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१२० : जैन आचार
विशेप की आराधना करना सल्लेखना कहलाता है । इसे शास्त्रीय परिभापा मे अपश्चिम-मारणान्तिक-सल्लेखना कहते हैं। अपश्चिम का अर्थ है जिसके पीछे कोई दूसरा नहीं है अर्थात् सबसे अन्तिम । मारणान्तिक का अर्थ है मृत्युरूप अन्त में होने वाली । सल्लेखना का अर्थ है जिसके द्वारा कपायादि कृग हो वैसी सम्यक् आलोचनायुक्त तपस्या । इस प्रकार अपश्चिम-मारणान्तिक-सल्लेखना का अर्थ होता है मरणान्त के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यो की सम्यक् आलोचना करके शरीर व कषायादि को कृश करने के निमित्त की जानेवाली सबसे अन्तिम तपस्या। इसका सीधे शब्दो में अर्थ होता है अन्तिम समय मे आहारादि का त्याग कर (पहले अन्न व वाद मे जल अथवा दोनो एक साथ छोड़कर) समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करना । इस दृष्टि से सल्लेखना प्राणान्त अनशन है। सल्लेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचारशास्त्र मे समाधिमरण व पण्डितमरण कहा गया है। इसे सथारा भी कहा जाता है। समाधिमरण व पडितमरण का अर्थ होता है स्वस्थ चित्तपूर्वक व विवेकयुक्त प्राप्त होने वालो मृत्यु । संथार अर्थात् सस्तारक का अर्थ होता है विछौना। चूंकि सल्लेखना मे व्यक्ति सस्तारक ग्रहण करता है अर्थात् आहारादि का त्याग कर विछौना विछा कर शान्त चित्त से एक स्थान पर लेटा रहता है इसलिए इसे सथारा कहते है । जब व्यक्ति का शरीर इतना निर्वल हो जाता है कि वह सयम अर्थात् आचार के पालन के लिए सर्वथा अनुपयुक्त सिद्ध होता है तब उससे मुक्त होना ही साधक के लिए श्रेयस्कर होता है। दूसरे शब्दो मे जव शरीर