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________________ श्रमण-धर्म : १३९ वस्तु को छूना भी उसके लिए निषिद्ध है । आवश्यकता होने पर वह स्वामी की अनुमति से अर्थात् उपयुक्त व्यक्ति के देने पर ही किसी वस्तु को ग्रहण करता है अथवा उसका उपयोग करता है । जिस प्रकार वह स्वयं अदत्तादान का सेवन नही करता उसी प्रकार किसी से करवाता भी नही और करने-कराने वालों का समर्थन भी नही करता । इस प्रकार सर्वविरत मुनि सुविशुद्ध भावना से अदत्तादान - विरमण महाव्रत का पालन करता है | इससे उसके अहिंसाव्रत के पालन मे सहायता मिलती है । अस्तेयव्रत की दृढ़ता एवं सुरक्षा के लिए पाच भावनाएं इस प्रकार बतलाई गई हैं : १. सोच-विचार कर वस्तु की याचना करना, २ आचार्य आदि की अनुमति से भोजन करना, ३ . परिमित पदार्थ स्वीकार करना, ४ . पुनः पुन. पदार्थों की मर्यादा करना, ५ साधर्मिक ( साथी श्रमण ) से परिमित वस्तुओ की # याचना करना । श्रमण-श्रमणी के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है । उसके मैथुनत्याग को सर्वमैथुन - विरमण कहा जाता है । इसमे उसके लिए मन, वचन एव काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निषेध होता है । इसे नवकोटि ब्रह्मचर्य अथवा नवकोटि शील कहा जाता है । मैथुन को अधर्म का मूल तथा महादोषों का स्थान कहा गया है । इससे अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न होते हैं, हिंसादि दोषों और कलह-संघर्षविग्रह का जन्म होता है । यह सब समझकर निग्रंथ मुनि मैथुन के ससर्ग का सर्वथा त्याग करते है । जैसे मुर्गी के बच्चे को
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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