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________________ जैन आचार-ग्रन्थ . ६७ आदि दूसरों को देना, पात्र आदि दूसरो से साफ करवाना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि : द्वितीय उद्देश मे निम्नोक्त क्रियायो के लिए लघुमास का विधान है . दारुदण्ड का पादप्रोछन बनाना, कीचड के रास्ते में पत्थर आदि रखना, पानी निकलने की नाली आदि बनाना, सूई आदि को स्वयमेव ठीक करना, जरासा भी कठोर वचन बोलना, हमेशा एक ही घर का आहार खाना, दानादि लेने के पहले अथवा वाद मे दाता की प्रशसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ की सगति करना, मकानमालिक के घर का आहार-पानी ग्रहण करना आदि । तीसरे, चौथे एवं पाँचवे उद्देश मे भी लघुमाम से सम्बन्धित क्रियाओ का उल्लेख है। छठे उद्देश में मैथुनसम्बन्धी निम्नोक्त क्रियाओ के लिए गुरुचातुर्मासिक (अनुद्घातिक ) प्रायश्चित्त का विधान किया गया है : स्त्री अथवा पुरुप से मैथुनसेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुन की कामना से हस्तकर्म करना, स्त्री की योनि में लकड़ी आदि डालना, अचित्त छिद्र आदि में अंगादान प्रविष्ट कर शुक्र पुद्गल निकालना, वस्त्र दूर कर नन्न होना, निर्लज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना-लिखवाना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना, उलवाना आदि । सातवे, भाठवे, नवे, दसवे व ग्यारहवे उद्देश में भी मैथुनविपयक एवं अन्य प्रकार की दोपपूर्ण नियाजो के लिए गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। बारहवे से उन्नीसवे उद्देश तक लघुचातुर्मासिक (उद्घातिक.) प्रायश्चित्त से सम्बन्धित क्रियाओ का प्रतिपादन दिया गया है। ये क्रियाएं
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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