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________________ १९६ : जैन आचार अथवा पंडितमरण है। चूकि इस प्रकार के मरण मे शरीर एवं कपाय को कृश किया जाता है-कुरेदा जाता है अतः इसे संलेखना भी कहते है। सलेखना में निर्जीव एकान्तस्थान में तृणशय्या (संस्तारक) विछा कर अाहारादि का परित्याग किया जाता है अत: इसे सथारा (सस्तारक) भी कहते हैं। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवे अध्ययन मे समाधिमरण स्वीकार करने वाले को वुद्ध व ब्राह्मण कहा गया है एव इस मरण को महावीरोपदिष्ट वताया गया है। समाधिमरण ग्रहण करने वाले की माध्यस्थ्यवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह संयमी न जीवित रहने की आकांक्षा रखता है, न मृत्यु की प्रार्थना करता है। वह जीवन और मरण मे आसक्तिरहित होता है-समभाव रखता है। इस अवस्था मे यदि कोई हिंसक प्राणी उसके शरीर का मास व रक्त खा जाय तो भी वह उस प्राणी का हनन नही करता और न उसे अपने शरीर से दूर ही करता है। वह यह समझता है कि ये प्राणी उसके नश्वर शरीर का ही नाश करते है, अमर आत्मा का नहीं।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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