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जैन आचार-ग्रन्थ : ५७
४. शब्द, ५. रूप, ६. परक्रिया, ७ अन्योन्यक्रिया । तृतीय चूला भावना अध्ययन के रूप मे है। चतुर्थ चूला विमुक्ति-अध्ययनरूप है । प्रथम चूला का प्रथम अध्ययन ग्यारह उद्देशो मे विभक्त है। इनमे भिक्षु-भिक्षुणी की पिण्डैपणा अर्थात् आहार की गवेषणा के विपय मे विधि-निषेधो का निरूपण है। शय्यैषणा नामक द्वितीय अध्ययन मे श्रमण-श्रमणी के रहने के स्थान अर्थात् वसति की गवेषणा के विषय मे प्रकाश डाला गया है। इस अध्ययन मे तीन उद्देश हैं। ईर्या नामक तृतीय अध्ययन मे साधु-साध्वी की ईर्या अर्थात् गमनागमनरूप क्रिया की शुद्धि-अशुद्धि का विचार किया गया है । इसमे तीन उद्देश हैं। भापाजात नामक चतुर्थ अध्ययन के दो उद्देश हैं जिनमे भिक्षु-भिक्षुणी की वाणी का विचार किया गया है । प्रथम उद्देश मे सोलह प्रकार की वचनविभक्ति तथा द्वितीय मे कपायजनक वचनप्रयोग की व्याख्या है। पचम अध्ययन वस्त्रपणा के भी दो उद्देश है। इनमे से प्रथम मे वस्त्रग्रहणसम्बन्धी तथा द्वितीय मे वस्त्रधारणसम्बन्धी चर्चा है । षष्ठ अध्ययन पात्रैषणा के भी दो उद्देश हैं जिनमे अलावु, काष्ठ व मिट्टी के पात्र के गवेषण एव धारण की चर्चा है। अवग्रहप्रतिमा नामक सप्तम अध्ययन भी दो उदेशो मे विभक्त है जिनमे विना अनुमति के किसी भी वस्तु को ग्रहण करने का निपेध किया गया है। द्वितीय चूला के प्रथम अध्ययन स्थान मे शरीर की हलन-चलनरूप क्रिया का नियमन करने वाली चार प्रकार की प्रतिमाएँ अर्थात् प्रतिज्ञाएँ वर्णित हैं जिनमे सयमी की स्थिति अपेक्षित है। द्वितीय अध्ययन निषीधिका मे स्वाध्यायभूमि के सम्बन्ध मे चर्चा है।