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२० : जैन आचार अशरणत्व, एकत्व आदि भावनाओ का समावेश होता है । क्षुधा, पिपासा, सर्दी, गर्मी आदि कप्टो को सहन करना परीपहजय है। चारित्र सामायिक आदि भेद से पाँच प्रकार का है। तप वाह्य भी होता है व आभ्यन्तर भी । अनशन आदि वाह्य तप है, प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप कहलाते है। तप से सवर के साथसाथ निर्जरा भी होती है । सवर व निर्जरा का पर्यवसान मोक्ष मे कर्ममुक्ति होता है।
यात्मवाद:
कर्मवाद का आत्मवाद से साक्षात् सम्बन्ध है। यदि आत्मा की पथक सत्ता न मानी जाय तो कर्मवाद की मान्यता निरर्थक सिद्ध होती है। जैन आचारशास मे कर्मवाद के आधारभूत मात्मवाद को भी प्रतिष्ठा की गई है । आत्मा का लक्षण उपयोग है। उपयोग का अर्थ है बोवरूप व्यापार । यह व्यापार चैतन्य का धर्म है । जड पदार्थो मे उपयोग-क्रिया का अभाव होता है स्वोरि उनमे चतन्य नहीं होता । उपयोग अर्थात् बोध दो प्रकार का है : नान और दर्शन । नुख और वीर्य भी चैतन्य का ही धर्म है।लिए आत्मा को अनन्त-चतुष्टयात्मक माना गया है। अनन्त चतुष्टय ये है : अनन्त जान,अनन्त दर्शन,अनन्त मुख गौर अनन्त वीर्य बल अर्थात् नमारी आत्मा में ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय, मोहनीय सौरमानाय पर्म के सम्पूर्णक्षय ले क्रमश विशेष वोधरूप धनाम भान, नामान्य बोधस्य अनन्न दर्शन, अलौकिक आनन्दरजनन्न नुम्य व बाध्यात्मिक शक्तिस्प अनन्त वीर्य प्रादुर्भूत