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जैन
आचार
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आदि । आठवे उद्देश मे शय्या - सस्तारक आदि उपकरण ग्रहण करने की विधि पर प्रकाश डाला गया है । नवे उद्देश मे मकानमालिक के यहाँ रहे हुए अतिथि आदि के आहार से सम्बन्धित कल्पाकल्प का विचार किया गया है, साथ ही भिक्षु- प्रतिमाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। दसवे उद्देश मे यवमध्यप्रतिमा, वज्रमध्य- प्रतिमा, पांच प्रकार का व्यवहार, बालदीक्षा, विविध सूत्रो के पठन-पाठन की योग्यता आदि का प्रतिपादन किया गया है ।
निशीथ :
निशीथ सूत्र मे चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लघुमास अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन समझना चाहिए। यह सूत्र वीस उद्देशो मे विभक्त है । प्रथम उद्देश मे निम्नलिखित क्रियाओ के लिए गुरुमास का विधान किया गया है : हस्तकर्म करना, अंगादान को काष्ठादि की नली मे डालना अथवा काष्ठादि की नली को अंगादान मे डालना, अंगुली आदि को अगादान मे डालना अथवा अगादान को अगुलियो से पकडना या हिलाना, अगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर कर अंदर का भाग खुला करना, पुष्पादि सूघना, ऊँचे स्थान पर चढने के लिए दूसरो से सोढी आदि रखवाना, दूसरो से पर्दा आदि वनवाना, सूई आदि ठीक करवाना, अपने लिए मॉग कर लाई हुई सूई