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श्रावकाचार : ९९
क्या वह चतुर्थ अणुव्रतधारी नही हो सकता ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। जव श्रावक मैथुनसेवन की स्वदारसतोपरूप मर्यादा निश्चित करता है तो उसमे परदारत्याग, वेश्यात्याग, कुमारिकात्याग आदि स्वत. आ जाता है। ऐसा होते हुए भी कई बार विषयवृत्ति की अधीनता के कारण वह जाने-अजाने ऐसी-ऐसी गलत गलियां निकालता है जिनसे व्रतभग भी न हो और मैथुनेच्छा भी पूरी हो जाय । यही गलियां स्थूल मैथुन-विरमण व्रत के अतिचार है । ये दोपरूप होने के कारण त्याज्य हैं । इनका शास्त्रकारो ने अन्य व्रतों के अतिचारो की ही भांति निम्नोक्त पांच रूपो मे प्रतिपादन किया है : इत्वरिक-परिगृहीता-गमन, अपरिगृहीता-गमन, अनंगक्रीडा, परविवाहकरण और कामभोग-तीनाभिलाषा। जो स्त्रियां परदारकोटि मे नही आती ऐसी स्त्रियों को धन आदि का लालच देकर कुछ समय तक अपनी बना लेना अर्थात् स्वदारकोटि मे ले आना तथा उनके साथ कामभोग का सेवन करना इत्वरिक-परिगृहीता-गमन कहलाता है। इत्वर अर्थात् अल्पकाल, परिग्रहण अर्थात् स्वीकार, गमन अर्थात् कामभोग-सेवन । इत्वरिक-परिगृहीतानमन अर्थात् अल्पकाल के लिए स्वीकार की हुई स्त्री के साथ कामभोग का सेवन करना-कुछ समय के लिए रखी हई किसी महिला के साथ मैथुनसेवन करना। जो स्त्री अपने लिए अपरिगृहीत अर्थात् अस्वीकृत है उसके साथ कामभोग का सेवन करना अपरिगृहीता-गमन है। इस प्रकार की स्त्रियो मे निम्नोक्त स्त्रियो का समावेश होता है : जिसके साथ