह्मचर्यव्रत के पालन के लिए पांच भावनाएं इस रूप मे बतलाई गई हैं. १. स्त्री-कथा न करना, २. स्त्री के अंगो का अवलोकन न करना, ३.पूर्वानुभूत काम-क्रीडा आदि का स्मरण न करना, ४. मात्रा का अतिक्रमण कर भोजन न करना, ५ स्त्री आदि से सम्बद्ध स्थान मे न रहना । जिस प्रकार श्रमण के लिए स्त्री-कथा आदि का निषेध है उसी प्रकार श्रमणी के लिए पुरुषकथा आदि का प्रतिषेध है। ये एवं इसी प्रकार की अन्य भावनाएं सर्वमैथुन-विरमण व्रत की सफलता के लिए अनिवार्य है।
सर्वविरत श्रमण के लिए सर्वपरिग्रह-विरमण भी अनिवार्य है। परिग्रह मानव-जीवन का एक बहुत बड़ा पाप है, दोप है, हिंसा है। यह मनुष्य की मनोवृत्ति को उत्तरोत्तर कलुषित करता है। इससे व्यक्ति मे अशान्ति उत्पन्न होती है, अशुभ भावनाएँ पैदा होती हैं तथा समाज मे सघर्ष बढता है, कलह पनपता है। किसी भी वस्तु का ममत्वमूलक सग्रह परिग्रह कहलाता है । सर्वविरत श्रमण स्वय इस प्रकार का संग्रह कदापि नहीं करता,