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________________ श्रमण-संघ : २०७ मुख्यत: निम्नोक्त चार पदों से सम्बन्धित होती है प्रतिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी। पूरे श्रमण-सघ मे आचार्य का जो स्थान है वही स्थान निर्ग्रन्थी-सघ मे प्रवर्तिनी का है । उसकी योग्यताएं भी आचार्य आदि के ही समकक्ष है अर्थात् आठ वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाली साध्वी प्राचारकुशल, प्रवचनप्रवीण तथा असंक्लिष्ट चित्त वाली एवं स्थानांग-समवायांग की ज्ञाता होने पर प्रतिनी के पद पर प्रतिष्ठित की जा सकती है । प्रवर्तिनी को महत्तरा के रूप मे भी पहचाना जाता है । आचार्य-उपाध्याय के अधीन होने के कारण उसे महत्तमा नही कहा जाता । कही-कही प्रधानतम साध्वी के लिए गणिनी शब्द का भी प्रयोग हआ है। साध्वी-संघ में गणावच्छेदिनी का वही स्थान है जो श्रमण-संघ मे उपाध्याय का है। इसीलिए गणावच्छेदिनी को उपाध्याया के रूप में भी पहचाना जाता है। श्रमण-संघ मे जो स्थान स्थविर का है वही स्थान साध्वीसघ मे अभिषेका का है। इसीलिए उसे स्थविरा भी कहा जाता है। प्रतिहारी रात्निक अथवा रत्नाधिक श्रमण के समकक्ष मानी जा सकती है। प्रतिहारी निन्थी को प्रतिश्रयपाली, द्वारपाली अथवा संक्षेप में पाली के रूप मे भी पहचाना जाता है । निग्रन्थी-सघ की पदाधिकारिणियां भी निर्गन्थ पदाधिकारियो के ही समान ज्ञानाचारसम्पन्न होती हैं। मूलाचार के सामाचार नामक चतुर्थ अधिकार में संघ के श्रमण-श्रमणियों के पारस्परिक व्यवहार का विचार करते हुए कहा गया है कि तरुण श्रमण को तरुण श्रमणी के साथ संभाषण
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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