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जैन आचार-ग्रन्थ : ६९ दण्डशास्त्र का अति महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, इसमे कोई सदेह नही । महानिशोथ:
उपलब्ध महानिशीथ भापा व विषय की दृष्टि से बहत प्राचीन नही माना जा सकता। इसमे यत्र-तत्र आगमेतर अथो व आचार्यों के नाम भी मिलते हैं। यह छ. अध्ययनो व दो चूलाओ मे विभक्त है। प्रथम अध्ययन मे पापरूपी शल्य की निन्दा एव आलोचना की दृष्टि से अठारह पापस्थानको का प्रतिपादन किया गया है । द्वितीय अध्ययन मे कर्मविपाक का विवेचन किया गया है। तृतीय व चतुर्थ अध्ययनो मे कुशील साधुओ की सगति न करने का उपदेश है। इनमे मत्र-तत्र, नमस्कार-मत्र, उपधान, जिनपूजा आदि का विवेचन है। पचम अध्ययन मे गच्छ के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। षष्ठ अध्ययन मे प्रायश्चित्त के दस व आलोचना के चार भेदो का विवेचन है। इसमे आचार्य भद्र के गच्छ मे पाँच सौ साधु व बारह सौ साध्वियां होने का उल्लेख है। चूलाओ मे सुसढ आदि की कथाएँ हैं । तृतीय अध्ययन में उल्लेख है कि महानिशीथ के दीमक के खाजाने पर हरिभद्रसूरि ने इसका उद्धार एव संशोधन किया तथा आचार्य सिद्धसेन, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणी आदि ने इसे मान्यता प्रदान की--इसका बहुमान किया । जीतकल्पः
जीतकल्प सूत्र जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण की कृति है। इसमे निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो के विभिन्न अपराधविषयक प्रायश्चित्तो का