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५६ : जैन आचार
वर्तमान जैनाचार के प्ररूपक अन्तिम तीर्थंकर श्रमणभगवान् महावीर की तपस्या का वर्णन है। प्रस्तुत अध्ययन मे भगवान् महावीर के साधकजीवन अर्थात् श्रमणजीवन की सर्वाधिक प्राचीन एवं विश्वसनीय सामग्री उपलब्ध है। इसके चार उद्देशों में से प्रथम मे श्रमणभगवान् की चर्या अर्थात् विहार, द्वितीय मे शय्या अर्थात् वसति, तृतीय मे परीषह अर्थात् उपसर्ग तथा चतुर्थ में आतक व तद्विपयक चिकित्सा का वर्णन है। इन सब कियाओं मे उपधान अर्थात् तप प्रधान रूप से रहता है अतः इस अध्ययन का उपधानश्रुत नाम सार्थक है। इसमे महावीर के लिए 'श्रमणभगवान्', 'ज्ञातपुत्र', 'मेधावी', 'ब्राह्मण', 'भिक्षु', 'अबहुवादी' आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है। प्रत्येक उद्देश के अन्त मे उन्हे मतिमान् ब्राह्मण एवं भगवान् कहा गया है।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पाँच चूलाओ मे से अन्तिम चूला आचारप्रकल्प अथवा निशीथ को आचारांग से किसी समय पृथक कर दिया गया जिससे आचारांग मे अव केवल चार चूलाएं ही रह गई है। प्रथम श्रुतस्कन्ध मे आने वाले विविध विषयो को एकत्र करके शिष्यहितार्थ चूलाओ मे सगृहीत कर स्पष्ट किया गया। इनमे कुछ अनुक्त विषयो का भी समावेश कर दिया गया। इस प्रकार इन चूलाओ के पीछे दो प्रयोजन थे : उक्त विषयो का स्पष्टीकरण तथा अनुक्त विपयों का ग्रहण । प्रथम चूला मे सात अध्ययन हैं : १. पिण्डैषणा, २ शय्यपणा, ३. ईर्या, ४ भाषाजात, ५ वस्त्रपणा, ६ पात्रषणा, ७. अवग्रहप्रतिमा। द्वितीय चूला मे भी सात अध्ययन हैं : १. स्थान, २. निपीधिका, ३. उच्चारप्रस्रवण,