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जैनाचार की भूमिका २३
वढता है त्यों-त्यों मूर्च्छा-मृद्धि - आसक्ति बढती जाती है । जितनी अधिक मासक्ति बढती है उतनी ही अधिक हिंसा बढती है | यही हिंसा मानव समाज मे वैपम्य उत्पन्न करती है । इसीसे आत्मपतन भी होता है । अपरिग्रहवृत्ति अहिंसामूलक आचार के सम्यक् परिपालन के लिए अनिवार्य है ।
अनेकान्तष्ट :
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जिस प्रकार जैन विचारको ने आचार मे हिंसा को प्रधानता दी उसी प्रकार उन्होने विचार में अनेकान्तदृष्टि को मुख्यता दी । अनेकान्तदृष्टि का अर्थ है वस्तु का सर्वतोमुखी विचार | वस्तु मे अनेक धर्म होते हैं । उनमे से किसी एक धर्म का आग्रह न रखते हुए अर्थात् एकान्तदृष्टि न रखते हुए अपेक्षाभेद से सव धर्मो के साथ समान रूप से न्याय करना अनेकान्तदृष्टि का कार्य है । अनेक धर्मात्मक वस्तु के कथन के लिए 'स्यात्' शव्द का प्रयोग श्रावश्यक है । 'स्यात्' का अर्थ है कथचित् श्रर्थात् किसी एक अपेक्षा से - किसी एक धर्म की दृष्टि से । वस्तु के अनेक धर्मो अर्थात् अनन्त गुणो मे से किसी एक धर्म अर्थात् गुण का विचार उस दृष्टि से ही किया जाता है । इसी प्रकार उसके दूसरे धर्म का विचार दूसरी दृष्टि से किया जाता है । इस प्रकार वस्तु के धर्म-भेद से ही दृष्टि-भेद पैदा होता है । दृष्टिकोण के इस अपेक्षावाद अथवा सापेक्षवाद का नाम ही स्याद्वाद है । चूंकि स्याद्वाद से अनेक धर्मात्मक अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन या विचार होता है अत स्याद्वाद का अपर नाम अनेकान्तवाद