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________________ २२ : जैन आचार प्रकार का कष्ट पहुंचाना तो पाप है ही, मन अथवा वचन से उस प्रकार की प्रवृत्ति करना भी पाप है । मन, वचन और काया से किसी को सताप न पहुँचाना सच्ची अहिंसा है-पूर्ण अहिंसा है। वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मानव तक के प्रति अहिंसक आचरण को भावना जैन विचारधारा की अनुपम विगेपता है। इसे अहिंसक आचार का चरम उत्कर्ष कह सकते है। आचार का यह अहिसक विकास जैन सस्कृति की अमूल्य निधि है। अहिसा को केन्द्रबिन्दु मानकर अमृपावाद, अस्तेय, अमैथुन एव अपरिग्रह का विकास हुमा । आत्मिक विकास मे बाधक कर्मवंध को रोकने तथा वद्ध कर्म को नष्ट करने के लिए अहिंसा तथा तदाधारित अमृपावाद आदि की अनिवार्यता स्वीकार की गई । इसमे व्यक्ति एव समाज दोनो का हित निहित है। वैयक्तिक उत्थान एवं सामाजिक उत्कर्प के लिए असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण तथा संयम का परिपालन आवश्यक है। इनके अभाव मे अहिंसा का विकास नही हो पाता। परिणामत. आत्मविकास मे बहुत बडी बाधा उपस्थित होती है। इन सबके साथ अपरिग्रह का व्रत अत्यावश्यक है। परिग्रह के साथ आत्मविकास की घोर शत्रुता है। जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ आत्मविकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इतना ही नहीं, परिग्रह आत्मपतन का बहुत बड़ा कारण बनता है। परिग्रह का अर्थ है पाप का सन्नह। यह आसक्ति से बढता है एवं आसक्ति को वढाता भी है। इसी का नाम मूर्छा है। ज्यो-ज्यो परिग्रह
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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