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________________ श्रमण-धर्म : १७५ प्रतिपादन किया गया है : १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादनदोप, १० शकितादिदोष व ४ अगारादिदोष । एकभक्त मूलाचार के मूलगुणाधिकार नामक प्रथम अध्ययन मे निर्ग्रन्थ (अचेलक) के जिन २८ मूलगुणो का वर्णन किया गया है उनमे स्थितिभोजन व एकभक्त नामक दो आहारसम्बन्धी गुणो का भी समावेश है। स्थितिभोजन का अर्थ है निर्दोष भूमि पर विना सहारे खड़े रहकर अजलिपुट (पाणिपात्र-स्वहस्तपात्र) मे आहार करना। एकभक्त का अर्थ है सूर्योदय व सूर्यास्त के बीच केवल एक बार आहार करना । इस प्रकार मूलाचार मे मुनि के लिए एकभक्त अर्थात् दिन मे एक बार भोजन करने का विधान है और वह भी खडे-खडे अपने हाथो मे हो खाने का। दशवैकालिक के महाचारकथा नामक छठे अध्ययन मे श्रमण को एकभक्त भोजन करने वाला कहा गया है : एगभत्त च भोअणं । यद्यपि टीकाकारों ने 'एगभत्त' का अर्थ दिवाभोजन के रूप में किया है किन्तु शब्दरचना, सदर्भ एव श्रमणाचार के हार्द को देखते हुए यह अर्थ उपयुक्त प्रतीत नही होता। एगभत्तएकभक्त का अर्थ वही होना चाहिए जो मूलाचार के लेखक एवं टीकाकारो ने किया है। दिन मे अनेक बार भोजन करने वाले मुनि की अपेक्षा एक बार भोजन करने वाला मुनि श्रमणधर्म का विशेप निर्विघ्नतया एवं निष्ठापूर्वक पालन कर सकता है। अनेक बार अाहार करने वाले मुनियो का अधिकाश उपयोगी समय
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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