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९० : जैन आचार
संताप पहुंचाना, तडफाना, चूसना आदि वध के हो विविध रूप हैं । अनीतिपूर्वक किसी की आजीविका छीनना अथवा नष्ट करना भी वध का ही एक रूप है । संक्षेप में स्वार्थवश किसी निरपराधी पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रहार करना वध है। इस अतिचार से बचने का यही उपाय है कि जिस प्रवृत्ति मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से त्रस प्राणियो की हिंसा होती हो-वध होता हो उस प्रवृत्ति से निलिप्त रहा जाय-अलग रहा जाय । जिस व्यक्ति मे स्वार्थभावना जितनी कम होगी वह वध के अतिचार से उतना ही दूर रहेगा । नि स्वार्थ एवं परोपकारमूलक प्रवत्ति स्वाभाविकतया हिंसादोष से दूर रहती है। जिसके हृदय मे सर्वहित की भावना विद्यमान होगी वह किसी का वध क्यो करेगा ? जिसे किसी के प्रति राग अथवा द्वेष नही होगा वह किसी की हिसा क्यों करेगा? परोपकारी के हृदय मे सबकी रक्षा करने की भावना होती है, किसी का वध करने की नही । वह जो कुछ भी प्रवृत्ति करता है। सार्वजनिक हित के लिए करता है, किसी के अहित के लिए नही। इसीलिए उसकी प्रवृत्ति शुद्ध एवं अहिंसक मानी जाती है। महात्मा गाधी ने इस प्रकार की अहिंसक प्रवृत्ति के अनेक प्रयोग किये जो एक आदर्श श्रावक के लिए अनुकरणीय हैं-आचरणीय हैं । महान् एवं पवित्र प्रवृत्ति मे यदि अल्प हिंसा होती भी हो तो वह नगण्य है। उससे प्रवृत्ति की पवित्रता एवं महानता अल्प नही होती । जिस प्रवृत्ति का उद्देश्य महान् एवं पवित्र हो, जिसके पीछे रही हुई भावना प्रशस्त एव उदात्त हो, जिसका संचालन विवेक एव सतर्कता से हो वह अल्पारंभ अर्थात् अल्प हिंसा के कारण