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जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ३९ मे भूमिकाओ तथा बौद्ध विचारधारा मे अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है। वैदिक परम्परा के योगवासिष्ठ, पातंजल योगसूत्र आदि ग्रन्थो मे आत्मविकास की भूमिकाओ का पर्याप्त विवेचन है । वौद्ध दर्शन में भी आत्मा की ससार, मोक्ष आदि अवस्थाएं मानी गई हैं अत उसमे आत्मविकास का वर्णन स्वाभाविक है। यह वर्णन मज्झिमनिकाय आदि बौद्ध ग्रन्थो मे उपलब्ध है। योगवासिष्ठवणित चौदह भूमिकाएँ जैनशास्त्रोक्त चौदह गुणस्थानों से कुछ-कुछ मिलती हुई हैं। इन चौदह भूमिकाओ मे से सात अज्ञान की तथा सात ज्ञान की हैं। जैन परिभाषा मे इन्हे क्रमशः मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व की अवस्थाएं कह सकते हैं। मज्झिमनिकाय मे स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त करने तक की स्थिति का पॉच अवस्थाओ मे विभाजन किया गया है जिनके नाम ये है : १. धर्मानुसारी, २ सोतापन्न, ३. सकदागामी, ४. अनागामी और ५. अरहा। जैन शास्त्रोक्त कर्मप्रकृतियो की भांति मज्झिमनिकाय मे दस सयोजनाओ का वर्णन है। इन सयोजनाओं का क्रमश क्षय होने पर सोतापन्न आदि अवस्थाएँ प्राप्त होती है। सोतापन्न आदि चार अवस्थाओं का विकास-क्रम जैनग्रन्थोक्त चौथे से लेकर चौदहवे तक के गुणस्थानों से मिलता-जुलता है। इन चार अवस्थाओं को चतुर्थ आदि गुणस्थानो का सक्षिप्त रूप कह सकते हैं। योगदृष्टियाँ:
जिस प्रकार पातंजल-योगसूत्र मे आत्मविकास अर्थात् चारित्रविकास की चरम अवस्थारूप मोक्ष की सिद्धि के लिए योगरूप