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श्रावकाचार : ८९
यह तद्विषयक परिस्थिति एवं सामना करने वाले की मानसिक भूमिका व व्रतमर्यादा पर निर्भर है। इसके विपय मे किसी प्रकार का ऐकान्तिक विधान अथवा आग्रह नही है ।
सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी कभी-कभी प्रमादवश अथवा अज्ञानवश दोप लगने की संभावना रहती है । इस प्रकार के दोपो को अतिचार कहा जाता है । स्थूल अहिसा अथवा स्थूल प्राणातिपात-विरमण के पाच मुख्य अतिचार हैं : १ वन्ध, २. वध, ३. छविच्छेद, ४. अतिभार ५ अन्नपाननिरोध। ये अथवा इसी प्रकार के अन्य अतिचार श्रावक के जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नही। बन्ध का अर्थ है किसी त्रस प्राणी को कठिन वधन से वांधना अथवा उसे अपने इष्ट स्थान पर जाने से रोकना । अपने अधीनस्थ व्यक्तियो को निश्चित समय से अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट समय के उपरान्त कार्य लेना, उन्हें अपने इष्ट स्थान पर जाने मे अतराय पहुँचाना आदि वध के ही अन्तर्गत हैं। किसी भी बस प्राणी को मारना वध है। पीटना भी वध का ही एक रूप है। अपने आश्रित व्यक्तियो को अथवा अन्य किसी को निर्दयतापूर्वक या क्रोधवश मारना-पीटना, गाय, भैस, घोड़ा, बैल आदि को लकडी, चाबुक, पत्थर आदि से मारना, किसी पर अनावश्यक अथवा अनुचित आर्थिक भार डालना, किसी की लाचारी का अनुचित लाभ उठाना, किसी का अनैतिक ढग से शोपण कर अपनी स्वार्थपूर्ति करना आदि वध मे समाविष्ट है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्राणी की हत्या करना, किसी को मारना-पीटना,