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________________ १७४ : जैन आचार आहार लेना, १६ मूलकर्म-गर्भस्तम्भ अर्थात् गर्भ रोकने आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना। ग्रहणेषणा के दोष-आहार की ग्रहणपणा के निम्नोक्त १० दोप हैं . १. शकित–प्राधाकर्म आदि दोषों की शका होने पर आहार लेना, २. म्रक्षित-सचित्त का ससर्ग होनेपर आहार लेना, ३ निक्षिप्त-सचित्त पर रखा हुआ आहार लेना, ४. पिहित-सचित्त से ढका हुआ आहार लेना, ५ सहृत-सचित्त पदार्थ से संपृक्त पात्र से अर्थात् अकल्पनीय वस्तु को निकालने __ के बाद उसी बरतन से देने पर आहार लेना, ६. दायक गर्भिणी आदि अनधिकारी दाता से आहार लेना, ७. उन्मिश्रसचित्त से मिश्रित आहार लेना, ८. अपरिणत-अधूरा पका आहार लेना, ९. लिप्त-साधु के निमित्त से घृत आदि से लिप्त होने वाले पात्र या हाथ से आहार लेना, १० छर्दित-नीचे गिरता हुअा या विखरता हुआ आहार लेना। ग्रासैघणा के दोष-निम्नोक्त ५ दोष ग्रासैषणा के हैं : १ सयोजना-स्वादवर्धन की दृष्टि से खाद्य पदार्थों को परस्पर मिलाना, २ अप्रमाण-मात्रा से अधिक खाना, ३. अंगारस्वादिष्ट भोजन को प्रशसा करते हुए खाना, ४ धूम-नीरस भोजन को निन्दा करते हुए खाना, ५ अकारण-सयमरक्षा के निमित्त भोजन न करते हुए बलवृद्धि आदि के लिए भोजन करना। अनगार-धर्मामृत के पाचवे अध्याय मे पिण्डविशुद्धि अर्थात् आहारशुद्धि का विचार करते हुए निम्नोक्त ४६ पिण्डदोपो का
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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