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३४ : जैन आचार नियम । अणुव्रती उपासक पूर्णरूपेण अथवा सूक्ष्मतया सम्यक् चारित्र का पालन करने मे असमर्थ होता है। वह मोटे तौर पर ही चारित्र का पालन करता है । स्थूल हिंसा, झूठ आदि का त्याग करते हुए अपना व्यवहार चलाता हुआ त्किचित् आध्मात्मिक साधना करता है। सर्वविरति :
छठे गुणस्थान मे साधक कुछ और आगे बढता है। वह देशविरति अर्थात् आंशिकविरति से सर्वविरति अर्थात् पूर्णविरति की ओर आता है। इस अवस्था में वह पूर्णतया सम्यक् चारित्र की आराधना प्रारम्भ कर देता है। उसका व्रत अणुव्रत न कहला कर महाव्रत कहलाता है। वह अणुव्रती उपासक अथवा श्रावक न कहला कर महाव्रती साधक अथवा श्रमण कहलाता है। उसका हिंसादि का त्याग स्थूल न होकर सूक्ष्म होता है, अणु न होकर महान् होता है, छोटा न होकर बड़ा होता है। यह सब होते हुए भी ऐसा नही कहा जा सकता कि इस अवस्था मे स्थित साधक का चारित्र सर्वथा विशुद्ध होता है अर्थात् उसमे किसी प्रकार का दोष आता ही नही । यहाँ प्रमादादि दोषो की थोडी-बहुत सभावना रहती है अतएव इस गुणस्थान का नाम प्रमत्त-सयत रखा गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थिति के अनुसार इस भूमिका से नीचे भी गिर सकता है तथा ऊपर भी चढ सकता है। अप्रमत्त अवस्था
सातवे गुणस्थान में स्थित साधक प्रमादादि दोषो से रहित