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२०६ : जैन आचार
शास्त्र पढाना है । गणी को वाचनाचार्य अथवा गणधर भी कहा जाता है।
गणावच्छेदक अमुक गच्छ अथवा वर्ग का नायक होता है। उस वर्ग के समस्त साधुओ का नियन्त्रण उसके हाथ मे होता है।
श्रमण-संघ के विशिष्ट ज्ञानाचारसम्पन्न निग्रन्थ रात्निक अथवा रत्नाधिक कहलाते हैं। ये महानुभाव विविध अनुकूलप्रतिकूल प्रसंगों पर आचार्यादि की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि दिगम्बर ग्रंथों मे भी श्रमण-संघ के विशिष्ट पुरुषो अथवा अधिकारियों के नाम लगभग इसी रूप मे मिलते हैं। उनमे आचार्य, उपाध्याय, गणधर, स्थविर, प्रवर्तक, रात्निक आदि नाम उपलब्ध होते हैं ।
निर्ग्रन्थी-संघ
निम्रन्थ-सघ की ही भांति निर्गन्थी-संघ भी आचार्य एवं उपाध्याय के ही अधीन होता है। ऐसा होते हुए भी उसके लिए भिन्न व्यवस्था करना अनिवार्य है क्योकि उसका संगठन स्वतन्त्र ही होता है। निर्ग्रन्थियो को निर्ग्रन्थो के साथ बैठने, उठने, पाने, जाने, खाने, पीने, रहने, फिरने आदि की मनाही है। निर्गन्थियों को अपने ही वर्ग मे रहकर संयम की आराधना करनी होती है । यही कारण है कि निर्ग्रन्थी-सघ मे भी विशिष्ट पदाधिकारियों की नियुक्तियां की जाती हैं। इस प्रकार की नियुक्तियाँ