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७२ : जैन आचार
गई है। तदनन्तर निम्नलिखित छः आवश्यको की निरुक्ति है : १ सामायिक, २ चतुर्विशस्तव, ३ वदना, ४. प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग । द्वादशानुप्रेक्षा अधिकार निम्नोक्त बारह भावनाओ से सम्बन्धित है : १ अध्रुव, २. अशरण, ३ एकत्व, ४. अन्यत्व, ५ ससार, ६. लोक, ७. अशुभत्व, ८. आस्रव, ९ सवर, १० निर्जरा, ११ धर्म, १२. वोधि । अनगारभावनाअधिकार मे दस प्रकार की शुद्धियों से युक्त मुनि को मोक्ष की प्राप्ति वतलाई गई है : १. लिंगशुद्धि, २ व्रतशुद्धि, ३. वसतिशुद्धि, ४ विहारशुद्धि, ५ भिक्षाशुद्धि, ६ ज्ञानशुद्धि, ७. उज्झनशुद्धि (परित्यागशुद्धि), ८. वाक्यशुद्धि, ९ तप शुद्धि, १०. ध्यानशुद्धि । समयसाराधिकार मे चारित्र को प्रवचन का सार बताया गया है एवं कहा गया है कि भ्रष्टचारित्र श्रमण सुगति प्राप्त नही कर सकता। इसमे चार प्रकार का लिंगकल्प वताया गया है : अचेलकत्व, लोच, व्युत्सृष्टशरीरता और प्रतिलेखन (पिच्छिका) शीलगुणाधिकार मे शील के अठारह हजार भेदो का निरूपण है। पर्याप्ति-अधिकार मे निम्नोक्त छ पर्याप्तियो का भेद-प्रभेदपूर्वक वर्णन किया गया है . १. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. आनप्राणपर्याप्ति ( श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ), ५ भाषापर्याप्ति, ६ मन.पर्याप्ति । इसमे चतुर्दश गुणस्थानो एवं चतुर्दश मार्गणास्थानो का भी समावेश है। मूलाचार की अनेक गाथाएं दशवैकालिक, दशवैकालिक-नियुक्ति, आवश्यक-नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, भक्तपरिज्ञा, मरणसमाधि आदि श्वेताम्बर ग्रन्थो से मिलती है।