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२०८ • जैन आचार
आदि नही करना चाहिए, श्रमणो को श्रमणियों के साथ नही ठहरना चाहिए, श्रमणियो को आचार्य से पांच हाथ दूर, उपाध्याय से छ हाथ दूर तथा अन्य साधुओ से सात हाथ दूर बैठ कर वंदना करनी चाहिए। श्रमणियो को पारस्परिक संरक्षण की भावना से तीन, पाच अथवा सात की संख्या मे भिक्षा के लिए जाना चाहिए। '
वैयावृत्य :
वैयावृत्य अर्थात् सेवा के विषय मे स्थविरकल्पिकों के लिए सामान्य नियम यही है कि साधु साध्वी से एव साध्वी साधु से किसी प्रकार का काम न ले। अपवाद के रूप मे साधु-साध्वी परस्पर सेवा-सुश्रूषा कर सकते है। सर्पदंश आदि विषम परिस्थिति मे आवश्यकतानुसार कोई भी स्त्री अथवा पुरुप साधुसाध्वी की औषधोपचाररूप सेवा कर सकता है। जिनकल्पिको को त्यागी अथवा गृहस्थ किसी से किसी भी प्रकार की सेवा लेना अथवा करना अकल्प्य है।
निग्रन्थ-निर्गन्थियो के लिए सामान्यतया दस प्रकार की सेवा आचरणीय बताई गई है : १. आचार्य की सेवा, २ उपाध्याय की सेवा, ३ स्थविर की सेवा, ४. तपस्वी की सेवा, ५ शैक्ष अर्थात् छात्र की सेवा, ६ ग्लान अर्थात् रोगी की सेवा, ७ सार्मिक की सेवा, ८ कुल की सेवा, ६ गण की सेवा, १०. सघ की सेवा । इस प्रकार की सेवा से महानिर्जरा का लाभ होता है।