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जैनाचार की भूमिका : २१ होता है । मुक्त आत्मा मे ये चार अनन्त-अनन्त-चतुष्टय सर्वदा बने रहते है। ससारी आत्मा स्वदेहपरिमाण एवं पौद्गलिक कर्मों से युक्त होती है, साथ ही परिणमनशील, कर्ता, भोक्ता एव सीमिति उपयोगयुक्त होती है। अहिंसा और अपरिग्रह :
जैनाचार का प्राण अहिंसा है। अहिंसक आचार व विचार से ही आध्यात्मिक उत्थान होता है जो कर्ममुक्ति का कारण है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन एव आचरण जैन परम्परा मे उपलब्ध है उतना शायद ही किसी जैनेतर परम्परा मे हो । अहिंसा का मूलाधार आत्मसाम्य है। प्रत्येक आत्मा-चाहे वह पृथ्वीसम्बन्धी हो, चाहे उसका आश्रय जल हो, चाहे वह कीट अथवा पतंग के रूप मे हो, चाहे वह पशु अथवा पक्षी मे हो, चाहे उसका वास मानव मे हो तात्त्विक दृष्टि से समान है। सुख-दुख का अनुभव प्रत्येक प्राणी को होता है। जीवन-मरण की प्रतीति सबको होती है। सभी जीव जीना चाहते हैं । वास्तव मे कोई भी मरने की इच्छा नही करता। जिस प्रकार हमे जीवन प्रिय है एव मरण अप्रिय, सुख प्रिय है एव दु ख अप्रिय, अनुकूलता प्रिय है एव प्रतिकूलता अप्रिय, मृदुता प्रिय है एवं कठोरता अप्रिय, स्वतन्त्रता प्रिय है एव परतन्त्रता अप्रिय, लाभ प्रिय है एवं हानि अप्रिय, उसी प्रकार अन्य जीवो को भी जीवन आदि प्रिय हैं एव मरण आदि अप्रिय । इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम मन से भी किसी के वध आदि की बात न सोचे । शरीर से किसी की हत्या करना अथवा किसी को किसी