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४० : जैन आचार
साधन के यम, नियमादि आठ अंग बतलाये गये हैं उसी प्रकार आचार्य हरिभद्रकृत योगदृष्टिसमुच्चय मे जैनाभिमत आठ योगदृष्टियाँ बतलाई गई है। इन दृप्टियो के नाम इस प्रकार हैं : १ मित्रा, २ तारा, ३. बला, ४ दीपा, ५ स्थिरा, ६. कान्ता, ७ प्रभा और ८ परा। दृष्टि का अर्थ बताते हुए योगदृष्टिसमुच्चय मे कहा गया है कि सत्श्रद्धाश्रुत बोध का नाम दृष्टियथार्थ दृष्टि है । इसके द्वारा विचारयुक्त श्रद्धा रखने, निर्णय करने एवं सत्य पदार्थ का ज्ञान करने की शक्ति उत्पन्न होती है । ज्योंज्यो दृष्टि की उच्चता प्राप्त होती जाती है त्यो-त्यो चारित्र का विकास होता जाता है। आचार्य हरिभद्र ने इस विकास क्रम को उक्त आठ दृष्टियो के माध्यम से स्पष्ट किया है।
ओघदृष्टि व योगदृष्टि:
सामान्यतया दृष्टि दो प्रकार की होती है । ओघदृष्टि और योगदृष्टि । ओघदृष्टि का अर्थ है सामान्य अथवा साधारण दृष्टि। जनसमूह की सामान्य दृष्टि जिसमे विचार अथवा विवेक का अभाव होता है, ओघदृष्टि कहलाती है। इसमे गतानुगतिकता का सद्भाव एव चिन्तनशीलता का अभाव होता है। योगदृष्टि का स्वल्प इससे विपरीत है। इसमे स्थित व्यक्ति मे विवेकशीलता विद्यमान रहती है । आचार्य हरिभद्रोक्त आठ दृष्टियो का समावेश योगदृष्टि मे होता है । दूसरे शब्दो मे मित्रादि आठ दृष्टियाँ योगदृष्टियाँ कहलाती है। इन्ही दृष्टियो के समूह का नाम योगदृष्टिसमुच्चय है। इन आठ दृष्टियो मे से प्रथम चार दृष्टियाँ