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६८ : जैन आचार
इस प्रकार हैं : प्रत्याख्यान का बार-बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, भाजन आदि का उपयोग करना, दर्शनीय वस्तुओ को देखने के लिए उत्कंठित रहना, प्रथम प्रहर मे ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, अपने उपकरण अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से उठवाना, हस्तरेखा आदि देख कर फलाफल बताना, मत्र-तत्र सिखाना, विरेचन लेना अथवा औपधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को वदनानमस्कार करना, पात्रादि मोल लेना, मोल लिवाना, मोल लेकर देने वाले से ग्रहण करना, उधार लेना, उधार लिवाना, उधार लेकर देनेवाले से ग्रहण करना, वाटिका आदि मे टट्टी-पेशाब डालना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार मे प्रवेश करना, जुगुप्सित कुलो से आहारादि ग्रहण करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अकारण नाव मे बैठना, स्वामी की अनुमति के बिना नाव में बैठना, इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, भूतमहोत्सव आदि के समय स्वाध्याय करना, अस्वाध्याय के काल मे स्वाध्याय करना, स्वाध्याय के काल मे स्वाध्याय न करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढाना या उससे पढना, शिथिलाचारियों को पढाना अथवा उनसे पढना आदि । बीसवे उद्देश मे आलोचना एव प्रायश्चित्त करते समय लगने वाले विविध दोषो के लिए विशेष प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इस उद्देश के अन्त मे तीन गाथाएं हैं जिनमे निशीथ सूत्र के प्रणेता आचार्य विसाहगणि-विशाखगणी की प्रशस्ति की गई है। निशीथ सूत्र जैन आचारशास्त्रान्तर्गत निर्ग्रन्थ