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८८ : जैन आचार
अमोघ अस्त्र हैं। इनके अभाव मे अहिंसा निष्प्राण होकर जडवत् . हो जाती है-मर जाती है। अहिंसा-व्रत का पालन करने वाला श्रावक जितना किसी को मारने मे भय का अनुभव करता है उतना मरने मे नहो । वह अपनी व्रत-रक्षा के लिए सदैव प्राणोत्सर्ग करने को तैयार रहता है। वह न स्वयं भयभीत होता है; न किसी को भयभीत करता है। हिंसा व अन्याय के सामने सिर झुकाना उसका काम नही । वह वीरता व विवेकपूर्वक हिंसा व अन्याय का प्रतीकार करता है-सामना करता है। निर्भयता अर्थात् वीरता अहिंसादि व्रतो का आधार-स्तम्भ है। कायर अर्थात् डरपोक व्यक्ति न तो अपनी रक्षा कर सकता है, न अपने ब्रतों की । उसकी कायरतापूर्ण प्रवृत्तियो से हिंसा, अन्याय एवं अनाचार को ही प्रोत्साहन मिलता है। जिसे अपने शरीर का अत्यधिक मोह होता है वह न श्रावक के अहिसादि अणुव्रतो का यथार्थ पालन कर सकता है, न श्रमण के अहिंसादि महानतो को सम्यक्त्तया निभा सकता है। वह हमेशा दूसरो से डरता रहता है। उसके द्वारा न किसी का हिंसक प्रतीकार सभव होता है, न किसी का अहिंसक प्रतीकार । वह दब्बू बन कर न्याय-अन्याय सव कुछ चुपचाप सह लेता है। ऐसा व्यक्ति अपने व्रतो का पालन कैसे कर सकता है, अपने कर्तव्य-धर्म को कैसे निभा सकता है ? सच्चा श्रावक एव सच्चा श्रमण वही है जो कष्टो का वीरतापूर्वक सामना करता है, उनसे भयभीत होकर अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश नहीं करता। किसी कप्ट का किस प्रकार सामना करना--