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१३८ : जैन आचार
अकर्कश, असंदिग्ध वाणी बोलता है। क्रोध, मान, माया व लोभमूलक वचन तथा जान-बूझकर अथवा अज्ञानवश प्रयोग किये जाने वाले कठोर वचन अनार्य वचन हैं। ये दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य है। श्रमण को सदिग्ध अथवा अनिश्चित दशा में निश्चय-वाणी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। सम्यक्तया निश्चय होने पर ही निश्चय-वाणी बोलनी चाहिए । सदोष, कठोर, जीवों को कष्ट पहुचाने वाली भाषा भिक्षु न बोले। वह सत्य, मृदु, निर्दोष, अभूतोपघातिनी भाषा काम मे ले। सत्य होने पर भी अवज्ञासूचक शब्दों का प्रयोग न करे किन्तु सम्मानसूचक शब्द प्रयोग मे ले । सक्षेप मे कहा जाय तो सर्वविरत भिक्षु को क्रोधादि कषायो का परित्याग कर, समभाव धारण कर विचार व विवेक पूर्वक सयमित सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
सत्यव्रत की पाच भावनाएं ये हैं: १. वाणीविवेक, २. क्रोघत्याग, ३. लोभत्याग,४ भयत्याग, ५. हास्यत्याग। वाणीविवेक अर्थात् सोच-समझकर भाषा का, प्रयोग करना । क्रोधत्याग अर्थात् गुस्सा न करना। लोभत्याग अर्थात् लालच मे न फसना। भयत्याग अर्थात् निर्भीक रहना। हास्यत्याग अर्थात् हँसी-मजाक न करना। इन व इसी प्रकार की अन्य प्रशस्त भावनाओ से सत्यवत की रक्षा होती है। , अदत्तादान से सर्वथा विरमण होने वाला श्रमण कोई भी वस्तु बिना दी हुई ग्रहण नहीं करता। वह बिना अनुमति के एक तिनका उठाना भी स्तेय अर्थात् चोरी समझता है। किसी की गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई अथवा अज्ञात स्वामी की