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श्रावकाचार : १२१
किसी काम का न रह कर केवल भारभूत हो जाता है तब उससे मुक्ति पाना ही श्रेष्ठ होता है। ऐसी अवस्था मे बिना किसी प्रकार का क्रोध किये प्रशान्त एवं प्रसन्न चित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना सल्लेखना नत का महान् उद्देश्य है । अथवा अन्य प्रकार से मृत्यु का प्रसग उपस्थित होने पर निविकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना भी सल्लेखना है। श्रावक व श्रमण दोनो के लिए सल्लेखना व्रत का विधान है। इसे व्रत न कह कर व्रतान्त कहना ही अधिक उपयुक्त होगा क्योकि इसमे समस्त व्रतों का अन्त रहा हुआ है। इसमे जैसे शरीर का प्रशस्त अन्त अभीष्ट है वैसे ही व्रतो का भी पवित्र अन्त वाछित है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सल्लेखना अथवो सथारा आत्मघात नही है। प्रात्मघात के मूल मे अतिशय क्रोधादि कपाय विद्यमान होते हैं जबकि सल्लेखना के मूल मे कषायो का सर्वथा अभाव होता है। आत्मघात चित्त की अशान्ति एव अप्रसन्नता का द्योतक है जबकि सल्लेखना चित्त की प्रसन्नता एव शान्ति का निर्देशक है। आत्मघात मे मानसिक असन्तुलन की परिसीमा होती है जवकि सल्लेखना मे समभाव का उत्कर्ष होता है। आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है जबकि सल्लेखना निर्विकार चित्तवृत्ति से होती है। सल्लेखना जीवन के अन्तिम समय मे अर्थात् शरीर की अत्यधिक निर्वलता-अनुपयुक्तता-भारभूतता की स्थिति मे अथवा अन्यथा मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर की जाती है जबकि आत्मघात किसी भी स्थिति में किया जा सकता