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जैन आचार-ग्रन्थ : ७३
मूलाराधना :
मूलाराधना का दूसरा नाम भगवती आराधना है । यह भी दिगम्बर सम्प्रदाय का एक प्राचीन ग्रन्थ है | इसमे नामा - नुरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एव सम्यक्तप रूप चार प्रकार की मूल आराधनाओ का दो हजार से अधिक गाथाओ मे विवेचन है । यह ग्रन्थ चालीस अधिकारो मे विभक्त है । इसकी रचना करने वाले आचार्य हैं शिवार्य अथवा शिवकोटि । मूलाचार की ही भांति इसकी भी अनेक गाथाएँ आवश्यक निर्युक्ति, वृहत्कल्प भाष्य, संस्तारक, भक्तपरिज्ञा, मरणसमाधि आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों से मिलती हैं । इस पर अपराजितसूरि, आशाघर आदि की टीकाऍ है । इस ग्रन्थ मे आचाराग, कल्प ( वृहत्कल्प ), व्यवहार एवं जीतकल्प का उल्लेख है । इसके मुख्य विषयों के नाम इस प्रकार हैं : मरण व उसके सत्रह भेद, आचेलक्य, लोच, देहममत्वत्याग व प्रतिलेखन ( पिच्छिका ), रूप चार निर्ग्रन्थलिंग, विनय व उसके भेद, समाधि अधिकार, अनियत विहार, उपाधित्याग, भावना अधिकार, सल्लेखना व उसके उपाय, वैयावृत्य व तत्सम्बद्ध गुण, आर्यिका संगति का त्याग, दुर्जन-संगति का त्याग, दशविधकल्प, आलोचनाअधिकार, योग्यायोग्य वसति, परिचारको के कर्तव्य, आहारप्रकरण, क्षपणाधिकार, पंचनमस्कार, पचमहाव्रत, कषायविजय, चार ध्यान, छः लेश्याएँ, वारह भावनाएँ, मृतकसंस्कार आदि । मार्गणा - अधिकार मे आचार ( आचारांग ), जीत ( जीतकल्प ) व कल्प ( बृहत्कल्प) का उल्लेख है । सुस्थित अधि
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